एक हीरा व्यापारी था जो हीरे का बहुत बड़ा विशेषज्ञ माना जाता था। किन्तु किसी गंभीर बीमारी के चलते अल्प आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। वह अपने पीछे पत्नी और एक बेटा छोड़ गया। जब बेटा बड़ा हुआ तो उसकी माँ ने कहा, “बेटा , मरने से पहले तुम्हारे पिताजी ये पत्थर छोड़ गए थे, तुम इसे लेकर बाज़ार जाओ और इसकी कीमत का पता लगाओ। लेकिन स्मरण रहे कि तुम्हे केवल कीमत पता करनी है, इसे बेचना नहीं है।”
युवक पत्थर लेकर निकला, सबसे पहले उसे नई बन रही इमारत में काम करता मजदूर मिला। युवक ने मजदूर से पूछा, “काका इस पत्थर का क्या दोगे?” मजदूर ने कहा, “बेटा ऐसे पत्थर तो रोज ढोता हूँ, मेरे यह किस काम का? इसका कुछ भी मूल्य नहीं, क्यों यह टुकडा लिए घुम रहे हो।” युवक आगे बढ गया। सामने ही एक सब्जी बेचने वाली महिला मिली। “अम्मा, तुम इस पत्थर के बदले मुझे क्या दे सकती हो ?”, युवक ने पूछा। “यदि मुझे देना ही है तो दो गाजरों के बदले ये दे दो, तौलने के काम आएगा।” – सब्जी वाली बोली।
युवक आगे बढ़ गया। आगे वह एक दुकानदार के पास गया और उससे पत्थर की कीमत जानना चाहा। दुकानदार बोला, “इसके बदले मैं अधिक से अधिक 500 रूपये दे सकता हूँ, देना हो तो दो नहीं तो आगे बढ़ जाओ।” युवक इस बार एक सुनार के पास गया, सुनार ने पत्थर के बदले 20 हज़ार देने की बात की। फिर वह हीरे की एक प्रतिष्ठित दुकान पर गया वहां उसे पत्थर के बदले 1 लाख रूपये का प्रस्ताव मिला। और अंत में युवक शहर के सबसे बड़े हीरा विशेषज्ञ के पास पहुंचा और बोला, “श्रीमान, कृपया इस पत्थर की कीमत बताने का कष्ट करें।” विशेषज्ञ ने ध्यान से पत्थर का निरीक्षण किया और आश्चर्य से युवक की तरफ देखते हुए बोला, “यह तो एक अमूल्य हीरा है। करोड़ों रूपये देकर भी ऐसा हीरा मिलना मुश्किल है।”
मित्रों!! अमूल्य ज्ञान के साथ भी ऐसा ही है। न समझने वाले, या पहले से ही मिथ्याज्ञान से भरे व्यक्ति के लिए उत्तम ज्ञान का मूल्य कौडी भर का भी नहीं। उलट वह उपहास करता है कि आप बेकार सी वस्तु लिए क्यों घुम रहे है।वस्तुतः मनुष्य अपनी अपनी अक्ल अनुसार, उस का दुरूयोग, प्रयोग या उपयोग करता है। कईं बार तो उस ज्ञान को मामूली से तुच्छ कामो में लगा देता हैं। यदि हम गहराई से सोचें तो स्पष्ट होता है कि हीरे की परख कुशल जौहरी ही कर सकता है। निश्चित ही ज्ञान वहीं जाकर अपना पूरा मूल्य पाता है जहाँ विवेक और परख सम्यक रूप से मौजूद हो।
yashoda agrawal
25/05/2013 at 5:15 अपराह्न
हीरे की परख कहूँया माँ की महत्ता लिखूँज्ञान की पहली पायदान पर ला खड़ा किया अपने बालक कोइस अंतिम पंक्ति में कथा का सार परिलक्षित होता हैज्ञान वहीं जाकर अपना पूरा मूल्य पाता है जहाँ विवेक और परख सम्यक रूप से मौजूद हो। सादर
सतीश सक्सेना
25/05/2013 at 5:33 अपराह्न
बहुत सुंदर बोध कथा.. जौहरी कम अवश्य हैं , मगर तलाशने पर मिल जाते हैं !हमारे नज़दीक एक तो आप ही हो !आभार आपका !
ताऊ रामपुरिया
25/05/2013 at 5:53 अपराह्न
कहा गया है कि हीरे की परख जौहरी के पास ही होती है. इसी प्रकार मूर्खों के बीच रहकर ज्ञानी भी अपना उपहास उडवाता है. मनुष्य को चाहिये कि वो अपनी संगति भी सुधी और ज्ञानी जनों के साथ रखे तो इस संसार रूपी हीरे का मूल्य जानकर आनंद लेता रहेगा. बहुत सुंदर और उपयोगी आलेख, आभार.रामराम.
Anurag Sharma
25/05/2013 at 6:43 अपराह्न
सुंदर प्रसंग। सबकी अपनी अपनी सीमाएं है। तुलसीदास के शब्दों में, "सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं"
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
25/05/2013 at 7:46 अपराह्न
बहुत बेहतरीन सुंदर बोधकथा,,,RECENT POST : बेटियाँ,
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
25/05/2013 at 8:03 अपराह्न
मूर्खों का संग छोड़ना ही श्रेयस्कर है. धन्यवाद इस कथा के लिये.
महेन्द्र श्रीवास्तव
25/05/2013 at 8:03 अपराह्न
सही है, बढिया
देवेन्द्र पाण्डेय
25/05/2013 at 10:33 अपराह्न
सही बात है।
संगीता स्वरुप ( गीत )
25/05/2013 at 11:44 अपराह्न
सुंदर बोध कथा ।
संजय अनेजा
26/05/2013 at 12:33 पूर्वाह्न
मैं जौहरी होता तो कहानी वाले मजदूर, सब्जी वाली अम्मा, दुकानदार और सुनार की सुबह शाम प्रशंसा किया करता।
प्रवीण पाण्डेय
26/05/2013 at 10:54 पूर्वाह्न
सही पहचान ही हो जाये, इतनी बुद्धि दे ईश्वर।
डॉ टी एस दराल
26/05/2013 at 8:03 अपराह्न
ज्ञान तो ज्ञानी के पास ही मिलता है। इसीलिए कहते हैं — ज्ञानी से ज्ञानी मिले तो ज्ञान चौगुना हो। सुन्दर बोध कथा।
निहार रंजन
27/05/2013 at 1:32 पूर्वाह्न
सुन्दर कथा.
Anurag Sharma
27/05/2013 at 2:32 पूर्वाह्न
सच है!
kunwarji's
27/05/2013 at 3:16 अपराह्न
सही कहा आपने सुज्ञ जी!कुँवर जी,
Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता
30/05/2013 at 12:54 अपराह्न
waah..