Monthly Archives: फ़रवरी 2011
प्रार्थना : गुणानुवाद
जैसा अन्न वैसा मन!!
सोचविहारी और जडसुधारी का अलाव
कस्बे में दो पडौसी थे, सोचविहारी और जडसुधारी, दोनो के घर एक दिवार से जुडे हुए,दोनो के घर के आगे बडा सा दालान। दोनो के बीच सम्वाद प्राय: काम आवश्यक संक्षिप्त सा होता था। बाकी बातें वे मन ही मन में सोच लिया करते थे।जाडे के दिन थे, आज रात उनकी अलाव तापने की इच्छा थी, दोनो ने लकडहारे से जलावन लकडी मंगा रखी थी।
- सोचविहारी: परंपरा संस्कृति और विकास सुधार को सोच समझकर संतुलित कर चलने वाला व्यक्तित्व।
- जडसुधारी: रूढि विकृति और संस्कृति को एक भाव नष्ट कर प्रगतिशील बनने वाला व्यक्तित्व।
- अलाव: सभ्यता,विकास।
- गीली लकडी: सुसंस्कृति, आस्थाएं।
- सूखी लकडी: रूढियां, अंधविश्वास।
- धुंआ : अपसंस्कृति का अंधकार
एक सभ्यता पतन के कगार पर
विदेशी संस्कृति को तो हमारे संस्कार रत्ती भर भी पसंद नहिं, फिर क्यों उनके संस्कार हम बहुमानपूर्वक अंगीकार करते है? ऐसे में हमारे देशी जयचंद उस सांस्कृतिक आकृमण के दलाल बन जाते है। शरूआत में वे मिलावट को प्रशय देते है,विकास और आधुनिकता की जरूरत बताते है। और अन्ततः हमारी शुद्ध संस्कृति को संकर संस्कृति बना देते है।यह संस्कृति का रिफार्म नहीं, घालमेल का उदाहरण है।
और फिर हमे ही उलहाना देते है कि तुम्हारे संस्कारो में है क्या? जो भी अच्छा है वह सब कुछ तो पाश्चात्य संस्कृति से लिया,सीखा है। और अब बची खुची पुरातन ढर्रे की कतरन का कोई औचित्य नहीं है। जडविहिन रिवाज, रूढियां और अंधविश्वास ही प्रतीत होते है।अन्ततः हम स्वयं ही उसे दूर कर देते है। संस्कृति को विकृति बनाकर, शुद्ध संस्कृति को पहले भ्रष्ट और फिर नष्ट करने का योजनाबद्ध षडयंत्र अनवरत जारी है। किसी एक शत्रु द्वारा नहीं, कई कुसंस्कृतिया, कई विदेशी विचारधाराएं और कितनी ही तरह के कुटिल व्यवसायिक स्वार्थ!! भारतिय सभ्यता संस्कृति पतन के कगार पर है।
________________________________________________________
जैसा अन्न वैसा मन, जैसा पाणी वैसी वाणी
एक साधु ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए जा रहे थे और एक गांव में प्रवेश करते ही शाम हो गई। ग्रामसीमा पर स्थित पहले ही घर में आश्रय मांगा,वहां एक पुरुष था जिसने रात्री विश्राम की अनुमति दे दी। और भोजन के लिये भी कहा। साधु भोजन कर बरामदे में पडी खाट पर सो गया। चौगान में गृहस्वामी का सुन्दर हृष्ट पुष्ट घोडा बंधा था। साधु सोते हुए उसे निहारने लगा। साधु के मन में दुर्विचार नें डेरा जमाया, ‘यदि यह घोडा मेरा हो जाय तो मेरा ग्रामानुग्राम विचरण सरल हो जाय’। वह सोचने लगा, जब गृहस्वामी सो जायेगा आधी रात को मैं घोडा लेकर चुपके से चल पडुंगा। गृहस्वामी को सोया जानकर साधु घोडा ले उडा।
कोई एक कोस जा कर पेड से घोडा बांधकर सो गया। प्रातः उठकर नित्यकर्म निपटाया और घोडे के पास आकर फ़िर उसके विचारों ने गति पकडी। ‘अरे! मैने यह क्या किया? एक साधु होकर मैने चोरी की? यह कुबुद्धि मुझे क्योंकर सुझी?’ उसने घोडा गृहस्वामी को वापस लौटाने का निश्चय किया और उल्टी दिशा में चल पडा।
उसी घर में पहूँच कर गृहस्वामी से क्षमा मांगी और घोडा लौटा दिया। साधु नें सोचा कल मैने इसके घर का अन्न खाया था, कहीं मेरी कुबुद्धि का कारण इस घर का अन्न तो नहीं, जिज्ञासा से उस गृहस्वामी को पूछा- ‘आप काम क्या करते है,आपकी आजिविका क्या है?’ अचकाते हुए गृहस्वामी नें, साधु जानकर सच्चाई बता दी- ‘महात्मा मैं चोर हूँ,और चोरी करके अपना जीवनयापन करता हूँ’। साधु का समाधान हो गया, चोरी से उपार्जित अन्न का आहार पेट में जाते ही उस के मन में कुबुद्धि पैदा हो गई थी। जो प्रातः नित्यकर्म में उस अन्न के निहार हो जाने पर ही सद्बुद्धि वापस लौटी।
नीति-अनीति से उपार्जित आहार का प्रभाव प्रत्यक्ष था।
जैसा अन्न वैसा मन!