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Monthly Archives: नवम्बर 2010

संतोष………

मनुज जोश बेकार है, अगर संग नहिं होश ।
मात्र कोष से लाभ क्या, अगर नहिं संतोष ॥1॥

दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान ।
कहु न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥2॥

धन संचय यदि लक्ष्य है, यश मिलना अति दूर।
यश – कामी को चाहिये, त्याग शक्ति भरपूर ॥3॥
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6 टिप्पणियां

Posted by पर 30/11/2010 में Uncategorized

 

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आजीविका मुक्तक

  • आजीविका कर्म भी धर्म-प्रेरित चरित्र युक्त करना चाहिए।
  • जीवन निर्वाह के साथ साथ जीवन निर्माण भी करना चाहिए।
  • परिवार का निर्वाह गृहस्वामी बनकर नहीं बल्कि गृहन्यासी (ट्रस्टी) बनकर निस्पृह भाव से करना चाहिए।
  • सत्कर्म से प्रतिष्ठा अर्जित करें व सद्चरित्र से विश्वस्त बनें।
  • कथनी व करनी में समन्वय करें।
  • कदैया (परदोषदर्शी) नहिं, सदैया (परगुणदर्शी) बने।
  • सद्गुण अपनानें में स्वार्थी बनें, आपका चरित्र स्वतः परोपकारी बन जायेगा।
  • इन्द्रिय विषयों व भावनात्मक आवेगों में संयम बरतें।
  • उपकारी के प्रति कृतज्ञ भाव और अपकारी के प्रति समता भाव रखें।
  • भोग-उपभोग को मर्यादित करके, संतोष चिंतन में उतरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए।
  • आय से अधिक खर्च करने वाला अन्ततः पछताता है।
  • कर्ज़ लेकर दिखावा करना, शान्ती बेच कर संताप खरीदना है।
  • प्रत्येक कार्य में लाभ हानि का विचार अवश्य करना चाहिए, फिर चाहे कार्य ‘वचन व्यवहार’ मात्र ही क्यों न हो।
  • आजीविका-कार्य में जो साधारण सा झूठ व साधारण सा रोष विवशता से प्रयोग करना पडे, पश्चाताप चिंतन कर लेना चाहिए।
  • राज्य विधान विरुद्ध कार्य (करचोरी, भ्रष्टाचार आदि) नहीं करना चाहिए। त्रृटिवश हो जाय तब भी ग्लानी भाव महसुस करना चाहिए।
 

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ऐसा न करो, मित्र………न करो!!

  • कलह बढे ऐसे वचन न कहो
  • सिरदर्द करे ऐसा पठन न करो
  • क्रूरता बढे ऐसा चिंतन न करो
  • अपकीर्ती हो ऐसा वर्तन न करो
  • वासना बढे ऐसा मनन न करो
  • पेटदर्द हो ऐसा भोजन न करो

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इतना भी क्या अहसान फ़रामोश। हद है कृतघ्नता की !!!

             तेरे जीवन निर्वाह के लिये,तेरी आवश्यकता से भी अधिक संसाधन तुझे प्रकृति ने दिए, और तुने उसका अनियंत्रित अनवरत दोहन  व शोषण आरंभ कर दिया। तुझे प्रकृति ने धरा का मुखिया बनाया, तुने अन्य सदस्यों के मुंह का निवाला भी छीन लिया। तेरी सहायता के लिये प्राणी बने, तुने उन्हे पेट का खड्डा भरने का साधन बनाया। सवाल पेट का होता तो जननी इतनी दुखी न होती। पर स्वाद की खातिर, इतना भ्रष्ट हुआ कि अखिल प्रकृति पाकर भी तूं, धृष्टता से भूख और अभाव के बहाने बनाता रहा। तेरे पेट की तृष्णा तो कदाचित शान्त हो जाय, पर तेरी बेलगाम इच्छाओं की तृष्णा कभी शान्त न हुई, कृतघ्न मानव।

            जितना लिया इस प्रकृति से, उसका रत्तीभर अंश भी लौटाने की तेरी नीयत नहिं। लौटाना क्या संयत उपयोग की भी तेरी कामना  न बनी। प्रकृति ने तुझे संतति विस्तार का वरदान दियातूं अपनी संतान को माँ प्रकृति  के संरक्षण में नियुक्त करता, अपनी संतति को प्रकृति के मितव्ययी उपभोग का ज्ञान देता। निर्लज्ज, इसी तरह संतति विस्तार के वरदान का ॠण चुकाता। किन्तु तुने अपनी औलादों से लूटेरो की फ़ौज़ बनाई और छोड दिया कृपालु प्रकृति को रौंदने के लिए। वन लूटे, जीव-प्राण लूटे, पहाड के पहाड लूटे।निर्मल बहती नदियाँ लूटी,उपजाऊ जमीने लूटी। समुद्र का खार लूटा, स्वर्णधूल अंबार लूटा। इससे भी न पेट भरा तो, खोद तरल तेल भी लूटा।

               तूने तो प्रकृति के सारे गहने उतार, उसे उजाड ही कर दियाहे! बंजरप्रिय!! कृतघ्न मानव!!! प्रकृति तो फ़िर भी ममतामयी माँ ही है, उससे तो तेरा कोई दुख देखा नहिं जाताउसकी यह चिंता रहती है, कि मेरे उजाड पर्यावरण से भी बच्चो को तकलीफ न हो। वह ईशारे दे दे कर संयम का संदेश दे रही है। पर तूं भोगलिप्त भूखा जानकर भी अज्ञानी ही बना रहा। कर्ज़ मुक्त होने की तेरी कभी भी नीयत न रही। हे! अहसान फ़रामोश इन्सान!! कृतघ्न मानव!!!

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7 टिप्पणियां

Posted by पर 26/11/2010 में Uncategorized

 

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रसना इन्द्रिय भी बिगाडती है हमारे विचार और आचार!! (आहार स्रोत और मनोवृति)

श्रोतेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय ही नहीं,  

रसनेन्द्रिय भी बिगाडती है हमारे विचार और आचार!! 


घर में हमेशा हमें बच्चों के सामने गालियों का प्रयोग करना चाहिये, ऐसे थोडा ही है कि बच्चे गालियां ही सीखेंगे? न भी सीखे और अच्छे शब्द ही अपनाए। या फ़िर उन्ही का अधिकार होना चाहिए वे क्या सीखें क्या बोलें।
बच्चों के समक्ष ही टीवी पर थोडे बहुत अश्लील हिंसक फ़िल्म-कार्यक्रम देखने चाहिए, कोई देखने सुनने मात्र से थोडे ही ऐसी हरकते करने लगेंगे? और उन्हे क्या देखना क्या सुनना उनका अधिकार है जब बडे होंगे तो स्वतः ही निर्णय कर लेंगे क्या करना है और क्या नहीं, यह उनका अधिकार होना चाहिए।
नहिं ना?
फ़िर हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न मांसाहार से हिंसक विचारों का मन में स्थापन भला क्यों न होगा? और फ़िर यह कहने का भला क्या तुक है कि यह जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों। न भी हों पर संभावनाएं अधिक ही होती है। हमें तो परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं से बचना है।
बिना किसी जीव की हिंसा किये मांस प्राप्त करना संभव ही नहीं, और हिंसा से विरत हुए बिना अहिंसा-भाव का ह्रदय में स्थान पाना असम्भव है, और अहिंसा-भाव के अभाव में प्रेम व दया-करूणा का दिल से झरना बहना दुष्कर है।
बिना जीवों के प्रति करूणा लाये अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं हो सकती। क्योंकि वही विचार हमें मानवों के प्रति भी सहिष्णु बनाते है। यह कुतर्क किया जाता है कि पशुओं से पहले मानव के प्रति हिंसा कम की जाय बाद में इन जानवरों की बात की जाय। लेकिन ऐसा तो कोई सफल रास्ता नहीं है कि मानवता के प्रति पूर्ण अहिंसा स्थापित हो ही जाय। तो तब तक जीव दया की बात ही न की जाय?
मानव के साथ तो होने वाली हिंसाएं उसी के द्वेष और क्रोध का परिणाम होती है,  और मानव के लिये द्वेष और क्रोध पर पूर्ण जीत  हासिल करना आज तो सम्भव नहीं है। और निरिह निर्दोष जीव के साथ हमारे क्रोध द्वेष के सम्बंध इसप्रकार नहीं बिगडते, फ़िर इन निरपराधी ईश्वर की संतानों को क्यों दंड दिया जाय। अतः मै समझता हू मानव के कोमल भावों की अभिवृद्धि के लिये भी अहिंसा, जीवों से ही प्रारंभ की जाय। जो हमारे मानव से मानव सम्बंधो में क्रूरता दूर करने का प्रेरणास्रोत बनेगी।
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धर्म-प्रभाव दुर्लभ

धर्म का असर दिखायी क्यों नहीं पडता?
( यहां धर्म से आशय, अच्छे गुणो की शिक्षा-उपदेश से है न कि कोई निश्चित रूढ उपासना पद्धति।)

एक व्यक्ति ने साधक से पूछा “ क्या कारण है कि आज धर्म का असर नहीं होता?”

साधक बोले- यहाँ से दिल्ली कितनी दूर है?,

उसने कहा- दो सौ माईल।

“तुम जानते हो?” हां मै जानता हूँ।

क्या तुम अभी दिल्ली पहूँच गये?

पहूँचा कैसे?,अभी तो यहाँ चलूंगा तब पहुँचूंगा।

साधक बोले यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, दिल्ली तुम जानते हो, पर जब तक तुम उस और प्रस्थान नहीं करोगे तब तक दिल्ली नहीं पहुँच सकोगे। यही बात धर्म के लिये है। लोग धर्म को जानते है, पर जब तक उसके नियमों पर नहीं चलेंगे, उस और गति नहीं करेंगे, धर्म पा नहीं सकेंगे, अंगीकार किये बिना धर्म का असर कैसे होगा?

धर्म का प्रभाव क्यों नहीं पडता?

शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरुजी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि धर्म का असर क्यों नहीं होता,मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।
गुरु समयज्ञ थे,बोले- वत्स! जाओ, एक घडा शराब ले आओ।

शिष्य शराब का नाम सुनते ही आवाक् रह गया। गुरू और शराब! वह सोचता ही रह गया। गुरू ने कहा सोचते क्या हो? जाओ एक घडा शराब ले आओ। वह गया और एक छलाछल भरा शराब का घडा ले आया। गुरु के समक्ष रख बोला-“आज्ञा का पालन कर लिया”

गुरु बोले – “यह सारी शराब पी लो” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शिघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।

शिष्य ने वही किया, शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया। आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”

“तुझे नशा आया या नहीं?” पूछा गुरु ने।

गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहीं आया।

अरे शराब का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहीं चढा?

“गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहीं गई फ़िर नशा कैसे चढता”

बस फिर धर्म को भी उपर उपर से जान लेते हो, गले के नीचे तो उतरता ही नहीं, व्यवहार में आता नहीं तो प्रभाव कैसे पडेगा?
पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कार्य सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है। पुरुषार्थ की अपेक्षा होती है।

“जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहीं जाता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कर्म का संयोग स्वतः सम्भव है, अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।”
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स्वार्थ भरी इन्सानियत

इन्सान, जो भी दुनिया में है सभी को खाना अपना अधिकार मानता है।
इन्सान, पूरी प्रकृति को भोगना अपना अधिकार मानता है।
इन्सान, अपने लिये ही मानवाधिकार आयोग बनाता है।
इन्सान, अपने विचार थोपने के लिये अपने बंधु मानव की हत्या करता है।
इन्सान, स्वयं को शोषित और अपने ही बंधु-मानव को शोषक कहता है।
इन्सान, स्वार्थ में अंधा प्रकृति के अन्य जीवों से बेर रखता है।
इन्सान, कृतघ्न जिसका दूध पीता है उसे ही मार डालता है।
इन्सान, कृतघ्न अपना बोझा ढोने वाले सेवक जीव को ही खा जाता है।
ऐसी हो जब नीयत, क्या इसी को कहते है इन्सान कीइन्सानियत?……………

 

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कृपणता कैसी कैसी………

आस्था दरिद्र : जो सत्य पर भी कभी आस्थावान नहीं हो पाता।

त्याग दरिद्र : त्याग समर्थ होते हुए भी, जिससे कुछ नहीं छूटता।

दया दरिद्र : प्राणियों पर लेशमात्र भी अनुकम्पा नहीं करता।

संतोष दरिद्र : आवश्यकता पूर्ण होनें के बाद भी इच्छा तृप्त नहीं हो पाता।

वचन दरिद्र : जिव्हा पर कभी भी मधुर वचन नहीं ला पाता।

विवेक दरिद्र : बुद्धि होते हुए भी विवेक का उपयोग नहीं कर पाता।

मनुजता दरिद्र : मानव बनकर भी जो पशुतुल्य तृष्णाओं से मुक्त नहीं हो पाता।

धन दरिद्र : जिसके पास न्यून भी धन नहीं होता।

उपकार दरिद्र : कृतघ्न, उपकारी के प्रति आभार भी प्रकट नहीं कर पाता।

  • पाकर गुण दौलत असीम, मानव दरिद्र क्यों रह जाता?

 

 
 

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अहसान फ़रामोश ये तूने क्या किया।बहाने तो मत बना कृतघ्न।

तेरे जीवन निर्वाह के लिये, तेरी आवश्यकता से भी अधिक संसाधन तुझे प्रकृति ने दिए। किन्तु तुने उसका अनियंत्रित, अनवरत दोहन व शोषण आरंभ कर दिया। तुझे प्रकृति ने धरा का मुखिया बनाया, तुने अन्य सदस्यों के मुंह का निवाला भी छीन लिया। तेरी सहायता के लिये प्राणी बने, मगर तुने उन्हे पने पेट का खड्डा भरने का साधन बनाया। सवाल मात्र पेट का होता तो जननी धरा इतनी दुखी न होती। पर स्वाद की खातिर, तूँ इतना भ्रष्ट हुआ कि अखिल प्रकृति पाकर भी तूं  तुष्ट न हुआ, धृष्टता से भूख और अभाव के बहाने रोता ही रहा। तेरे पेट की तृष्णा तो कदाचित शान्त हो जाय, पर तेरी बेलगाम इच्छाओं की तृष्णा कभी शान्त न हुई, कृतघ्न मानव।

जितना लिया इस प्रकृति से, उसका रत्तीभर अंश भी लौटाने की तेरी नीयत न रही। लौटाना तो क्या, संयत उपयोग भी तेरी सद्भावना न हुई। प्रकृति ने तुझे संतति विस्तार का वरदान दिया कि तूं अपनी संतान को माँ प्रकृति के संरक्षण में नियुक्त करता,अपनी संतति को प्रकृति के मितव्ययी उपभोग की शिक्षा देता। इस विध संतति विस्तार के वरदान का ॠण चुकाता। किन्तु निर्लज्ज!! तुने अपनी औलादों से लूटेरो की फ़ौज़ बनाई और छोड दिया कृपालु प्रकृति को रौंदने के लिए। वन लूटे, जीव-प्राण लूटे, पहाड के पहाड लूटे।निर्मल बहती नदियाँ लूटी,उपजाऊ जमीने लूटी। समुद्र का खार लूटा, स्वर्णधूल अंबार लूटा। इससे भी तेरा  पेट न भरा तो, खोद तरल तेल रक्त लूटा।

तूने एक एक कर प्रकृति के सारे गहने उतार, उसे विरान बना दिया। अरे! बंजरप्रिय!! कृतघ्न मानव!!! प्रकृति तो तब भी ममतामयी माँ  है, उससे तो तुझ कपूत का  कोई दुख देखा नहीं जाता, उसे  यह चिंता सताती है कि मेरे उजाड पर्यावरण से भी बच्चो को कोई तकलीफ न हो।अभी भी गोद में आश्रय दिए हुए है। थपकी दे दे  वह  संयम का संदेश देती है, गोद से गिर पड़ता है पर सीखता नहीं। भोगलिप्त अंधा बना भूख भूख चिल्लाता रहता है। पोषक के  कर्ज़  से मुक्त होने की तेरी कभी नीयत ही न रही। हे! अहसान फ़रामोश इन्सान!! कृतघ्न मानव!!! ______________________________________________________________________

 

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मोह-बंधन

एक दार्शनिक जा रहा था। साथ में मित्र था। सामने से एक गाय आ रही थी, रस्सी गाय के बंधी हुई और गाय मालिक रस्सी थामे हुए। दार्शनिक ने देखा, साक्षात्कार किया और मित्र से प्रश्न किया- “बताओ ! गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है?” मित्र नें तत्काल उत्तर दिया “यह तो सीधी सी बात है, गाय को आदमी पकडे हुए है, अतः गाय ही आदमी से बंधी हुई है।
दार्शनिक बोला- यदि यह गाय रस्सी छुडाकर भाग जाए तो आदमी क्या करेगा? मित्र नें कहा- गाय को पकडने के लिये उसके पीछे दौडेगा। तब दार्शनिक ने पूछा- इस स्थिति में बताओ गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है? आदमी भाग जाए तो गाय उसके पीछे नहिं दौडेगी। जबकि गाय भागेगी तो आदमी अवश्य उसके पीछे अवश्य दौडेगा। तो बंधा हुआ कौन है? आदमी या गाय। वस्तुतः आदमी ही गाय के मोहपाश में बंधा है।व्यवहार और चिंतन में यही भेद है।

मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो भ्रम व यथार्थ में अन्तर स्पष्ट होने लगता है।
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गहराना

विचार वेदना की गहराई

॥दस्तक॥

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं

दृष्टिकोण

दुनिया और ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं पर हितेन्द्र अनंत की राय

मल्हार Malhar

पुरातत्व, मुद्राशास्त्र, इतिहास, यात्रा आदि पर Archaeology, Numismatics, History, Travel and so on

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ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग। भदोही (पूर्वी उत्तर प्रदेश, भारत) में ग्रामीण जीवन। रेलवे के मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर अफसर। रेल के सैलून से उतर गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलता व्यक्ति।

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