ब्लॉग एक सार्वजनिक मंच का स्वरुप ग्रहण कर चुका है, इस मंच से जो भी विचार परोसे जातेहैं पूरी दुनियाद्वारा आत्मसातहोने की संभावनाएंहै। ऐसे में ब्लोगर की जिम्मेदारी बढ जाती है वह अधिक से अधिक सामाजिक सरोकार के परिपेक्ष में लिखे तो सुधार की अनंत सम्भावनाएं है। हर ब्लॉगर को अपनी अनुकूलता अनुसार अपना वैचारिक योगदान अवश्य देना चाहिए। हिन्दी ब्लॉगिंग की वर्तमान, विकासशील परिस्थिति में भी, ब्लॉगर द्वारा किये गये प्रयास, सानुकूल समर्थ वातावरण निर्मित करेंगे। इस माध्यम से जीवन मूल्यो को नये आयाम देना सम्भव है। मानवता का विलक्षण वैचारिक विकास सम्भव है।
हिन्दी ब्लॉग जगत में सभी उच्च साहित्यकार नहीं आते, अधिसंख्य वे सामान्य से लेखक, सहज अभिव्यक्ति करने वाले ब्लॉगर ही होते है। ऐसे नव-आगंतुको को प्रेरणा व प्रोत्साहन की नितांत आवश्यकता होती है। उनकी सार्थक कृतियों पर प्रोत्साहन की दरकार रहती है। नव-ब्लॉगर के लिये तो उसका ब्लॉग लोग देखे, यह भी मायने रखता है। स्थापित होने के संघर्ष में वे भी यथा प्रयत्न दूसरे ब्लॉगर के समर्थक बनते है, बिना लेख पढे ज्यादा से ज्यादा टिप्पणियाँ करने का प्रयास करते है, उन्हे अपेक्षा होती है कि ब्लॉगजगत में उन्हें भी याद रखा जाय, और न्यूनाधिक महत्व दिया जाय। इसतरह लेन-देन प्रयास में एक तरह की नियमितता आती है, जिसे हम अक्सर गुट समझने की भूल करते है,जबकि वह सहयोग मात्र होता है।
कुछ प्रतिष्ठित प्रतिभावान साहित्यक ब्लॉगर्स के साथ भी यही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु वहां भी उनकी आवश्यकताएँ होती है। साहित्यक प्रतिभावान ब्लॉगर भी अपेक्षा रखते है, उन्हें भी साहित्यक समझ वाले पाठक उपलब्ध हो। वे अपने टिप्पणीकर्ता के अभिगम को भांप लेते है, कि पाठक साहित्यक समझ का योग्य पात्र है, और उसके साथ संवाद की निरंतरता बनती है,क्योंकि पाठक भी एक ब्लॉगर होता है सो उसके भी लेखादि को सराहता है, जो कि सराहने योग्य ही होते है। ऐसी आपसी सराहना को हम गुट मान लेते है। हमारी दुविधा यह है कि इस विकासशील दौर में हर ब्लॉगर ही पाठक होता है। अतः आपस में जुडाव स्वभाविक है।
स्थापित वरिष्ठ बलॉगर भी वर्षों से ब्लॉगिंग में है। अनुभव और प्रतिदिन के सम्पर्कों के आधार पर वे एक दूसरे को जानने समझने लगते है, ऐसे परिचित ब्लॉगर से सम्पर्क का स्थाई बनना आम बात है। इसे भी हम गुट मान लेते है।कोई भी व्यक्ति विचारधारा मुक्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रत्येक ब्लॉगर की भी अपनी निर्धारित विचारधारा होती है। सम्पर्क में आनेवाले दूसरे ब्लॉगर में जब वह समान विचार को पाता है, तो उसके प्रति आकृषण होना सामान्य है। ऐसे में निरंतर सम्वाद बनता है। समान विचारो पर समान प्रतिक्रिया देनेवालों को भी हम एक गुट मान लेते है।
इस प्रकार के जुडाव स्वभाविक और सामाजिक है। और प्राकृतिक रूप से यह ध्रुवीकरण अवश्यंभावी है। इस प्रक्रिया में वर्ग विभाजन भी सम्भव है। जैसे, बौद्धिक अभिजात्य वर्ग, सामान्य वर्ग, सहज अभिव्यक्ति वर्ग। स्थापित ब्लॉगर, साधारण ब्लॉगर, संघर्षशील ब्लॉगर।लेकिन इस वर्ग विभाजन से भय खाने की आवश्यकता नहीं। जैसे जैसे ब्लॉगिंग का विस्तार होता जायेगा, पाठक अपनी रूचि अनुसार पठन ढूंढेगा। परिणाम स्वरूप, विचार, विषय और विधा अनुसार वर्गीकृत होने में पाठकवर्ग की सुविधा अन्तर्निहित है।
वे धार्मिक विचारधाराएँ जिनमें, दर्शनआधारित विवेचन को कोई स्थान नहीं, जो कार्य-कारण के विचार मंथन को कुन्द कर देती है। मानवीय सोच को विचार-मंथन के अवसर प्रदान नहीं करती। ऐसी धार्मिक विचारधाराएं, सम्प्रदाय प्रचार की दुकानें मात्र है। जो फ़ुट्पाथ पर लगी, आने जाने वालों को अपनी दुकान में लाने हेतू चिल्ला कर प्रलोभन देते हुए आकृषित करती रहती है। इनके विवाद और गुट फ़ुट्पाथ स्तर के फेरियों समान होते है। अतः इनसे भी हिन्दी ब्लॉग जगत को कोई हानि नहीं। जहां तक बात ज्ञान-चर्चा की है तो उसके लिये धर्म-दर्शन आधारित अन्य क्षेत्र भी विकसित होतेरहेंगे।
एक प्राकृतिक नियम है, जो कमजोर होता है स्वतः पिछड जाता है।(कमजोर से यहां आशय विचार दरिद्रता से है।)और सार्वभौमिक इकोनोमिक नियम है, जैसी मांग वैसी पूर्ति। अन्ततः तो उच्च वैचारिक, सार्थक मांगे उठनी ही है, अतः जो सार्थक गुणवत्तायुक्त पूर्ति करेंगे, वही टिकेंगे। भ्रांत और निकृष्ट पूर्ति का मार्केट स्वतः खत्म होता है।
जो लोग तुच्छ स्वार्थ से ऊपर नहीं उठ पाते हैं ,मात्र कमेन्ट या समर्थकों के लिये क्षुद्र उद्यम करते है।
कभी स्वयं के आने वाले कमेन्टस व समर्थकों का दंभ भरते है या फिर अन्य ब्लॉगर को प्राप्त होने वाले कमेन्ट या समर्थकों पर ईष्याजनित आलोचना करते है। इन्ही बातों से विवाद अस्तित्व में आते है, प्रतिस्पृदा की दौड में ऐसी कई बुराईयों का प्रकट होना सहज है। इसे अपरिपक्व मानसिकता के रूप में देखा जाना चाहिए।
ऐसे विवादो का उद्देश्य अहं तुष्टि ही होता है। कहीं दर्प से तृस्कृत हुए लोग तो कहीं रंज से प्रतिकार या बदले की भावना से ग्रस्त गुट अस्तित्व में आते है जिनका पुनः आपस में ही विवाद कर बिखर जाना परिणिति है। इस प्रकार की निर्थक गुटबंदी वस्तुतः छोटे छोटे विवादो की ही उपज होती है। इन सभी विवादों का मूल है हमारा अहंकार, फिर भले हम उसे स्वाभिमान का नाम ही क्यों न दे दें।
तुच्छ स्वार्थो भरी मानसिकता से गुट्बंदी का खेल खेलने वाले ब्लॉगर, इन्ही प्रयासो में विवादग्रस्त होकर, अन्तत: अपना महत्व ही खो देंगे। वे बस इस सूत्र पर कार्य कर रहे है कि बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ। कदाचित वे अपने ब्लॉग को कथित प्रसिद्धि दे पाने में सफल हों, पर व्यक्तित्व और विचारों से दरिद्र हो जाएंगे। उन्हें नहीं पता कि उनके सद्चरित्र में ही अपने ब्लॉग की सफलता निहित है।