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Monthly Archives: अगस्त 2010

अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा!!!!!

मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

कोई अपमान कैसे करेगा,
हमको अपने अभिमान ने मारा।
लोग ठग ही न पाते कभी भी,
हमको अपने ही लोभ ने मारा।

क्रोध अपना लगाता है अग्नि,
दावानल सा लगे जग सारा।
लगे षडयंत्र रचती सी दुनियां,
खुद की माया नें जाल रचाया।

मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,
मुझको अपने ही मोह ने बांधा।
रिश्ते बनते है पल में पराए,
मैने अपना स्वार्थ जब साधा।

दर्द आते है मुझ तक कहां से,
खुद ही ओढा भावों का लबादा।
इच्छा रहती सदा ही अधूरी,
पाना चाहा देने से भी ज्यादा।

खुद का स्वामी मुझे था बनना,
मैने बाहर ही ढूंढा खेवैया।
स्व कषायों ने नैया डूबो दी,
जब काफ़ी निकट था किनारा।

मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

 

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क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है!!!!!!!-सुज्ञ

सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।

गुड की ढेली पाकर चुहा, बन बैठा पंसारी।
पंसारिन नमक पे गुड का, पानी चढा रही है।
कपि के हाथ लगा है अबतो, शांत पडा वो पत्थर।
शांति भी विचलित अपना, कोप बढा रही है।

हिंसा ने ओढा है जब से, शांति का चोला।
अहिंसा मन ही मन अबतो, बडबडा रही है।

सियारिन जान गई जब करूणा की कीमत।
मासूम हिरनी पर हिंसक आरोप चढा रही है।

सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।
 

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अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।


कोई अपमान कैसे करेगा,
हमको अपने अभिमान ने मारा।
लोग ठग ही न पाते कभी भी,
हमको अपने ही लोभ ने मारा।


क्रोध अपना लगाता है अग्नि,
दावानल सा लगे जग सारा।
लगे षडयंत्र रचती सी दुनियां,
खुद की माया नें जाल रचाया।


मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,
मुझको अपने ही मोह ने बांधा।
रिश्ते बनते है पल में पराए,
मैने अपना स्वार्थ जब साधा।


दर्द आते है मुझ तक कहां से,
खुद ही ओढा भावों का लबादा।
इच्छा रहती सदा ही अधूरी,
पाना चाहा देने से भी ज्यादा।


खुद का स्वामी मुझे था बनना,
मैने बाहर ही ढूंढा खेवैया।
स्व कषायों ने नैया डूबो दी,
जब काफ़ी निकट था किनारा।


मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।
 
 

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क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है

सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।

गुड की ढेली पाकर चुहा, बन बैठा पंसारी।
पंसारिन नमक पे गुड का, पानी चढा रही है।

कपि के हाथ लगा है अबतो, शांत पडा वो पत्थर।
शांति भी विचलित अपना, कोप बढा रही है।

हिंसा ने ओढा है जब से, शांति का चोला।
अहिंसा मन ही मन अबतो, बडबडा रही है।

सियारिन जान गई जब करूणा की कीमत।
मासूम हिरनी पर हिंसक आरोप चढा रही है।

सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।

 
 

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मांसाहार प्रचार का भ्रमज़ाल (सार्थक विकल्प निरामिष)

सलीम खान ने कभी अपने ब्लॉग पर यह ’14 बिन्दु’ मांसाहार के पक्ष में प्रस्तुत किये थे। असल में यह सभी कुतर्क ज़ाकिर नाईक के है, जो यहां वहां प्रचार माध्यमों से फैलाए जाते है। वैसे तो इन फालतू कुतर्को पर प्रतिक्रिया टाली भी जा सकती थी, किन्तु  इन्टरनेट जानकारियों का स्थायी स्रोत है यहाँ ऐसे भ्रामक कुतर्क अपना भ्रमजाल फैलाएँगे तो लोगों में संशय और भ्रम स्थापित होंगे। ये कुतर्क यदि निरूत्तर रहे तो भ्रम, सच की तरह रूढ़ हो जाएंगे, इसलिए जालस्थानों में इन कुतर्कों का यथार्थ और तथ्ययुक्त खण्ड़न  उपलब्ध होना नितांत ही आवश्यक है।

मांसाहार पर यह प्रत्युत्तर-खण्ड़न, धर्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि अहिंसा और करूणा के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किए जा रहे है। मांसाहार को भले ही कोई अपने धर्म का पर्याय या प्रतीक मानता हो, जीव-हत्या किसी भी धर्म का उपदेश या सिद्धांत नहीं हो सकता। इसलिए यह खण्ड़न अगर निंदा है तो स्पष्ट रूप से यह हिंसा, क्रूरता और निर्दयता की निंदा है। गोश्तखोरी प्रायोजित हिंसा सदैव और सर्वत्र निंदनीय ही होनी चाहिए, क्योंकि इस विकार से बनती हिंसक मनोवृति समाज के शान्त व संतुष्ट जीवन ध्येय में मुख्य बाधक है।

निश्चित ही शारीरिक उर्जा पूर्ति के लिए भोजन करना आवश्यक है। किन्तु सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी होने के नाते, मानव इस जगत का मुखिया है। अतः प्रत्येक जीवन के प्रति, उत्तरदायित्व पूर्वक सोचना भी मानव का कर्तव्य है। सृष्टि के सभी प्राणभूत के अस्तित्व और संरक्षण के लिए सजग रहना, मानव की जिम्मेदारी है। ऐसे में आहार से उर्जा पूर्ति का निर्वाह करते हुए भी, उसका भोजन कुछ ऐसा हो कि आहार-इच्छा से लेकर, आहार-ग्रहण करने तक वह संयम और मितव्ययता से काम ले। उसका यह ध्येय होना चाहिए कि सृष्टि की जीवराशी  कम से कम खर्च हो। साथ ही उसकी भावनाएँ सम्वेदनाएँ सुरक्षित रहे, मनोवृत्तियाँ उत्कृष्ट बनी रहे। प्रकृति-पर्यावरण और स्वभाव के प्रति यह निष्ठा, वस्तुतः उसे मिली अतिरिक्त बुद्धि के बदले, कृतज्ञता भरा अवदान है। अस्तित्व रक्षा के लिए भी अहिंसक जीवन-मूल्यों को पुनः स्थापित करना मानव का कर्तव्य है। सभ्यता और विकास को आधार प्रदान के लिए सौम्य, सात्विक और सुसंस्कृत भोजन शैली को अपनाना जरूरी है।

सलीम खान के मांसाहार भ्रमजाल का खण्ड़न।

1 – दुनिया में कोई भी मुख्य धर्म ऐसा नहीं हैं जिसमें सामान्य रूप से मांसाहार पर पाबन्दी लगाई हो या हराम (prohibited) करार दिया हो.

खण्ड़न- इस तर्क से मांसाहार ग्रहणीय नहीं हो जाता। यदि यही कारण है तो  ऐसा भी कोई प्रधान धर्म नहीं, जिस ने शाकाहार पर प्रतिबंध लगाया हो। प्रतिबंध तो मूढ़ बुद्धि के लिए होते है, विवेकवान के लिए संकेत ही पर्याप्त होते है। धर्म केवल हिंसा न करने का उपदेश करते है एवं हिंसा प्रेरक कृत्यों से दूर रहने की सलाह देते है। आगे मानव के विवेकाधीन है कि आहार व रोजमर्रा के वे कौन से कार्य है जिसमें हिंसा की सम्भावना है और उससे विरत रहकर हिंसा से बचा जा सकता है। सभी धर्मों में, प्रकट व अप्रकट रूप से सभी के प्रति अहिंसा के उद्देश्य से ही दया, करूणा, रहम आदि को उपदेशित किया गया है। पाबन्दीयां, मायवी और बचने के रास्ते निकालने वालों के लिए होती है, विवेकवान के लिए तो दया, करूणा, रहम, सदाचार, ईमान में अहिंसा ही गर्भित है।

2 – क्या आप भोजन मुहैया करा सकते थे वहाँ जहाँ एस्किमोज़ रहते हैं (आर्कटिक में) और आजकल अगर आप ऐसा करेंगे भी तो क्या यह खर्चीला नहीं होगा?

खण्ड़न- अगर एस्किमोज़ मांसाहार बिना नहीं रह सकते तो क्या आप भी शाकाहार उपलब्ध होते हुए एस्किमोज़ का बहाना आगे कर मांसाहार चालू रखेंगे? खूब!! एस्किमोज़ तो वस्त्र के स्थान पर चमड़ा पहते है, आप क्यों नही सदैव उनका वेश धारण किए रहते? अल्लाह नें आर्कटिक में मनुष्य पैदा ही नहीं किये थे,जो उनके लिये वहां पेड-पौधे भी पैदा करते, लोग पलायन कर पहुँच जाय तो क्या कीजियेगा। ईश्वर नें बंजर रेगीस्तान में भी इन्सान पैदा नहीं किए। फ़िर भी स्वार्थी मनुष्य वहाँ भी पहुँच ही गया। यह तो कोई बात नहीं हुई कि  दुर्गम क्षेत्र में रहने वालों को शाकाहार उपलब्ध नहीं, इसलिए सभी को उन्ही की आहार शैली अपना लेनी चाहिए। आपका यह एस्किमोज़ की आहारवृत्ति का बहाना निर्थक है। जिन देशों में शाकाहार उपलब्ध न था, वहां मांसाहार क्षेत्र वातावरण की अपेक्षा से मज़बूरन होगा और इसीलिए उसी वातावरण के संदेशकों-उपदेशकों नें मांसाहार पर उपेक्षा का रूख अपनाया होगा। लेकिन यदि उपलब्ध हो तो, सभ्य व सुधरे लोगों की पहली पसंद शाकाहार ही होता है। जहां सात्विक पौष्ठिक शाकाहार प्रचूरता से उपलब्ध है वहां जीवों को करूणा दान या अभयदान दे देना चाहिए। सजीव और निर्जीव एक गहन विषय है। जीवन वनस्पतियों आदि में भी है, लेकिन प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो क्रूरता की पराकाष्ठा है। आप लोग दबी जुबां से कहते भी हो कि “मुसलमान, शाकाहारी होकर भी एक अच्छा मुसलमान हो सकता है” फ़िर मांसाहार की इतनी ज़िद्द ही क्यों?, और एक ‘अच्छा मुसलमान’ बनने से भला इतना परहेज भी क्यों ?

3 – अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनमें भी जीवन होता है.
4 – अगर सभी जीव/जीवन पवित्र है पाक है तो पौधों को क्यूँ मारा जाता है जबकि उनको भी दर्द होता है.
5 – अगर मैं यह मान भी लूं कि उनमें जानवरों के मुक़ाबले कुछ इन्द्रियां कम होती है या दो इन्द्रियां कम होती हैं इसलिए उनको मारना और खाना जानवरों के मुक़ाबले छोटा अपराध है| मेरे हिसाब से यह तर्कहीन है.

खण्ड़न- इस विषय पर जानने के लिए शाकाहार मांसाहार की हिंसा के सुक्ष्म अन्तर  को समझना होगा। साथ ही हिंसा में विवेक  करना होगा। स्पष्ट हो जाएगा कि जीवहिंसा प्रत्येक कर्म में है, किन्तु हम विवेकशील है,  हमारा कर्तव्य बनता है, हम वह रास्ता चुनें जिसमे जीव हिंसा कम से कम हो। किन्तु आपके तर्क की सच्चाई यह है कि वनस्पति हो या पशु-पक्षी, उनमें जान साबित करके भी आपको किसी की जान बचानी नहीं है। आपको वनस्पति जीवन पर करूणा नहीं उमड़ रही, हिंसा अहिंसा आपके लिए अर्थहीन है, आपको तो मात्र सभी में जीव साबित करके फिर बडे से बडे प्राणी और बडी से बडी हिंसा का चुनाव करना है।

“एक यह भी कुतर्क दिया जाता है कि शाकाहारी सब्जीयों को पैदा करनें के लिये आठ दस प्रकार के जंतु व कीटों को मारा जाता है।”

खण्ड़न- इन्ही की तरह कुतर्क करने को दिल चाहता है………
भाई, इतनी ही अगर सभी जीवों पर करूणा आ रही है,और जब दोनो ही आहार हिंसाजनक है तो दोनो को छोड क्यों नहीं देते?  दोनो नहीं तो पूरी तरह से किसी एक की तो कुर्बानी(त्याग) करो…॥ कौन सा करोगे????

“ऐसा कोनसा आहार है,जिसमें हिंसा नहीं होती।”

खण्ड़न- यह कुतर्क ठीक ऐसा है कि ‘वो कौनसा देश है जहां मानव हत्याएं नहीं होती?’ इसलिए मानव हत्याओं को जायज मान लिया जाय? उसे सहज ही स्वीकार कर लिया जाय? और उसे बुरा भी न कहा जाय? आपका आशय यह है कि, जब सभी में जीवन हैं, और सभी जीवों का प्राणांत, हिंसादोष है तो सबसे उच्च्तम, क्रूर, घिघौना बडे जीव की हत्या का दुष्कर्म ही क्यों न अपनाया जाय? यह तो सरासर समझ का दिवालियापन है!!

तर्क से तो बिना जान निकले पशु शरीर मांस में परिणित हो ही नहीं सकता। तार्किक तो यह है कि किसी भी तरह का मांस हो, अंततः मुर्दे का ही मांस होगा। उपर से तुर्रा यह है कि हलाल तरीके से काटो तो वह मुर्दा नहीं । मांस के लिये जीव की जब हत्या की जाती है, तो जान निकलते ही मख्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है, पता नहीं जान निकलनें का एक क्षण में मख्खियों को कैसे आभास हो जाता है। उसी क्षण से वह मांस मख्खियों के लार्वा का भोजन बनता है, जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही लगभग 563 तरह के सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार किया जाता है वह जगह व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, और यह रोगाणु भी जीव ही होते है। यानि एक ताज़ा मांस के टुकडे पर ही हज़ारों मख्खी के अंडे, लाखों सुक्ष्म जीव, और हज़ारों रोगाणु होते है। कहो, किसमें जीव हिंसा ज्यादा है।, मुर्दाखोरी में या अनाज दाल फ़ल तरकारी में?

रही बात इन्द्रिय के आधार पर अपराध की तो जान लीजिए कि हिंसा तो अपराध ही है बस क्रूरता और सम्वेदनाओं के स्तर में अन्तर है। जिस प्रकार किसी कारण से गर्भाधान के समय ही मृत्यु हो जाय, पूरे माह पर मृत्यु हो जाय, जन्म लेकर मृत्यु हो, किशोर अवस्था में मृत्यु हो जवान हो्कर मृत्यु हो या शादी के बाद मृत्यु हो होने वाले दुख की मात्रा व तीव्रता बढ़ती जाती है। कम से अधिकतम दुख महसुस होता है क्योंकि इसका सम्बंध भाव से है। उसी तरह अविकसित से पूर्ण विकसित जीवन की हिंसा पर क्रूर भाव की श्रेणी बढती जाती है। बडे पशु की हिंसा के समय अधिक विकृत व क्रूर भाव चाहिए। सम्वेदना भी अधिक से अधिक कुंदओ जानी चाहिए। आप कम इन्द्रिय पर अधिक करूणा की बात करते है न, क्या विकलेन्द्रिय भाई के अपराध के लिए इन्द्रिय पूर्ण भाई को फांसी दे देना न्यायोचित होगा? यदि दोनो में से किसी एक के जीवन की कामना करनी पडे तो किसके पूर्ण जीवन की कामना करेंगे? विकलेन्द्रिय या पूर्णइन्द्रिय?

6 -इन्सान के पास उस प्रकार के दांत हैं जो शाक के साथ साथ माँस भी खा/चबा सकता है.

7 – और ऐसा पाचन तंत्र जो शाक के साथ साथ माँस भी पचा सके. मैं इस को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध भी कर सकता हूँ | मैं इसे सिद्ध कर सकता हूँ.

खण्ड़न- मानते है इन्सान कुछ भी खा/चबा सकता है, किन्तु प्राकृतिक रूप से वह शिकार करने के काबिल हर्गिज नहीं है।  वे दांत शिकार के अनुकूल नहीं है। उसके पास तेज धारदार पंजे भी नहीं है। मानव शरीर संरचना शाकाहार के ही अनुकूल है। मानव प्रकृति से शाकाहारी ही है। खाने चबाने को तो हमने लोगों को कांच चबाते देखा है, जहर और नशीली वस्तुएँ पीते पचाते देखा है। मात्र खाने पचाने का सामर्थ्य हो जाने भर से जहर, कीचड़, कांच मिट्टी आदि उसके प्राकृतिक आहार नहीं हो जाते। ‘खाओ जो पृथ्वी पर है’ का मतलब यह नहीं कि कहीं निषेध का उल्लेख न हो तो धूल, पत्थर, जहर, एसीड आदि भी खा लिया जाय। इसलिए ऐसे किसी बेजा तर्क से मांसहार करना तर्कसंगत सिद्ध नहीं हो जाता।

8 – आदि मानव मांसाहारी थे इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि यह प्रतिबंधित है मनुष्य के लिए | मनुष्य में तो आदि मानव भी आते है ना.

खण्ड़न- हां, देखा तो नहीं, पर सुना अवश्य था कि आदि मानव मांसाहारी थे। पर नवीनतम जानकारी तो यह भी मिली कि प्रगैतिहासिक मानव शाकाहारी था। यदि फिर भी मान लें कि वे मांसाहारी थे तो बताईए शिकार कैसे करते थे? अपने उन दो छोटे भोथरे दांतो से? या कोमल नाखूनो से? मानव तो पहले से ही शाकाहारी रहा है, उसकी मां के दूध के बाद उसकी पहली पहचान फलों – सब्जियों से हुई होगी। जब कभी कहीं, शाकाहार का अभाव रहा होगा तो पहले उसने हथियार बनाए होंगे फ़िर मांसाहार किया होगा। यानि हथियारों के अविष्कार के पहले वह फ़ल फ़ूल पर ही आश्रित था।

लेकिन फिर भी इस कुतर्क की जिद्द है तो, आदि युग में तो आदिमानव नंगे घुमते थे, क्या हम आज उनका अनुकरण करें? वे अगर सभ्यता के लिए अपनी नंगई छोड़ कर परिधान धारी बन सकते है तो हम आदियुगीन मांसाहारी से सभ्ययुगीन शाकाहारी क्यों नहीं बन सकते? हमारे आदि पूर्वजों ने इसी तरह विकास साधा है हम क्या उस विकास को आगे भी नहीं बढ़ा सकते?

9 – जो आप खाते हैं उससे आपके स्वभाव पर असर पड़ता है – यह कहना ‘मांसाहार आपको आक्रामक बनता है’ का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है.

खण्ड़न- इसका तात्पर्य ऐसा नहीं कि हिंसक पशुओं के मांस से हिंसक,व शालिन पशुओं के मांस से शालिन बन जाओगे।

इसका तात्पर्य यह है कि जब आप बार बार बड़े पशुओं की अत्यधिक क्रूरता से हिंसा करते है तब ऐसी हिंसा, और हिंसा से उपजे आहार के कारण, हिंसा के प्रति सम्वेदनशीलता खत्म हो जाती है। क्रूर मानसिकता पनपती है और हिंसक मनोवृति बनती है। ऐसी मनोवृति के कारण आवेश आक्रोश द्वेष सामान्य सा हो जाता है। क्रोधावेश में हिंसक कृत्य भी सामान्य होता चला जाता है। इसलिए आवेश आक्रोश की जगह कोमल संवेदनाओं का संरक्षण जरूरी है। जैसे- रोज रोज कब्र खोदने वाले के चहरे का भाव कभी देखा है?,पत्थर की तरह सपाट चहरा। क्या वह मरने वाले के प्रति जरा भी संवेदना या सहानुभूति दर्शाता है? वस्तुतः उसके बार बार के यह कृत्य में सलग्न रहने से, मौत के प्रति उसकी सम्वेदनाएँ मर जाती है।

10 – यह तर्क देना कि शाकाहार भोजन आपको शक्तिशाली बनाता है, शांतिप्रिय बनाता है, बुद्धिमान बनाता है आदि मनगढ़ंत बातें है.

खण्ड़न- हाथ कंगन को आरसी क्या?, यदि शाकाहारी होने से कमजोरी आती तो मानव कब का शाकाहार और कृषी छोड चुका होता। कईं संशोधनों से यह बात उभर कर आती रही है कि शाकाहार में शक्ति के लिए जरूरी सभी पोषक पदार्थ है। बाकी शक्ति सामर्थ्य के प्रतीक खेलो के क्षेत्र में अधिकांश खिलाडी शाकाहार अपना रहे है। कटु सत्य तो यह है कि शक्तिशाली, शांतिप्रिय, बुद्धिमान बनाने के गुण मांसाहार में तो बिलकुल भी नहीं है।

11 – शाकाहार भोजन सस्ता होता है, मैं इसको अभी खारिज कर सकता हूँ, हाँ यह हो सकता है कि भारत में यह सस्ता हो. मगर पाश्चात्य देशो में यह बहुत कि खर्चीला है खासकर ताज़ा शाक.

खण्ड़न- भाड में जाय वो बंजर पाश्चात्य देश जो ताज़ा शाक पैदा नहीं कर सकते!! भारत में यह सस्ता और सहज उपलब्ध है तब यहां तो शाकाहार अपना लेना बुद्धिमानी है। सस्ते महंगे की सच्चाई तो यह है कि पशु से 1 किलो मांस प्राप्त करने के लिए उन्हें 13 किलो अनाज खिला दिया जाता है, उपर से पशु पालन उद्योग में बर्बाद होती है विशाल भू-सम्पदा, अनियंत्रित पानी का उपयोग निश्चित ही पृथ्वी पर भार है। मात्र  भूमि का अन्न उत्पादन के लिए प्रयोग हो तो निश्चित ही अन्न सभी जगह अत्यधिक सस्ता हो जाएगा। बंजर निवासियों को कुछ अतिरिक्त खर्चा करना पडे तब भी उनके लिए सस्ता सौदा होगा।

12 – अगर जानवरों को खाना छोड़ दें तो इनकी संख्या कितनी बढ़ सकती, अंदाजा है इसका आपको.

खण्ड़न- अल्लाह का काम आपने ले लिया? अल्लाह कहते है इन्हें हम पैदा करते है।

जो लोग ईश्वरवादी है, वे तो अच्छी तरह से जानते है, संख्या का बेहतर प्रबंधक ईश्वर ही है।

जो लोग प्रकृतिवादी है वे भी जानते है कि प्रकृति के पास जैव सृष्टि के संतुलन का गजब प्लान है।

करोडों साल से जंगली जानवर और आप लोग मिलकर शाकाहारी पशुओं को खाते आ रहे हो, फ़िर भी जिस प्रजाति के जानवरों को खाया जाता है, बिलकुल ही विलुप्त या कम नहीं हुए। उल्टे मांसाहारी पशु अवश्य विलुप्ति की कगार पर है। सच्चाई तो यह है कि जो जानवर खाए जाते है उनका बहुत बडे पैमाने पर उत्पादन होता है। जितनी माँग होगी उत्पादन उसी अनुपात में बढता जाएगा। अगर नही खाया गया तो उत्पादन भी नही होगा।

13 -कहीं भी किसी भी मेडिकल बुक में यह नहीं लिखा है और ना ही एक वाक्य ही जिससे यह निर्देश मिलता हो कि मांसाहार को बंद कर देना चाहिए.

खण्ड़न- मेडिकल बुक किसी धार्मिक ग्रंथ की तरह ‘अंतिम सत्य’ नहीं है। वह इतनी इमानदार है कि कल को यदि कोई नई शोध प्रकाश मेँ आए तो वह अपनी ‘बुक’ में इमानदारी से परिवर्तन-परिवर्धन कर देगी। शाकाहार के श्रेष्ठ विकल्प पर अभी तक गम्भीर शोध-खोज नहीं हुई है। किन्तु सवाल जब मानव स्वास्थ्य का है तो कभी न कभी यह तथ्य अवश्य उभर कर आएगा कि मांसाहार मनुष्य के स्वास्थ्य के बिलकुल योग्य नहीं है। और फिर माँसाहार त्याग का उपाय सहज हो,अहानिकर हो तो माँसाहार से निवृति का स्वागत होना चाहिए। मेडिकल बुक में भावनाओं और सम्वेदनाओं पर कोई उल्लेख या निर्देश नहीं होता, तो क्या भावनाओं और सम्वेदनाओं की उपयोगिता महत्वहीन हो जाती है? यह भी ध्यान रहे भावोँ के कईं तथ्य और तत्व इस मेडिकल बुक में नहीं है, उस दशा में उस अन्तिम बुक को निरस्त कर देँगे जिस में किसी भी तरह का परिवर्तन ही सम्भव नहीं?

14 – और ना ही इस दुनिया के किसी भी देश की सरकार ने मांसाहार को सरकारी कानून से प्रतिबंधित किया है.

खण्ड़न- सरकारें क्यों प्रतिबंध लगायेगी? जबकि उसके निति-नियंता भी इसी समाज की देन है, यहीं से मानसिकता और मनोवृतियां प्राप्त करते है। लोगों का आहार नियत करना सरकारों का काम नहीं है।यह तो हमारा फ़र्ज़ है, हम विवेक से उचित को अपनाएं, अनुचित को दूर हटाएं। उदाहरण के लिए झुठ पर सरकारी कानून से प्रतिबंध कहीं भी नहीं लगाया गया है। फिर भी सर्वसम्मति से झूठ को बुरा माना जाता है। किसी प्रतिबंध से नहीं बल्कि नैतिक प्रतिबद्धता से हम झूठ का व्यवहार नहीं करते। कानून सच्च बोलने के लिए मजबूर नहीं कैसे कर पाएगा?  इसीलिए सच पाने के लिए अदालतों को धर्मशास्त्रों शपथ दिलवानी पडती है। ईमान वाला व्यक्ति इमान से ही सच अपनाता है और झूठ न बोलने को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर बचता है। उसी तरह अहिंसक आहार को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर अपनाना होता है।

हर प्राणी में जीवन जीने की अदम्य इच्छा होती है, यहां तक की कीट व जंतु भी कीटनाशक दवाओं के प्रतिकार की शक्ति उत्पन्न कर लेते है। सुक्ष्म जीवाणु भी कुछ समय बाद रोगप्रतिरोधक दवाओं से प्रतिकार शक्ति पैदा कर लेते है। यह उनके जीनें की अदम्य जिजीविषा का परिणाम होता है। सभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता।

इसलिए, ‘ईमान’ और ‘रहम’ की बात करने वाले ‘शान्तिपसंद’ मानव का यह फ़र्ज़ है कि वह जीए और जीने दे।

 
 

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कुरीति अगर धार्मिक आस्था का चोला पहन कर आयेगी तो……।

मेरे शाकाहार मांसाहार आलेखो को किसी भी धर्म का अपमान न माना जाय। इस आधार पर मेरा किसी भी धर्म को हीन बताने का उद्देश्य नहिं है। पर कुरिति अगर धार्मिक आस्था का चोला पहन कर आयेगी तो मैं आघात अवश्य करूंगा। मेरा मक़्सद अहिंसा है, जीव दया है, बस मेरी बात इतनी सी है कि कंई प्रकार की हिंसाओं से बचा जा सकता है तो क्यों न बचें।

हर व्यक्ति को पाप को पाप स्वीकार करना चाहिए, जैसे कि मैं स्वीकार करता हूं मेरे शाकाहार से, मेरे गमन-आगमन से और जीवन के कई कार्यों से जीवहिंसा होती है,और यह पाप भी है। बस ध्यान मेरा यही रहता है कि अनावश्यक,और बडी जीवहिंसा न हो।
न कि पाप में भी धर्म बताया जाय। पाप को धर्म बताकर हम अपनी अनुकूलताएँ साधें।


कहते है कि किसी की आस्थाओं और भावनाओं को ठेस नहिं पहूंचानी चाहिए, मै तो कह्ता हूं बेशक ठेस पहूंचाओ अगर आस्थाएं कुरिति है। इन ठेसों से ही उन आस्थाओं को सम्हलने का अवसर मिलता है। बस ठेस किसी अच्छी बात को बुरा साबित करने की भावना से न पहूंचाई जाय।

 
 

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मै न हिंदु, न इस्लाम, न जैन, न बौध प्रचारक हूं, मै हूं मात्र जीवदया वादी।

लोगो को लगता है कि मैँ शाकाहार के बहाने किसी धर्म का प्रचार कर रहा हूँ किंतु यह सच नही हैमेरे शाकाहार मांसाहार सम्बंधी आलेखो को किसी भी धर्म का अपमान न माना जाय।  यह किसी भी धर्म को हीन बताने के उद्देश्य से नहीं है। फिर भी किसी विचारधारा में दया जैसा कुछ भी नहीं है तो उस धर्म मेँ धर्म जैसा है भी क्या? यदि हिंसक कुरीति, धार्मिक आस्था का चोला पहन कर आती है तो ऐसी कुरीतियो पर आघात करना जागरूकता कहलाता है। मेरा मक़सद अहिंसा है, जीव दया है, इसलिए बात मात्र इतनी सी है कि कईं प्रकार की हिंसाओं से जब मानव बच सकता है,तो उसे क्यों न हिंसा से बचना चाहिए?

हिंसा पाप है और हर व्यक्ति को पाप को पाप स्वीकार करना ही चाहिए, फिर चाहे वह धर्म के नाम पर या धार्मिक आस्थाओँ की ओट में ही क्यो न किया जा रहा हो।  मैं तो यह स्वीकार करता हूं कि मेरे शाकाहार से भी, मेरे गमन-आगमन से, साथ ही जीवन के कई कार्यों से जीवहिंसा होती है. किंतु अपने लिए आवश्यक होने मात्र से कोई पाप कृत्य धर्म नही बन जाता, वह पाप ही माना जाएगा। बस ध्यान विवेक व सावधानी इसी बात पर हो कि हमसे बडी जीवहिंसा न हो जाय। यह कुटिलता नहीं कि अपरिहार्यता के कारण पाप को भी धर्म बताया जाय।
कहते है कि किसी की आस्थाओं और भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। लेकिन जरा सी सार्थक ठेस से यदि आस्थाएँ कांप उठे तो वे कैसी आस्थाएँ? मै तो कहता हूँ बेशक उन अस्थिर आस्थाओं को ठेस पहुँचाओ यदि वे आस्थाएं कुरीति है। इन ठेसों से ही सम्यक् आस्थाओं को सुदृढ़ होने का औचित्य प्राप्त होता है। बस यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ठेस कुतर्कों से किसी को मात्र बुरा साबित करने के लिए ही न पहुँचाई जाय।

 

ईश्वर नें जानवरों को हमारे भोजन के लिये ही पैदा किया है? (हिंसा अनुमति का यथार्थ)

वैसे तो शाकाहार – मांसाहार का सम्बंध किसी धर्म विशेष से नहीं है,लेकिन मांसाहार प्रचार में सलग्न लोग इस कहावत को सार्थक करते लगते है कि ‘मांस खाए तो मुसलमान’। क्योंकि मांसाहार आदतों को बचाने के लिए इस्लाम के अनुयायी ही जी-जान से जुटे नज़र आते है। और अपने शास्त्रो से ‘अनुमति’ को ‘आदेश’ की तरह आगे करते है। जबकि यह भी निश्चित नहीं कि वह ‘अनुमति’ है या ‘उल्लेख’ मात्र। प्रस्तुत आलेख मांसाहार को उसी दृष्टिकोण से परखने का प्रयास है।

 ईश्वर नें जानवरों को हमारे भोजन आदि के लिये ही पैदा किया है?

अक्सर कुरआन की चार आयतों का हवाला देकर, यह ‘अनुमति’ की बात कही जाती हैं, आइए देखते है उन आयतों के क्या मायने है।

“ऐ लोगों, खाओ जो पृथ्वी पर है लेकिन पवित्र और जायज़ (कुरआन 2:168)

“ऐ ईमान वालों, प्रत्येक कर्तव्य का निर्वाह करो| तुम्हारे लिए चौपाये जानवर जायज़ है, केवल उनको छोड़कर जिनका उल्लेख किया गया है” (कुरआन 5:1)

इन आयतों में ‘मांस’ शब्द नहीं है। कहा मात्र यह गया है, खाओ जो पृथ्वी पर है लेकिन पवित्र और जायज़ । ‘पवित्र और जायज़’ में जायज़ तो शाकाहार भी है। और क्या करें जब पृथ्वी के धूल पत्थर को नाज़ायज़ नहीं कहा गया? यहां आशय मात्र यह है कि जानवरो का सवारी, ऊन आदि के लिये उपयोग जायज़ है।

“रहे पशु, उन्हें भी उसी ने पैदा किया जिसमें तुम्हारे लिए गर्मी का सामान (वस्त्र) भी और अन्य कितने लाभ. उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो” (कुरआन 16:5)

“और मवेशियों में भी तुम्हारे लिए ज्ञानवर्धक उदहारण हैं. उनके शरीर के अन्दर हम तुम्हारे पीने के लिए दूध पैदा करते हैं और इसके अलावा उनमें तुम्हारे लिए अनेक लाभ हैं, और जिनका माँस तुम प्रयोग करते हो” (कुरआन 23:21)

इन आयतों में ‘खाना’ व ‘माँस’ शब्द अवश्य है। लेकिन इसे बडी सावधानी से मनन करने की आवश्यकता हैं। यहां अल्लाह, जानवरों को गर्मी के सामान के लिये पैदा करनें की तो जिम्मेदारी लेता है, पर खाने की क्रिया बात और कर्म बंदे पर छोडता है। अर्थ साफ़ है ‘कुछ को तुम खाते हो’। यह वाक्य खाने की आदतों का उल्लेख मात्र है। यहां कोई आज्ञा या आदेश नहीं है। उस समय के परिवेश और काल अनुसार कि तुम लोग खाते थे, आपकी आदतों का बयान मात्र है। कोई अनुमति नहीं। और यदि अनुमति का ही आसरा लिया जाय तब भी अनावश्यक रूप से अनुमति का उपभोग करना जरूरी नहीं है।

निशानी:

और तुम्हारे लिए चौपायों में से एक बड़ी शिक्षा-सामग्री है, जो कुछ उनके पेटों में है उसमें से गोबर और रक्त से मध्य से हम तुम्हे विशुद्ध दूध पिलाते है, जो पीनेवालों के लिए अत्यन्त प्रिय है, (16 : 66) और खजूरों और अंगूरों के फलों से भी, जिससे तुम मादक चीज़ भी तैयार कर लेते हो और अच्छी रोज़ी भी। निश्चय ही इसमें बुद्धि से काम लेनेवाले लोगों के लिए एक बड़ी निशानी है (16 : 67)

और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है और उन्हें तुम खाते भी हो (23 : 21)

उपरोक्त अलग अलग आयतों में अल्लाह ने अपने प्रदान का उल्लेख करते हुए, अपने दिए हुए से तुम लगाकर, कहे गए और तुम्हारे द्वारा किए जाने में भेद कर दिया है। अल्लाह ईशारा करते है कि जो कर्म तुम कर रहे हो इसमें बड़ी शिक्षा या बड़ी निशानी है, जिसे बुद्धि से काम लेने वालों को समझना चाहिए। यदि आयत 16:67 से ‘तुम’ लगाकर भी शराब का निषेध है तो 23:21 में भी ‘तुम’ लगे होने से अल्लाह की मांसाहार अनुमति नहीं हुई। मात्र जिक्र हुआ।

कुरआन में कईं जगह, रहम के परिपेक्ष्य में यह आदेश उल्लेखित होता है कि तुम ‘अनावश्यक हत्या’ न करो। भोजन के लिए पर्याप्त शाकाहार उपल्ब्ध होते हुए भी स्वादेन्द्रीय के वशीभूत, मांसाहार के प्रयोजन से जीव हिंसा करना ‘अनावश्यक हत्या’ ही है।

 
 

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मांसाहार करते हुए वनस्पति जीवन पर करूणा क्यों उमड रही है?

मांसाहारी प्रचारको द्वारा शाकाहार पर बडे बचकाना कुतर्क प्रस्तूत किये जाते है। September 6, 2008 में ही श्री अनुराग शर्मा ने चार लेखों की श्रेणी लिखकर बडे ही तर्किक ढंग से प्रत्युत्तर प्रस्तूत किये थे। आपके लिये उस में से अन्तिम लेख यहां प्रस्तूत किया जा रहा है।

शाकाहार – कुछ तर्क कुतर्क

शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस और इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है।

मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।

अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं – आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है।

मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर पर बोनसाई देखकर काफी व्यथित होकर बोले, “क्या यह पौधों पर अत्याचार नहीं है?” अब मैं क्या कहता? थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने पेट ख़राब होने का किस्सा बताया और उसका दोष उन बीसिओं झींगों को दे डाला जिन्हें वे सुबह डकार चुके थे – कहाँ गया वह अत्याचार-विरोधी झंडा?

एक और बन्धु दूध में पाये जाने वाले बैक्टीरिया की जान की चिंता में डूबे हुए थे। शायद उनकी मांसाहारी खुराक पूर्णतः बैक्टीरिया-मुक्त ही होती है। दरअसल विनोबा भावे का सिर्फ़ दूध की खुराक लेना मांसाहार से तो लाख गुने हिंसा-रहित है ही, मेरी नज़र में यह किसी भी तरह के साग, कंद-मूल आदि से भी बेहतर है। यहाँ तक कि यह मेरे अपने पौधे से तोडे गए टमाटरों से भी बेहतर है क्योंकि यदि टमाटर के पौधे को किसी भी तरह की पीडा की संभावना को मान भी लिया जाए तो भी दूध में तो वह भी नहीं है। इसलिए अगली बार यदि कोई बहसी आपको पौधों पर अत्याचार का दोषी ठहराए तो आप उसे सिर्फ़ दूध पीने की सलाह दे सकते हैं। बेशक वह संतुलित पोषण न मिलने का बहाना करेगा तो उसे याद दिला दें कि विनोबा दूध के दो गिलास प्रतिदिन लेकर ३०० मील की पदयात्रा कर सकते थे, यह संतुलित और पौष्टिक आहार वाला कितने मील चलने को तैयार है?

आईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को – अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। फ़िर भी अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो कम से कम उसे धर्म का बहाना तो न दें। पशु-बलि की प्रथा पर कवि ह्रदय का कौतूहल देखिये :

अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां

ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा

धर्म के नाम पर हिंसाचार को सही ठहराने वालों को एक बार इस्लामिक कंसर्न की वेबसाइट ज़रूर देखनी चाहिए। इसी प्रकार की एक दूसरी वेबसाइट है जीसस-वेज। हमारे दूर के नज़दीकी रिश्तेदार हमसे कई बार पूछ चुके हैं कि “किस हिंदू ग्रन्थ में मांसाहार की मनाही है?” हमने उनसे यह नहीं पूछा कि किस ग्रन्थ में इसकी इजाजत है लेकिन फ़िर भी अपने कुछ अवलोकन तो आपके सामने रखना ही चाहूंगा।

योग के आठ अंग हैं। पहले अंग यम् में पाँच तत्त्व हैं जिनमें से पहला ही “अहिंसा” है। मतलब यह कि योग की आठ मंजिलों में से पहली मंजिल की पहली सीढ़ी ही अहिंसा है। जीभ के स्वाद के लिए ह्त्या करने वाले क्या अहिंसा जैसे उत्कृष्ट विषय को समझ सकते हैं? श्रीमदभगवदगीता जैसे युद्धभूमि में गाये गए ग्रन्थ में भी श्रीकृष्ण भोजन के लिए हर जगह अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं।

अंडे के बिना मिठाई की कल्पना न कर सकने वाले केक-भक्षियों के ध्यान में यह लाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति में मिठाई का नाम ही मिष्ठान्न = मीठा अन्न है। पंचामृत, फलाहार, आदि सारे विचार अहिंसक, सात्विक भोजन की और इशारा करते हैं। हिंदू मंदिरों की बात छोड़ भी दें तो गुरुद्वारों में मिलने वाला भोजन भी परम्परा के अनुसार शाकाहारी ही होता है। संस्कृत ग्रन्थ हर प्राणी मैं जीवन और हर जीवन में प्रभु का अंश देखने की बात करते हैं। ग्रंथों में औषधि के उद्देश्य से उखाड़े जाने वाले पौधे तक से पहले क्षमा प्रार्थना और फ़िर झटके से उखाड़ने का अनुरोध है। वे लोग पशु-हत्या को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं?

अब रही बात प्रकृति में पायी जाने वाली हिंसा की। मेरे बचपन में मैंने घर में पले कुत्ते भी देखे थे और तोते भी। दोनों ही शुद्ध शाकाहारी थे। प्रकृति में अनेकों पशु-पक्षी प्राकृतिक रूप से ही शाकाहारी हैं। जो नहीं भी हैं वे भी हैं तो पशु ही। उनका हर काम पाशविक ही होता है। वे मांस खाते ज़रूर हैं मगर उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक कार्य नहीं करते हैं। वे मांस के लिए पशु-व्यापार नहीं करते, न ही मांस को कारखानों में काटकर पैक या निर्यात करते हैं। वे उसे लोहे के चाकू से नहीं काटते और न ही रसोई में पकाते हैं। वे उसमें मसाले भी नहीं मिलाते और बचने पर फ्रिज में भी नहीं रखते हैं। अगर हम मनुष्य इतने सारे अप्राकृतिक काम कर सकते हैं तो शाकाहार क्यों नहीं? शाकाहार को अगर आप अप्राकृतिक भी कहें तो भी मैं उसे मानवी तो कहूंगा ही।

अगर आप अपने शाकाहार के स्तर से असंतुष्ट हैं और उसे पौधे पर अत्याचार करने वाला मानते हैं तो उसे बेहतर बनाने के हजारों तरीके हैं आपके पास। मसलन, मरे हुए पौधों का अनाज एक पसंद हो सकती है। और आगे जाना चाहते हैं तो दूध पियें और सिर्फ़ पेड़ से टपके हुए फल खाएं और उसमें भी गुठली को वापस धरा में लौटा दें। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं – शाकाहारी रहकर आपने जितनी जानें बख्शी हैं वह भी कोई छोटी बात नहीं है। दया और करुणा का एक दृष्टिकोण होता है जिसमें जीव-हत्या करने या उसे सहयोग करने का कोई स्थान नहीं है।
                                                                                                                                          -अनुराग शर्मा

 
 

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बुढापा, कोई लेवे तो थने बेच दूं॥

(यह राजस्थानी गीत, “मोरिया आछो बोळ्यो रे……” लय पर आधारित है।)

बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं।
थांरी कौडी नहिं लेवुं रे छदाम, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं ॥

बुढापा पहली तो उंचै महलां बैठतां, बुढापा पहली तो उंचै महलां बैठतां। बैठतां, बैठतां
अबै तो डेरा थांरा पोळियाँ रे मांय, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो हिंगळू ढोळिए पोढतां, बुढापा पहली तो हिंगळू ढोळिए पोढतां। पोढतां, पोढतां,
अबै तो फ़ाटो राळो ने टूटी खाट, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो भरिया चौटे बैठतां, बुढापा पहली तो भरिया चौटे बैठता। बैठतां, बैठतां
अबै तो देहली भी डांगी नहिं जाय, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो षटरस भोजन ज़ीमतां, बुढापा पहली तो षटरस भोजन ज़ीमतां। ज़ीमतां, ज़ीमतां
अबै तो लूखा टूकडा ने खाटी छास, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो घर का हंस हंस बोलतां, बुढापा पहली तो घर का हंस हंस बोलतां। बोलतां, बोलतां
अबै तो रोयां भी पूछे नहिं सार, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो धर्म ध्यान ना कियो, बुढापा पहली तो धर्म ध्यान ना कियो। ना कियो, ना कियो
अबै तो होवै है गहरो पश्च्याताप, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

रचना शब्दकार -अज्ञात

 
 

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गहराना

विचार वेदना की गहराई

॥दस्तक॥

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं

दृष्टिकोण

दुनिया और ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं पर हितेन्द्र अनंत की राय

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ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग। भदोही (पूर्वी उत्तर प्रदेश, भारत) में ग्रामीण जीवन। रेलवे के मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर अफसर। रेल के सैलून से उतर गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलता व्यक्ति।

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