‘मन’ को जीवन का केंद्रबिंदु कहना शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। मनुष्य की समस्त क्रियाओं, आचारों का आरंभ मन से ही होता है। मन सतत तरह-तरह के संकल्प, विकल्प, कल्पनाएं करता रहता है।मन की जिस ओर भी रूचि होती है,उसका रुझान उसी ओर बढता चला जाता है, परिणाम स्वरूप मनुष्य की सारी गतिविधियां उसी दिशा में अग्रसर होती है। जैसी कल्पना हो ठिक उसी के अनुरूप संकल्प बनते है और सारे प्रयत्न-पुरुषार्थ उसी दिशा में सक्रिय हो जाते है। अन्ततः उसी के अनुरूप परिणाम सामने आने लगते हैं.। मन जिधर या जिस किसी में रस-रूचि लेने लगे, उसमें एकाग्रचित होकर श्रमशील हो जाता है। यहाँ तक कि उसे लौकिक लाभ या हानि का भी स्मरण नहीं रह जाता। प्रायः मनुष्य प्रिय लगने वाले विषय के लिए सब कुछ खो देने तो तत्पर हो जाता है। इतना ही नहीं अपने मनोवांछित को पाने के लिए बड़े से बड़े कष्ट सहने को सदैव तैयार हो जाता है।
मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाए; आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास में रुचि लेने लगे तो मानव व्यक्तित्व और उसके जीवन में एक चमत्कार का सर्जन हो सकता है। सामान्य श्रेणी का मनुष्य भी महापुरुषों की श्रेणी में सहज ही पहुंच सकता है। आवश्यकता ‘मन’ को अनुपयुक्त दिशा से उपयुक्त दिशा में मोड़ने की ही है। सारी कठिनाई मन के सहज प्रवाह पर नियंत्रण स्थापित करने की है। इस समस्या के हल होने पर मनुष्य सच्चे अर्थ में मानव बनता हुआ देवत्व के लक्षण तक सहजता से पहुंच सकता है।
शरीर-स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने के समान ही हमें मन के प्रति और भी अधिक सचेत, सावधान रहने की जरूरत है। दोयम चिंतन, दुर्विचारों और दुर्भावनाओं से मन मलिन और पतित हो जाता है। उस स्थिति में मन अपनी सभी विशेषताओं और श्रेष्ठताओं से च्युत हो जाता है।
कहते है मन के प्रवाह को तो सहज ही बहने देना चाहिए। किन्तु मन के सहज बहाव पर भरोसा करना हमेशा जोखिम भरा होता है। क्योंकि प्रवाह के समान ही मन का पतन की तरफ लुढ़कना स्वभाविक है जबकि उँचाई की ओर उठना कठिन पुरूषार्थ भरा होता है। मन का स्वभाव बालक जैसा होता है, उमंग से भरकर वह कुछ न कुछ करना-बोलना चाहता है। यदि सही दिशा न दी जाए तो उसकी क्रियाशीलता तोड़-फोड़, गाली-गलौज और दुष्चरित्र के रूप में सामने आ सकती है।
नदी के प्रवाह में बहता पत्थर सहजता से गोल स्वरूप तो पा लेता है किन्तु उसकी मोहक मूर्ति बनाने के लिए अनुशासन युक्त कठिन श्रम की आवश्यकता होती है। ठिक उसी तरह मन को उत्कृष्ट दिशा देने के लिए विशेष कठोर प्रयत्न करने आवश्यक होते है। मन के तरूवर् को उत्कृष्ट फलित करने के लिए साकात्मक सोच की भूमि, शुभचिन्तन का जल, सद्भाव की खाद और सुविचार का प्रकाश बहुत जरूरी है। मन में जब सद्विचार भरे रहेंगे तो दुर्विचार भी शमन या गलन का रास्ता लेंगे।
प्रखर चरित्र और आत्म निर्माण के लिए, मन को नियंत्रित रखना और सार्थक दिशा देना, सर्वप्रधान उपचार है। इसके लिए आत्मनिर्माण करने वाली, जीवन की समस्याओं को सही ढंग से सुलझाने वाली, उत्कृष्ट विचारधारा की पुस्तकों का पूरे ध्यान, मनन और चिंतन से स्वाध्याय करना कारगर उपाय है। यदि सुलझे हुए विचारक, जीवन विद्या के ज्ञाता, कोई संभ्रात सज्जन उपलब्ध हो सकते हों तो उनका सत्संग भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार शरीर की सुरक्षा और परिपुष्टि के लिए रोटी और पानी की आवश्यकता होती हैं उसी प्रकार आत्मिक शान्ति, सन्तुष्टि, स्थिरता और प्रगति के लिए मन को सद्विचारों, सद्भावों का प्रचूर पोषण देना नितांत आवश्यक है।
Alok Mohan
30/11/2012 at 6:28 अपराह्न
sach hai,sb man ke uper hi hai
रविकर
30/11/2012 at 6:50 अपराह्न
आभार |सुस्पष्ट सन्देश ||
देवेन्द्र पाण्डेय
30/11/2012 at 9:04 अपराह्न
मनमोहक आलेख!
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
30/11/2012 at 9:22 अपराह्न
मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाए; आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास में रुचि लेने लगे तो जीवन में एक चमत्कार का सर्जन हो सकता है।,,,,,,प्रेरक सन्देश देता लेख,,,resent post : तड़प,,,
प्रतुल वशिष्ठ
30/11/2012 at 11:11 अपराह्न
सभा के सत्संग, प्रवचन, उपदेश सभी हितकारी होने से आलोचना के कारण नहीं बनते। वे पहली बार में ही स्वीकार हो जाते हैं। मन की स्थितियों का सही-सही आकलन करने वाला आलेख।
शालिनी कौशिक
01/12/2012 at 12:29 पूर्वाह्न
सही कह रहे हैं आप .सार्थक प्रस्तुति बधाई -[कौशल] आत्महत्या -परिजनों की हत्या [कानूनी ज्ञान ]मीडिया को सुधरना होगा
प्रवीण पाण्डेय
01/12/2012 at 9:50 पूर्वाह्न
सच कहा आपने, मन सबसे बड़ा मित्र भी है, सबसे बड़ा शत्रु भी..
Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता
01/12/2012 at 11:22 पूर्वाह्न
@ शरीर-स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने के समान ही हमें मन के प्रति और भी अधिक सचेत, सावधान रहने की जरूरत है। … जिस प्रकार शरीर की सुरक्षा और परिपुष्टि के लिए रोटी और पानी आवश्यकता होती हैं उसी प्रकार आत्मिक शान्ति, सन्तुष्टि, स्थिरता और प्रगति के लिए मन को सद्विचारों, सद्भावों का प्रचूर पोषण देना नितांत आवश्यक है।true . aabhaar .
Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता
01/12/2012 at 11:36 पूर्वाह्न
गीता जी में कृष्णार्जुन संवाद में भी यह बात आती है ।अर्जुन कृष्ण से कहते हैं कि मैं एक साथ कई घोड़े साध सकता हूँ – किन्तु मन को नहीं साध पाता । तब कृष्ण कहते हैं कि उसकी लगाम बुद्धि के हाथ में रखो । और दुर्भाग्य से हम ऐसा करते नहीं …. हम अपने क्षुद्र अहंकार को, अपने स्वार्थों को, समाज के स्थापित नियमों के अंतर्गत जीतने और आदरणीय होने के लोभ को , अपने ज्ञानी कहलाने के मोह को हर एक को मन की लगाम थमाते जाते हैं ।- जब कोई हमें सही राह समझाने के प्रयास करता है, तो अहंकार मन की लगाम खींच कर उसे दूसरी और मोड़ देता है । – जब हमारी अपनी बुद्धि हमें सही दिशा दिखाती है – तब हमारा मोह उसे पथभ्रमित कर देता है । – जब मिथ्या प्रचार में आकर हम गलत को सही मानने लगते हैं और उसका साथ देने लगते हैं – तब कोई हमें आइना दिखाए तो मन उसे अपना शत्रु मान लेता है ।सच कहा आपने – मन के हाथ में जीवन दिशा सौंप देने में जोखिम ही जोखिम है …
smt. Ajit Gupta
01/12/2012 at 11:40 पूर्वाह्न
समाजोपयोगी मानसिक चिन्तन ही श्रेष्ठ है।
सुज्ञ
01/12/2012 at 12:18 अपराह्न
सही अवलोकन है……शिल्पा जी,मन को कुमार्ग पर चढ़ाने वाले यही आपके द्वारा उल्लेखित शत्रु है, चार कषाय भाव यथा- मान(अहंकार), माया (कपट आदि), लोभ(लालच आदि), क्रोध (आवेश द्वेष आदि)। और इन सब के लिए जवाबदार 'मोह'!!
सदा
01/12/2012 at 1:14 अपराह्न
नदी के प्रवाह में बहता पत्थर सहजता से गोल स्वरूप तो पा लेता है किन्तु उसकी मोहक मूर्ति बनाने के लिए अनुशासन युक्त कठिन श्रम की आवश्यकता होती है।बहुत ही सही कहा है आपने …
सञ्जय झा
01/12/2012 at 1:24 अपराह्न
abhar….shital…kalkal….nirmal post ke liye…..pranam.
एक बेहद साधारण पाठक
01/12/2012 at 8:47 अपराह्न
कहते है मन के प्रवाह को तो सहज ही बहने देना चाहिए। किन्तु मन के सहज बहाव पर भरोसा करना हमेशा जोखिम भरा होता है। क्योंकि प्रवाह के समान ही मन का पतन की तरफ लुढ़कना स्वभाविक है जबकि उँचाई की ओर उठना कठिन पुरूषार्थ भरा होता है।– सही कहा आपने .. आधुनिक[?] विज्ञान भी इसी सहज बहने देने वाली बात का समर्थन करता पाया जाता है शायद इसलिए आजकल मन के रोगी अब ज्यादा मात्रा में होने लगे हैं नदी के प्रवाह में बहता पत्थर सहजता से गोल स्वरूप तो पा लेता है किन्तु उसकी मोहक मूर्ति बनाने के लिए अनुशासन युक्त कठिन श्रम की आवश्यकता होती है।– सुन्दर उदाहरणबेहतरीन पोस्ट!
संजय @ मो सम कौन ?
01/12/2012 at 11:14 अपराह्न
सतत मनन करना मन का स्वभाव है और खेती की तरह है। मनन-चिंतन इस खेती के बीज हैं और हमारी वृत्तियाँ इस खेती की फ़सल। बीज बबूल तो फ़सल बबूल और बीज कनक तो फ़सल कनक।आभार सुज्ञजी इस पवित्र सी पोस्ट के लिये।
वाणी गीत
02/12/2012 at 9:01 पूर्वाह्न
सहजता में विवेक का उचित सम्मिश्रण व्यक्तित्व को आकर्षक , प्रभावशाली और अनुकरणीय बनाता है !!
Suman
02/12/2012 at 9:09 पूर्वाह्न
मन एक सुन्दर वाहन है आप कहे अनुसार इसका उपयोग किया जा सकता है,मोक्ष सुख तक ले जाने वाला भी मन ही है …बढ़िया पोस्ट !
संजय @ मो सम कौन ?
04/12/2012 at 9:06 अपराह्न
सुज्ञ जी,जन्मदिवस की हार्दिक बधाई।
सुज्ञ
04/12/2012 at 10:18 अपराह्न
ओह!! तो आप यहाँ बरसा रहे है शुभकामनाएँ!! :)आपका बहुत बहुत आभार मित्र जी.
Anju (Anu) Chaudhary
06/12/2012 at 4:02 अपराह्न
मन के हारे हार है ,मन के जीते जीत …सार्थक लेख …पढ़ने में अच्छा लगा
यशवन्त माथुर
22/12/2012 at 12:53 अपराह्न
दिनांक 23/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .धन्यवाद!
सुज्ञ
22/12/2012 at 4:48 अपराह्न
यशवन्त जी, बहुत बहुत आभार!!
yashoda agrawal
23/12/2012 at 6:42 पूर्वाह्न
सच्चा मन जो भी कहे कभी भी गलत नही हो सकताबहुत ही सही कहा है आपने …
Alpana Verma
24/06/2013 at 9:44 अपराह्न
बहुत ही ज्ञानवर्धक बातें आप के इस ब्लॉग पर पढ़ने को मिलती हैं.जीवन के मूल्यों को समझ कर अपनाना आज के समय में कितने लोग चाहते हैं.मन के हाथों खुद को छोड़ दिया जाता है …बुद्धि और मन अक्सर विपरीत चलते हैं.एक बात है जब भि हम कुछ करते हैं तो अक्सर कहीं भीतर से कोई विचार आता है जिसे प्रायः अनसुना कर दिया जाता है ,वह किस की आवाज़ होती है ?बुद्धि या मन या हमारी छठी इंद्रिय शक्ति ?या फिर अवचेतन मन का कोई पूर्वानुमान.