कालो न यातो वयमेव याता, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
-भृतहरि
तपते रहे तपों से क्या हम, तप हमें तपाय गये।
रहे सोचते काल काट लें, काल हमें ही काट गया।
तृष्णा तू ना हुई रे बुड्ढी, हमें बुढापा चाट गया॥
कालो न यातो वयमेव याता, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
विचार वेदना की गहराई
गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं
हितेन्द्र अनंत का दृष्टिकोण
पुरातत्व, मुद्राशास्त्र, इतिहास, यात्रा आदि पर Archaeology, Numismatics, History, Travel and so on
मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय, गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में ग्रामीण जीवन जी रहा हूँ। मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर रेलवे अफसर। वैसे; ट्रेन के सैलून को छोड़ने के बाद गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलने में कठिनाई नहीं हुई। 😊
चरित्र विकास
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ZEAL
26/10/2010 at 12:25 अपराह्न
.हमारी तृष्णा तो किंचित भी जीर्ण(न्यून) न हुई, हम जीर्ण (बुढ्ढे) हो गये।bahut sundar baat !.
सारा सच
17/04/2011 at 3:09 अपराह्न
अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ….