एक साधु ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए जा रहे थे और एक गांव में प्रवेश करते ही शाम हो गई। ग्रामसीमा पर स्थित पहले ही घर में आश्रय मांगा,वहां एक पुरुष था जिसने रात्री विश्राम की अनुमति दे दी। और भोजन के लिये भी कहा। साधु भोजन कर बरामदे में पडी खाट पर सो गया। चौगान में गृहस्वामी का सुन्दर हृष्ट पुष्ट घोडा बंधा था। साधु सोते हुए उसे निहारने लगा। साधु के मन में दुर्विचार नें डेरा जमाया, ‘यदि यह घोडा मेरा हो जाय तो मेरा ग्रामानुग्राम विचरण सरल हो जाय’। वह सोचने लगा, जब गृहस्वामी सो जायेगा आधी रात को मैं घोडा लेकर चुपके से चल पडुंगा। कुछ ही समय बाद गृहस्वामी को सोया जानकर, साधु घोडा ले उडा।
कोई एक कोस जाने पर साधु ,पेड से घोडा बांधकर सो गया। प्रातः उठकर उसने नित्यकर्म निपटाया और वापस घोडे के पास आते हुए उसके विचारों ने फ़िर गति पकडी-‘अरे! मैने यह क्या किया? एक साधु होकर मैने चोरी की? यह कुबुद्धि मुझे क्योंकर सुझी?’ उसने घोडा गृहस्वामी को वापस लौटाने का निश्चय किया और उल्टी दिशा में चल पडा।
उसी घर में पहूँच कर गृहस्वामी से क्षमा मांगी और घोडा लौटा दिया। साधु नें सोचा कल मैने इसके घर का अन्न खाया था, कहीं मेरी कुबुद्धि का कारण इस घर का अन्न तो नहीं?, जिज्ञासा से उसगृहस्वामी को पूछा- ‘आप काम क्या करते है,आपकी आजिविका क्या है?’ अचकाते हुए गृहस्वामी नें, साधु जानकर सच्चाई बता दी– ‘महात्मा मैं चोर हूँ,और चोरी करके अपना जीवनयापन करता हूँ’। साधु का समाधान हो गया, चोरी से उपार्जित अन्न काआहार पेट में जाते ही उस के मन में कुबुद्धि पैदा हो गई थी। जो प्रातः नित्यकर्म में उस अन्न केनिहार हो जाने पर ही सद्बुद्धि वापसलौटी।
नीति-अनीति से उपार्जित आहार का प्रभावप्रत्यक्ष था।
जैसा अन्न वैसा मन!!
Like this:
पसंद करें लोड हो रहा है...
Related
रश्मि प्रभा...
27/02/2011 at 7:33 अपराह्न
vatvriksh ke liye bhejen ,aisi shikshaprad rachnaaon ki zarurat hai
राज भाटिय़ा
27/02/2011 at 8:33 अपराह्न
सत्य वचन जी तभी तो मांस खाने वाले बेरहम होते हे
निर्मला कपिला
28/02/2011 at 6:56 अपराह्न
सुन्दर बोध कथा।
Rakesh Kumar
28/02/2011 at 7:09 अपराह्न
सत्य वचन "जैसा खाए अन्न ,वैसा हो जाये मन." अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता ही है.न जाने फिर भी हम अन्न दोष की तरफ ध्यान क्यूं नहीं दे पाते.हमारे यहाँ तो अन्न ग्रहण करने से पूर्व ही भाव शुद्धि यह कह कर की जाती थी " ब्रहम अर्पणम ब्रह्म… "
रंजना
01/03/2011 at 3:56 अपराह्न
एकदम सही बात…अन्न कमाने के स्रोत का ही नहीं उसे पकाने वाले के मनोभाव भी अन्न ग्रहण करने वाले के मनोभावों को प्रभावित करते हैं…प्रेरक कल्याणकारी बोधकथा के लिए आपका आभार…