रसनेन्द्रिय भी बिगाडती है हमारे विचार और आचार!!
रसना इन्द्रिय भी बिगाडती है हमारे विचार और आचार!! (आहार स्रोत और मनोवृति)
25
नवम्बर
श्रोतेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय ही नहीं,
घर में हमेशा हमें बच्चों के सामने गालियों का प्रयोग करना चाहिये, ऐसे थोडा ही है कि बच्चे गालियां ही सीखेंगे? न भी सीखे और अच्छे शब्द ही अपनाए। या फ़िर उन्ही का अधिकार होना चाहिए वे क्या सीखें क्या बोलें।
बच्चों के समक्ष ही टीवी पर थोडे बहुत अश्लील हिंसक फ़िल्म-कार्यक्रम देखने चाहिए, कोई देखने सुनने मात्र से थोडे ही ऐसी हरकते करने लगेंगे? और उन्हे क्या देखना क्या सुनना उनका अधिकार है जब बडे होंगे तो स्वतः ही निर्णय कर लेंगे क्या करना है और क्या नहीं, यह उनका अधिकार होना चाहिए।
नहिं ना?
फ़िर हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न मांसाहार से हिंसक विचारों का मन में स्थापन भला क्यों न होगा? और फ़िर यह कहने का भला क्या तुक है कि यह जरूरी नहीं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों। न भी हों पर संभावनाएं अधिक ही होती है। हमें तो परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं से बचना है।
बिना किसी जीव की हिंसा किये मांस प्राप्त करना संभव ही नहीं, और हिंसा से विरत हुए बिना अहिंसा-भाव का ह्रदय में स्थान पाना असम्भव है, और अहिंसा-भाव के अभाव में प्रेम व दया-करूणा का दिल से झरना बहना दुष्कर है।
बिना जीवों के प्रति करूणा लाये अहिंसा की मनोवृति प्रबल नहीं हो सकती। क्योंकि वही विचार हमें मानवों के प्रति भी सहिष्णु बनाते है। यह कुतर्क किया जाता है कि पशुओं से पहले मानव के प्रति हिंसा कम की जाय बाद में इन जानवरों की बात की जाय। लेकिन ऐसा तो कोई सफल रास्ता नहीं है कि मानवता के प्रति पूर्ण अहिंसा स्थापित हो ही जाय। तो तब तक जीव दया की बात ही न की जाय?
मानव के साथ तो होने वाली हिंसाएं उसी के द्वेष और क्रोध का परिणाम होती है, और मानव के लिये द्वेष और क्रोध पर पूर्ण जीत हासिल करना आज तो सम्भव नहीं है। और निरिह निर्दोष जीव के साथ हमारे क्रोध द्वेष के सम्बंध इसप्रकार नहीं बिगडते, फ़िर इन निरपराधी ईश्वर की संतानों को क्यों दंड दिया जाय। अतः मै समझता हू मानव के कोमल भावों की अभिवृद्धि के लिये भी अहिंसा, जीवों से ही प्रारंभ की जाय। जो हमारे मानव से मानव सम्बंधो में क्रूरता दूर करने का प्रेरणास्रोत बनेगी।
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भारतीय नागरिक - Indian Citizen
25/11/2010 at 8:31 अपराह्न
लोग तो सोचना भी पसंद नहीं करते इस बारे में.
Alok Mohan
25/11/2010 at 9:05 अपराह्न
sruj ji.bahut hi vicharwan post.jaisa hamara bhojan hoga waise hi hamare vichar hoge
डॉ॰ मोनिका शर्मा
25/11/2010 at 10:16 अपराह्न
बहुत सुंदर विचारों की बानगी है आलेख…. सहमत
सम्वेदना के स्वर
25/11/2010 at 11:07 अपराह्न
इस विषय पर महावीर की शिक्षा अनुकरणीय है… किंतु बड़ी ही कठिन साधना है.. जिस दिन साध लिया, हिंसा समाप्त. वे प्रेम का पाठ पढाते हैं..कहते हैं इतना प्रेम करो जीव से कि उसको पहुँचने वाला कष्ट तुम स्वयम् अपने शरीर पर महसूस करो. और जिस दिन प्रेम की यह पराकाष्ठा प्राप्त हो गई, हिंसा समाप्त. अहिंसा का तो सिद्धांत ही भूल है, भ्रामक है. जो बात ही नकारात्मकता से प्रारम्भ हो वह सकारात्मक प्रवाह कैसे उत्पन्न कर सकती है…
सुज्ञ
25/11/2010 at 11:30 अपराह्न
सम्वेदना बंधु,@वे प्रेम का पाठ पढाते हैं..कहते हैं इतना प्रेम करो जीव से कि उसको पहुँचने वाला कष्ट तुम स्वयम् अपने शरीर पर महसूस करो.यह तथ्य कदाचित ओशो प्रेरित है, महावीर ने मोह को उपादेय नहिं बताया।@अहिंसा का तो सिद्धांत ही भूल है, भ्रामक है.अहिंसा के संदेश में कोई भ्रमणा नहिं, हिंसा से विरत हुए बिना करूणा(प्रेम)सम्भव ही नहिं।@नकारात्मकता से प्रारम्भ हो वह सकारात्मक प्रवाह कैसे उत्पन्न कर सकती है… तब तो सारा आध्यत्म ही नकारात्म कहा जायेगा,क्योंकि हर उपदेश नकारात्मक ही होता है, हर धर्म-दर्शन में। यही कि 'बुराई मत अपनाओ'##मेरे ध्यान में तो यही आता है।
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
26/11/2010 at 12:42 पूर्वाह्न
बात ओशो की ही कही है, महावीर के संदर्भ से… मुझसे भूल हुई… किंतु नकारात्मकता पर आधारित आध्यात्म (जैसा आपने कहा)कहाँ बदल पाया इंसान को इतने युगों में…मैंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया, पर जीवन का अध्ययन किया है. मेरे पिताजी ने सिगरेट पीने की मनाही कभी नहीं की हम चारों भाईयों को. सिर्फ इतना कहा कि मुझे अवश्य बता देना ताकि दूसरों से सुनकर बुरा न लगे… अब इतना साहस कहाँ कि जाकर कहूँ कि मैं सिगरेट पीने लगा हूँ,सुन लें आप! परिणाम हम कोई भाई सिगरेट नहीं पीते. मेरे घर में सारे मांसाहारी हैं, मुझे छोड़कर. आजन्म शाकाहारी हूँ. किसी ने मांसाहार के लाभ नहीं बताए और न बलप्रयोग ही किया.सकारात्मकता का अनुकरण करने के बाद ही लिखने का साहस कर पाया हूँ..
सुज्ञ
26/11/2010 at 1:17 पूर्वाह्न
मैं सकारात्मकता विरोधी नहिं, लेकिन सकारात्मकता ही सदैव एक मात्र सफ़ल प्रयोग नहिं हो सकती। और नाकारात्मकता का योगदान नगण्य भी नहिं हो सकता।आध्यात्म साकारात्मक होता तो पूर्ण सफ़ल होता यह भी संशय है। क्योंकि आध्यात्म की सफलता भी आखिर तो मानव से ही है,और मानव मन किस करवट बैठेगा, रहस्य पाना मुस्किल है। नकारात्मकता को बलप्रयोग की तरह क्यों लिया जाय। 'सिगरेट न पीना' नाकारात्मक उपदेश होते हुए भी स्वास्थ्य के लिये साकारात्मक ध्येय की तरह लिया जाता है। बस कुछ वैसा ही।
अरविन्द जांगिड
26/11/2010 at 8:19 पूर्वाह्न
सुज्ञ जी, आपको सदर प्रणाम, आपको पहली बार पढ़ा, अत्यंत खुशी हुई, सुन्दर लेखन के लिए आपका धन्यवाद.
अमित शर्मा
26/11/2010 at 10:02 पूर्वाह्न
@ हिंसक कृत्यों व मंतव्यो से ही उत्पन्न मांसाहार से हिंसक विचारों का मन में स्थापन भला क्यों न होगा? और फ़िर यह कहने का भला क्या तुक है कि यह जरूरी नहिं मांसाहारी क्रूर प्रकृति के ही हों। न भी हों पर संभावनाएं अधिक ही होती है। हमें तो परिणामो से पूर्व ही सम्भावनाओं से बचना है।# इसी बात को समझने से बचना चाहते हैं मांसाहार प्रेमी !!!
सम्वेदना के स्वर
26/11/2010 at 11:43 पूर्वाह्न
सकारत्मकता और नकारात्मकता दोनों बातें एक दूसरे के सापेक्षिक ही तो हैं? मार्क्स की थीसिस और एंटी थीसिस की तरह, शायद!नेति नेति नाम का तो एक उपनिषद ही है। चेतना के विकास के लिये यह द्वैत आवश्यक सा लगता है, और फिर एक रोज़ इस द्वैत का अतिक्रमण कर चेतना अद्वैत का अनुभव करती है। मूल बात तो रह ही गयी मेरे विचार से प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका प्रशिक्षण लेकर योजनाबद्ध काम किया जा सकें। बस मन को खोलना भर ही तो है, सम्वेदनाओं को और प्रगाणता से महसूसना और जीना है। किसी जीव की आंखों में यदि हमें किसी दिव्यता के दर्शन होने लगें तो सम्वेदंशील इंसान उसे मारकर खाने की कैसे सोचे सकेंगें,वह असम्भव न हो जायेगा?
सुज्ञ
26/11/2010 at 12:35 अपराह्न
चैतन्यजी व सलिल जी,आपने बडी सरलता से यह स्थापित करने में सहायता की, कि सकारत्मकता और नकारात्मकता दोनों ही सापेक्षिक है, आभार!!और 'प्रेम' को मोह क्वच से निकाल सम्वेदनाओं से करूणा की ओर परिभाषित कर दिया। यही करूणा हमें अहिंसक बनाती है। आपने कहा भी है," सम्वेदनाओं को और प्रगाढता से महसूसना और जीना है।"मनोमंथन में सहयोग के लिये आभार!! इसी तरह स्नेह रखें
दिगम्बर नासवा
26/11/2010 at 3:51 अपराह्न
हर चीज़ का अपना अपना महत्त्व है … अपनी अपनी उपयोगिता … अपने समाज पर हमेशा आक्रान्ताओं का हमला होता रहा … उनसे हार हार कर आज बहुत सिमिट गए हैं इसका कारण कहीं म्हारी करुना ही तो नहीं …..
सुज्ञ
26/11/2010 at 4:23 अपराह्न
श्री नासवा जी,यह भ्रम भी उन्ही आक्रांताओं की ही देन है,भारतिय सदैव निति सहित ही झूंझते थे, पर आक्रांताओं की कोई निति नहिं आतंक ही था, यहीं से उनके अन्यायपूर्ण लडने को मांसाहार से जोडा।आध्यात्म में अहिंसा को पूर्ण महत्व देकर भी राजनिति में उसका किसी महापुरूष नें घालमेल नहिं किया। राजनैतिक युद्ध सदैव यहां युद्धनितियों से ही चले है। धर्म ने उस क्षेत्र को अलग ही रखा है।आक्रान्ताओं से हार का कारण, हमारे क्षेत्रिय स्वार्थ रहे है। फूट और छोटे छोटे राज्य। न कि करूणा॥
arvind
26/11/2010 at 4:47 अपराह्न
bikul sahi…aapse sa sahamat hun.
संजय भास्कर
27/11/2010 at 5:13 अपराह्न
सुन्दर लेखन के लिए आपका धन्यवाद.