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Tag Archives: समता

नम्रशीलता

जीवन के आखिरी क्षणों में एक साधु ने अपने शिष्यों को पास बुलाया। जब सब उनके पास आ गए, तब उन्होंने अपना पोपला मुंह पूरा खोल दिया और बोले-“देखो, मेरे मुंह में कितने दांत बच गए हैं?” शिष्य एक स्वर में बोल उठे -“महाराज आपका तो एक भी दांत शेष नहीं बचा।” साधु बोले-“देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।” सबने उत्तर दिया-“हां, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है।” इस पर सबने कहा-“पर यह हुआ कैसे?” मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूं तो भी यह जीभ बची हुई है। ये दांत पीछे पैदा हुए, ये जीभ से पहले कैसे विदा हो गए? इसका क्या कारण है, कभी सोचा?”

शिष्यों ने उत्तर दिया-“हमें मालूम नहीं। महाराज, आप ही बतलाइए।” उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- “यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है, परंतु मेरे दांतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए। इसलिए दीर्घजीवी होना चाहते हो, तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।” एक शिष्य ने गुरू से इसका कोई दूसरा उदाहरण बताने को कहा। संत ने कहा-“क्या तुमने बेंत या बांस नहीं देखा है। आंधी भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, जबकि तनकर खड़े रहने वाले पेड़ धराशायी हो जाते हैं।” उनकी बात सुनकर शिष्यों को समझ में आ गया कि विनम्रता से काम बन जाता है।

नमे सो आम्बा-आमली, नमे से दाड़म दाख।

एरण्ड बेचारा क्या नमे, जिसकी ओछी शाख॥

 

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हिंसा-प्रतिहिंसा से संतोषप्रद निर्णायक समाधान असंभव है।

आज जगत में हिंसा और प्रतिहिंसा का बोलबाला है। इसका प्रमुख कारण है लोगों में अधैर्य, असहनशीलता और आक्रोश की बढ़ती दर। सुखी सम्पन्न बनने की प्रतिस्पर्धा हो या सुरक्षित जीवन यापन का संघर्ष, व्यक्ति प्रतिक्षण तनाव में जीता है। यह तनाव ही उसे आवेश और अधैर्य की ओर ले जाता है। संतुष्ट और सुखी जीवन, अहिंसक जीवन मूल्यों से ही उपार्जित किया जा सकता है। किन्तु व्यक्ति के सहनशीलता और सब्र की सोच तथा भाव परित्यक्त हो चुके होते है। अन्तत: सुख के सरल मार्ग को छोड व्यक्ति अनावश्यक संघर्ष को ही जीवट मान इठलाता है।

अन्याय का जवाब हिंसा से दिया जाना सहज सामान्य प्रवृत्ति है किन्तु निराकरण पूर्णतया निष्फल ही होता है। आवेश आक्रोश से हमारे अपने मित्र तक हमसे सहमत नहीं होते तो फिर जो अन्यायी है, अवरोधक है वे हमारे आवेश, आक्रोश व प्रतिहिंसा से कैसे सुधर सकते है। अधैर्य-असहनशीलता हमेशा आक्रोश को जन्म देती है और आक्रोश हिंसा को, हिंसा प्रतिशोध को, और प्रतिशोध सहित दो तरफा आतंक को, क्योंकि व्यक्ति अपने प्रति हिंसा के भय की प्रतिक्रिया में भी आतंक फैलाता है। प्रतिशोध और आतंक पुनः हिंसा को जन्म देते है। इस प्रकार हिंसा प्रतिहिंसा एक दुश्चक्र की तरह स्थापित हो जाती है।

मानव सहित जीव मात्र का उद्देश्य है सुखी व संतुष्ट बनना। किन्तु उसे पाने का मार्ग हमने उलटा अपना रखा है। यह असफलता पर समाप्त होने वाला मिथ्या मार्ग है, दूसरों का दमन कभी भी सुखी व संतुष्ट बनने का समाधानकारी मार्ग नहीं हो सकता। आक्रोश व प्रति-अन्याय निदान नहीं है। सुखी तो सभी बनना चाहते है लेकिन सभी को संदेह है कि दूसरे उसे सुखी व संतुष्ट नहीं बनने देंगे अतः सभी दूसरों को आतंकित कर अपने सुखों को सुरक्षित करने के मिथ्या प्रयत्न में लगे हुए है। यदि दमन ही करना है तो दूसरों का दमन नहीं अपनी वृतियों दमन करना होगा, अपने क्रोध, अहंकार, कपट, और लोभ का दमन कर क्षमा, नम्रता सरलता और संतोष को अपनाना होगा। समता, सहनशीलता, धैर्य और विवेक को स्थान देना होगा।

हमें अनुभव हो सकता है कि ऐसे जीवन मूल्य कहां सफल होते है, किन्तु सफलता के निहितार्थ तुच्छ से स्वतः उत्कृष्ट हो जाते है। सभी को यही लगता है कि अपनी ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा तो अपने लिए जरूरी साधन है किन्तु दूसरों की ईर्ष्या प्रतिस्पर्धा हमारे सुखों का अतिक्रमण है। सही मार्ग तो यह है कि इस धारणा को बल प्रदान किया जाय कि दूसरे सुखी व संतुष्ट होंगे तो संतुष्ट लोग हमारे सुखों पर कभी अतिक्रमण नहीं करेंगे और सुख सभी के लिए सहज प्राप्य रहेंगे। अन्यथा जरा से सुख को लभ्य बनाने के संघर्ष में अनेक गुना प्रतिस्पर्धा अनेक गुना संघर्ष और उस सुख भोग से भी लम्बा काल संघर्ष में व्यर्थ हो जाएगा। उसके बाद सुख पाया भी (जो कि असम्भव होगा) तो उसमें आनन्द कहाँ शेष बचेगा?

इसलिए इस छोटे से जीवन को अनावश्यक संघर्ष, प्रतिस्पर्धा, उठापटक में अपव्यय होने से बचाना होगा। उसका एक ही तरीका है संतोष में व्याप्त सुख को पहचानना और उसका आस्वादन करना। हिंसा प्रतिहिंसा के दुश्चक्र को समाप्त करना और अहिंसक जीवन मूल्यों को सार्थक सफलता के रूप में पहचानना होगा।

 

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आत्मरक्षा में की गई हिंसा, हिंसा नहीं होती ????

‘हिंसा’ चाहे कितने ही उचित कारणों से की जाय कहलाती ‘हिंसा’ ही है। उसका किसी भी काल, कारण, स्थिति, के कारण ‘अहिंसा’ में परिवर्तन नहीं हो जाता। वैसे तो प्रतिकार या आत्मरक्षा में हिंसा का हो जाना सम्भव है,  तब भी वह विवशता में की गई ‘हिंसा’ ही कहलाएगी। ऐसी हिंसा के लाख अवश्यंभावी कारण जता कर भी उसे ‘अहिंसा’ रूप में स्थापित नहीं जा सकता। प्रतिरक्षात्मक हिंसा को भी सर्वसामान्य सहज बनाया भी नहीं जाना चाहिए, अन्यथा अनियंत्रित अराजकाता ही फैल जाएगी। इस तरह तो प्रतिरक्षा या प्रतिशोध को आगे कर प्रत्येक व्यक्ति हिंसा में रत रहने लगेगा और उसे अभिमान पूर्वक ‘अहिंसा’ कहने लगेगा।

विधि-नियमानुसार भी अभियोग में, आत्मरक्षार्थ हिंसा हो जाने पर मात्र अपराध की तीव्रता कम होती है, समूचा अपराध ही सुकृत्य में नहीं बदल जाता न ही उस कृत्य को अहिंसा स्वरूप स्वीकार किया जाता है। कानून किसी को भी दंडित कर देने की जनसामान्य को  अनुमति नहीं देता, चाहे दंड देना कितना भी न्यायसंगत हो। अदालती भाषा में इसे ‘कानून हाथ में लेना’ कहते है। अन्यथा लोग स्वयं न्यायाधीश बन, प्रतिरक्षार्थ एक दूसरे को दंडित ही करते ही रहेंगे। और बाकी जो बच जाय उन्हें प्रतिशोध में दंडित करेंगे। इस तरह तो हिंसा का ही राज स्थापित हो जाएगा। इसीलिए अत्याचार और अन्याय के बाद भी प्रतिशोध में दंडित करने का अधिकार अत्याचार भोगी को भी नहीं दिया गया है। हिंसक विचारधारा और हिंसा की यह व्यवस्था सभ्य समाज में स्वीकृत नहीं होती।

इसका भी कारण है सभी तरह के कारणों कारकों पर समुचित विचार करने के बाद ही अपराध निश्चित किया जाता है। प्रतिरक्षा में हिंसा अपवाद स्वरूप है प्रतिरक्षात्मक हिंसा से पहले भी अन्य सभी विकल्पों पर विचार किया जाता है। यह सुनिश्चित करने के लिए ही  न्यायालय व्यवस्था होती है। अन्यथा सामन्य जन द्वारा तो जल्दबाजी आवेश क्रोध आदि वश निरपराधी की हिंसा हो सकती है। धैर्य, सहनशीलता या समता हमेशा विवेक को सक्रिय करने के उद्देश्य से ही होती है।

पालतू नेवले और माँ की वह बोध-कथा है जिसमें सोए बच्चे को बचाने के लिए नेवला सांप से लडता है और उसको मार देता है, घड़ा भरकर घर आते ही द्वार पर मां नेवले के मुँह में रक्त देखकर निर्णय कर लेती है कि इसने बच्चे को काट खाया है। आवेश में नेवले पर घड़ा गिराकर मार देती है किन्तु जब भीतर जाकर देखती है कि बच्चा तो सुख की निंद सो रहा है और पास ही साँप मरा पड़ा है। उसे होश आता है, नेवला अपराधी नहीं रक्षक था। अब पश्चाताप ही शेष था। हिंसा तो हो चुकी। नेवला जान से जा चुका।

इसीलिए न्यायालयों का अलिखित नियम होता है कि भले 100 अपराधी बच जाय, एक निरपराधी को सजा नहीं होनी चाहिए। क्योंकि सुसंस्कृत मानव जानता है जीवन अमूल्य है। एक बार जान जाने के बाद किसी को जीवित नहीं किया जा सकता।

गौतम बुद्ध का एक दृष्टांत है सहनशीलता में निडरता के लिए भी और जीवन के मूल्य (अहिंसा) के लिए भी।

अंगुलिमाल नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था। वह लोगों को मारकर उनकी उंगलियां काट लेता था और उनकी माला पहनता था। इसी से उसका यह नाम पड़ा था। आदमियों को लूट लेना, उनकी जान ले लेना, उसके बाएं हाथ का खेल था। लोग उससे डरते थे। उसका नाम सुनते ही उनके प्राण सूख जाते थे।

संयोग से एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले। लोगों ने उनसे प्रार्थना की कि वह वहां से चले जायं। अंगुलिमाल ऐसा डाकू है, जो किसी के आगे नहीं झुकता।

बुद्ध ने लोगों की बात सुनी,पर उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला। वह बेधड़क वहां घूमने लगे।जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह झुंझलाकर बुद्ध के पास आया। वह उन्हें मार डालना चाहता था, लेकिन जब उसने बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से उसका स्वागत करते देखा तो उसका पत्थर का दिल कुछ मुलायम हो गया।

बुद्ध ने उससे कहा, “क्यों भाई, सामने के पेड़ से चार पत्ते तोड़ लाओगे?”

अंगुलिमाल के लिएयह काम क्या मुश्किल था! वह दौड़ कर गया और जरा-सी देर में पत्ते तोड़कर ले आया।

“बुद्ध ने कहा, अब एक काम करो। जहां से इन पत्तों को तोड़कर लाये हो, वहीं इन्हें लगा आओ।”

अंगुलिमाल बोला, “यह कैसे हो सकता?”

बुद्ध ने कहा, “भैया! जब जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं तो फिर तोड़ने का काम क्यों करते हो?”

इतना सुनते ही अंगुलिमाल को बोध हो गया और उसने सदैव के लिए उस हिंसा और आतंक को त्याग दिया।

सही भी है किसी को पुनः जीवन देने का सामर्थ्य नहीं तो आपको किसी का जीवन हरने का कोई अधिकार नहीं। आज फांसी की न्यायिक सजा का भी विरोध हो रहा है। कारण वही है एक तो सजा सुधार के वांछित परिणाम नहीं देती और दूसरा जीवन ले लेने के बाद तो कुछ भी शेष नहीं रहता न सजा न सुधार।

एक सामान्य सी सजा के भी असंख्य विपरित परिणाम होते है। ऐसे में चुकवश सजा यदि निरपराधी को दे दी जाय तो परिणाम और भी भयंकर हो सकते है। सम्भावित दुष्परिणामों के कारण अहिंसा का महत्व अनेक गुना बढ़ जाता है। किसी भी तरह की हिंसा के पिछे कितने ही उचित कारणों हो, हिंसा प्रतिशोध के एक अंतहीन चक्र को जन्म देती है। प्रतिरक्षा में भी जो सुरक्षा भाव निहित है उसका मूल उद्देश्य तो शान्तिपूर्ण जीवन ही है। जिस अंतहीन चक्र से अशान्ति और संताप  उत्पन्न हो और समाधान स्थिर न हो तो क्या लाभ?

प्रतिरक्षा में हिंसा हमेशा एक ‘विवशता’ होती है, यह विवशता भी गर्भित ही रहनी भी चाहिए। इस प्रकार की हिंसा का सामान्ययीकरण व सार्वजनिक करना हिंसा को प्रोत्साहन देना है। ऐसी हिंसा की संभावना एक अपवाद होती है। सभ्य मानवों में अन्य उपाय के न होने पर ही सम्भावनाएं बनती है। अतः विवशता की हिंसा को अनावश्यक रूप से जरूरी नियम की तरह प्रचारित नहीं किया जाना चाहिए। और न ही इसे ‘अहिंसा’ नाम देकर भ्रम मण्डित किया जाना चाहिए। यदि इस प्रकार की हिंसा का सेवन हो भी जाय तो निष्ठापूर्वक हिंसा को हिंसा ही कहना/मानना चाहिए उसे वक्रता से अहिंसा में नहीं खपाया जाना चाहिए।

  • हिंसा नाम भवेद् धर्मो न भूतो न भविष्यति।  (पूर्व मीमांसा) 
    अर्थात् :- हिंसा में धर्म माना जाए, ऐसा न कभी भूतकाल में था, न कभी भविष्य में होगा।
 

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समता की धोबी पछाड़

एक नदी तट पर स्थित बड़ी सी शिला पर एक महात्मा बैठे हुए थे। वहाँ एक धोबी आता है किनारे पर वही मात्र शिला थी जहां वह रोज कपड़े धोता था। उसने शिला पर महात्मा जी को बैठे देखा तो सोचा- अभी उठ जाएंगे, थोड़ा इन्तजार कर लेता हूँ अपना काम बाद में कर लूंगा। एक घंटा हुआ, दो घंटे हुए फिर भी महात्मा उठे नहीं अतः धोबी नें हाथ जोड़कर विनय पूर्वक निवेदन किया कि – महात्मन् यह मेरे कपड़े धोने का स्थान है आप कहीं अन्यत्र बिराजें तो मै अपना कार्य निपटा लूं। महात्मा जी वहाँ से उठकर थोड़ी दूर जाकर बैठ गए। 

 

धोबी नें कपड़े धोने शुरू किए, पछाड़ पछाड़ कर कपड़े धोने की क्रिया में कुछ छींटे उछल कर महात्मा जी पर गिरने लगे। महात्मा जी को क्रोध आया, वे धोबी को गालियाँ देने लगे। उससे भी शान्ति न मिली तो पास रखा धोबी का डंडा उठाकर उसे ही मारने लगे। सांप उपर से कोमल मुलायम दिखता है किन्तु पूंछ दबने पर ही असलियत की पहचान होती है। महात्मा को क्रोधित देख धोबी ने सोचा अवश्य ही मुझ से कोई अपराध हुआ है। अतः वह हाथ जोड़ कर महात्मा से माफी मांगने लगा। महात्मा ने कहा – दुष्ट तुझ में शिष्टाचार तो है ही नहीं, देखता नहीं तूं गंदे छींटे मुझ पर उड़ा रहा है? धोबी ने कहा – महाराज शान्त हो जाएं, मुझ गंवार से चुक हो गई, लोगों के गंदे कपड़े धोते धोते  मेरा ध्यान ही न रहा, क्षमा कर दें। धोबी का काम पूर्ण हो चुका था, साफ कपडे समेटे और महात्मा जी से पुनः क्षमा मांगते हुए लौट गया। महात्मा नें देखा धोबी वाली उस शिला से निकला गंदला पानी मिट्टी के सम्पर्क से  स्वच्छ और निर्मल होकर पुनः सरिता के शुभ्र प्रवाह में लुप्त हो रहा था, लेकिन महात्मा के अपने शुभ्र वस्त्रों में तीव्र उमस और सीलन भरी बदबू बस गई थी।

कौन धोबी कौन महात्मा?

यथार्थ में धोबी ही असली महात्मा था, संयत रह कर समता भाव से वह लोगों के दाग़ दूर करता था।

 

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दृष्टिकोण

सही निशाना

पुराने समय की बात है, चित्रकला सीखने के उद्देश्य से एक युवक, कलाचार्य गुरू के पास पहुँचा। गुरू उस समय कला- विद्या में पारंगत और सुप्रसिद्ध थे। युवक की कला सीखने की तीव्र इच्छा देखकर, गुरू नें उसे शिष्य रूप में अपना लिया। अपनें अविरत श्रम से देखते ही देखते यह शिष्य चित्रकला में पारंगत हो गया।  अब वह शिष्य सोचने लगा, मैं कला में पारंगत हो गया हूँ, गुरू को अब मुझे दिक्षान्त आज्ञा दे देनी चाहिए। पर गुरू उसे जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। हर बार गुरू कहते अभी भी तुम्हारी शिक्षा शेष है। शिष्य तनाव में रहने लगा। वह सोचता अब यहां मेरा जीवन व्यर्थ ही व्यतीत हो रहा है।  मैं कब अपनी कला का उपयोग कर, कुछ बन दिखाउंगा? इस तरह तो मेरे जीवन के स्वर्णिम दिन यूंही बीत जाएंगे।
विचार करते हुए, एक दिन बिना गुरू को बताए, बिना आज्ञा ही उसने गुरूकुल छोड दिया और निकट ही एक नगर में जाकर रहने लगा। वहाँ लोगों के चित्र बनाकर आजिविका का निर्वाह करने लगा। वह जो भी चित्र बनाता लोग देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते। हर चित्र हूबहू प्रतिकृति। उसकी ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। उसे अच्छा पारिश्रमिक मिलता। देखते देखते वह समृद्ध हो गया। उसकी कला के चर्चे नगर में फैल गए। उसकी कीर्ती राजा तक पहुँची।
राजा नें उसे दरबार में आमंत्रित किया और उसकी कलाकीर्ती की भूरि भूरि प्रसंसा की। साथ ही अपना चित्र बनाने का निवेदन किया।  श्रेष्ठ चित्र बनाने पर पुरस्कार देने का आश्वासन भी दिया। राजा का आदेश शिरोधार्य करते हुए 15 दिन का समय लेकर, वह युवा कलाकार घर लौटा। घर आते ही वह राजा के अनुपम चित्र रचना के लिए रेखाचित्र बनानें में मशगूल हो गया। पर सहसा एक विचार आया और अनायास ही वह संताप से घिर गया।
वस्तुतः राजा एक आँख से अंधा अर्थात् काना था। उसने सोचा, यदि मैं राजा का हूबहू चित्र बनाता हूँ, और उसे काना दर्शाता हूँ तो निश्चित ही राजा को यह अपना अपमान लगेगा और वह तो राजा है, पारितोषिक की जगह वह मुझे मृत्युदंड़ ही दे देगा। और यदि दोनो आँखे दर्शाता हूँ तब भी गलत चित्र बनाने के दंड़स्वरूप वह मुझे मौत की सजा ही दे देगा। यदि वह चित्र न बनाए तब तो राजा अपनी अवज्ञा से कुपित होकर सर कलम ही कर देगा।किसी भी स्थिति में मौत निश्चित थी।  वह सोच सोच कर तनावग्रस्त हो गया, बचने का कोई मार्ग नजर नहीं आ रहा था। इसी चिंता में न तो वह सो पा रहा था न चैन पा रहा था।
अन्ततः उसे गुरू की याद आई। उसने सोचा अब तो गुरू ही कोई मार्ग सुझा सकते है। मेरा उनके पास जाना ही अब अन्तिम उपाय है। वह शीघ्रता से आश्रम पहुंचा और गुरू चरणों में वंदन किया, अपने चले जाने के लिए क्षमा मांगते हुए अपनी दुष्कर समस्या बताई। गुरू ने स्नेहपूर्ण आश्वासन दिया। और चित्त को शान्त करने का उपदेश दिया।  गुरू नें उसे मार्ग सुझाया कि वत्स तुम राजा का घुड़सवार योद्धा के रूप में चित्रण करो, उन्हें धनुर्धर दर्शाओ। राजा को धनुष पर तीर चढ़ाकर निशाना साधते हुए दिखाओं, एक आँख से निशाना साधते हुए। ध्यान रहे राजा की जो आँख नहीं है उसी आंख को बंद दिखाना है। कलाकार संतुष्ट हुआ।
शिष्य, गुरू के कथनानुसार ही चित्र बना कर राजा के सम्मुख पहुँचा। राजा अपना वीर धनुर्धर स्वरूप का अद्भुत चित्र देखकर बहुत ही प्रसन्न और तुष्ट हुआ। राजा ने कलाकार को 1 लाख स्वर्ण मुद्राएं ईनाम दी। कलाकार नें ततक्षण प्राण बचाने के कृतज्ञ भाव से वे स्वर्ण मुद्राएं गुरू चरणों में रख दी। गुरू नें यह कहते हुए कि यह  तुम्हारे कौशल का प्रतिफल है, इस पर तुम्हारा ही अधिकार है। अन्तर से आशिर्वाद देते हुए विदा किया।
कथा का बोध क्या है?
1-यदि गुरू पहले ही उपदेश देते  कि- ‘पहले तुम परिपक्व हो जाओ’, तो क्या शिष्य गुरू की हितेच्छा समझ पाता?  आज्ञा होने तक विनय भाव से रूक पाता?
2-क्या कौशल के साथ साथ बुद्धि, विवेक और अनुभव की शिक्षा भी जरूरी है?
3-निशाना साधते राजा का चित्र बनाना, राजा के प्रति सकारात्म्क दृष्टि से प्रेरित है, या  समाधान की युक्ति मात्र?
 

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समता

मता का अर्थ है मन की चंचलता को विश्राम, समान भाव को जाग्रत और दृष्टि को विकसित करें तो ‘मैं’ के सम्पूर्ण त्याग पर समभाव स्थिरता पाता है। समभाव जाग्रत होने का आशय है कि लाभ-हानि, यश-अपयश भी हमें प्रभावित न करे, क्योंकि कर्मविधान के अनुसार इस संसार के रंगमंच के यह विभिन्न परिवर्तनशील दृश्य है। हमें एक कलाकार की भांति विभिन्न भूमिकाओं को निभाना होता है। इन पर हमारा कोई भी नियंत्रण नहीं है। कलाकार को हर भूमिका का निर्वहन तटस्थ भाव से करना होता है। संसार के प्रति इस भाव की सच्ची साधना ही समता है।
समता का पथ कभी भी सुगम नहीं होता, हमने सदैव इसे दुर्गम ही माना है। परन्तु क्या वास्तव में धैर्य और समता का पथ दुष्कर है? हमने एक बार किसी मानसिकता को विकसित कर लिया तो उसे बदलने में वक्त और श्रम लगता है। यदि किसी अच्छी वस्तु या व्यक्ति को हमने बुरा माननें की मानसिकता बना ली तो पुनः उसे अच्छा समझने की मानसिकता तैयार करने में समय लगता है। क्योंकि मन में एक विरोधाभास पैदा होता है,और प्रयत्नपूर्वक मन के विपरित जाकर ही हम अच्छी वस्तु को अच्छी समझ पाएंगे। तब हमें यथार्थ के दर्शन होंगे।
जीवन में कईं बार ऐसे मौके आते है जब हमें किसी कार्य की जल्दी होती है और इसी जल्दबाजी और आवेश में अक्सर कार्य बिगड़ते हुए देखे है। फिर भी क्यों हम धैर्य और समता भाव को विकसित नहीं करते। कईं ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने उपस्थित होते है जब आवेश पर नियंत्रण, सपेक्ष चिंतन और विवेक मंथन से कार्य सुनियोजित सफल होते है और प्रमाणित होता है कि समता में ही श्रेष्ठता है।
समता रस का पान सुखद होता है। समता जीवन की तपती हुई राहों में सघन छायादार वृक्ष है। जो ‘प्राप्त को पर्याप्त’ मानने लगता है, उसके स्वभाव में समता का गुण स्वतः स्फूरित होने लगता है। समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है। उसका समग्र चिंतन समता में एकात्म हो जाता है। चित्त में समाधि भाव आ जाता है।
 
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Posted by on 26/05/2011 में बिना श्रेणी

 

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समता

मता का अर्थ है मन की चंचलता को विश्राम, समान भाव को जाग्रत और दृष्टि को विकसित करें तो ‘मैं’ के सम्पूर्ण त्याग पर समभाव स्थिरता पाता है। समभाव जाग्रत होने का आशय है कि लाभ-हानि, यश-अपयश भी हमें प्रभावित न करे, क्योंकि कर्मविधान के अनुसार इस संसार के रंगमंच के यह विभिन्न परिवर्तनशील दृश्य है। हमें एक कलाकार की भांति विभिन्न भूमिकाओं को निभाना होता है। इन पर हमारा कोई भी नियंत्रण नहीं है। कलाकार को हर भूमिका का निर्वहन तटस्थ भाव से करना होता है। संसार के प्रति इस भाव की सच्ची साधना ही समता है।
समता का पथ कभी भी सुगम नहीं होता, हमने सदैव इसे दुर्गम ही माना है। परन्तु क्या वास्तव में धैर्य और समता का पथ दुष्कर है? हमने एक बार किसी मानसिकता को विकसित कर लिया तो उसे बदलने में वक्त और श्रम लगता है। यदि किसी अच्छी वस्तु या व्यक्ति को हमने बुरा माननें की मानसिकता बना ली तो पुनः उसे अच्छा समझने की मानसिकता तैयार करने में समय लगता है। क्योंकि मन में एक विरोधाभास पैदा होता है,और प्रयत्नपूर्वक मन के विपरित जाकर ही हम अच्छी वस्तु को अच्छी समझ पाएंगे। तब हमें यथार्थ के दर्शन होंगे।
जीवन में कईं बार ऐसे मौके आते है जब हमें किसी कार्य की जल्दी होती है और इसी जल्दबाजी और आवेश में अक्सर कार्य बिगड़ते हुए देखे है। फिर भी क्यों हम धैर्य और समता भाव को विकसित नहीं करते। कईं ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने उपस्थित होते है जब आवेश पर नियंत्रण, सपेक्ष चिंतन और विवेक मंथन से कार्य सुनियोजित सफल होते है और प्रमाणित होता है कि समता में ही श्रेष्ठता है।
समता रस का पान सुखद होता है। समता जीवन की तपती हुई राहों में सघन छायादार वृक्ष है। जो ‘प्राप्त को पर्याप्त’ मानने लगता है, उसके स्वभाव में समता का गुण स्वतः स्फूरित होने लगता है। समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है। उसका समग्र चिंतन समता में एकात्म हो जाता है। चित्त में समाधि भाव आ जाता है।
 

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निर्मल-संदेश

सेवा और समर्पण का कोई दाम नहीं है।
मानव तन होने से कोई इन्सान नहीं है।
नाम प्रतिष्ठा की चाहत छोडो यारों,
बड़बोलो का यहां अब काम नहीं है।
                  ***
बिना काम के यहाँ बस नाम चाहिए।
सेवा के बदले भी यहाँ इनाम चाहिए।
श्रम उठाकर भेजा यहाँ कौन खपाए?
मुफ़्त में ही सभी को दाम चाहिए॥
                  ***
आलोक सूर्य का देखो, पर जलन को मत भूलो।
चन्द्र पूनम का देखो, पर ग्रहण को मत भूलो।
किसी आलोचना पर होता तुम्हे खेद क्योंकर,

दाग सदा उजले पर लगे, इस चलन को मत भूलो॥

                  ***

 
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Posted by on 13/01/2011 में बिना श्रेणी

 

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संतोष………

मनुज जोश बेकार है, अगर संग नहिं होश ।
मात्र कोष से लाभ क्या, अगर नहिं संतोष ॥1॥

दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान ।
कहु न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥2॥

धन संचय यदि लक्ष्य है, यश मिलना अति दूर।
यश – कामी को चाहिये, त्याग शक्ति भरपूर ॥3॥
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शिष्ट व्यवहार

एक रिपोस्ट……॥

परोपदेशवेलायां, शिष्ट सर्वे भवन्ति वै।

विस्मरंति हि शिष्टत्वं, स्वकार्ये समुपस्थिते॥
                                                       -मानव धर्मशास्त्र
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अर्थार्त:
“दूसरो को उपदेश देने में कुशल, उस समय तो सभी शिष्ट व्यवहार करते है, किंतु जब स्वयं के अनुपालन का समय आता है, शिष्टता भुला दी जाती है।”
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सार:
वैचारिक दक्षता का अहंकार बौद्धिक को ले डूबता है।

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गहराना

विचार वेदना की गहराई

॥दस्तक॥

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं

दृष्टिकोण

दुनिया और ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं पर हितेन्द्र अनंत की राय

मल्हार Malhar

पुरातत्व, मुद्राशास्त्र, इतिहास, यात्रा आदि पर Archaeology, Numismatics, History, Travel and so on

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