2- फिल्म, टीवी आदि मीडिया, ऐसी क्रूर काम-घटनाओं के समाचार द्वारा ‘काम’ और ‘दुख’ दोनो को बेचता है. साथ ही बिकने के लिए प्रस्तुति को और भी वीभत्स रूप देता है. मीडिया व विज्ञापन प्रतिदिन, निसंकोच और बेपरवाह होकर, कामविकारों को सहजता से प्रस्तुत करते है. परिणाम स्वरूप कामतृष्णा और कामविकारों को सहज सामान्य मनवा लिया जाता है. संयम को दमित कुंठा और उछ्रंखलता को प्राकृतिक चित्रित किया जाता है. इस प्रकार मनोविकार आम चलन में आते है उपर से तुर्रा यह कि यौनाचारों को उपेक्षित रखे, बच कर रहे तो हौवा, टैबू आदि न जाने क्या क्या कहकर, समाज को अविकसित करार दिया जाता है. कहिए कौन है जिम्मेदार?
3- नैतिक शिक्षा तो जैसे बाबाओ के प्रवचन समान परिहास का ही विषय बन गया है. और हम सुधरे हुए लोगों ने नैतिक शिक्षा और आदर्श चरित्र पालन को मजाक बनाने में अपना भरपूर योगदान किया है. आज नैतिक समतावान, सरल और चरित्र प्रतिबद्ध लोग तो किसी फिल्म के कॉमेडी करेक्टर बन कर रह गए है.
4- घर के संस्कार कितने भी दुरस्त रखें जाय, बाहरी रहन सहन , वातावरण के संयोग से विकारों का आना अवश्यंभावी है. शिक्षितों का उछ्रंखल व्यवहार, अशिक्षितों को भी छद्म आधुनिक दिखने को प्रेरित करता है.
5- इंटरनेट पर पसरी वीभत्स अश्लीलता ने विक्षिप्तता की सीमा पार कर ली है. उन पर आते वीभत्स कामाचार के प्रयोग, रोज रोज पुराने पडते जाते है. खून में उबाल और आवेगों को बढाने के लिए विकार के तीव्र से तीव्रतम प्रयोग होते जाते है, और क्रूर और दुर्दांत. यह पोर्न साईटें, निरंतर और भी हिंसक, दर्दनाक, पीडाकारक दृश्य परोसते है. पीडन से आनंद पाने की विकृत अदम्य तृष्णा. ऐसी पिपासा का किसी भी बिंदु पर शमन नहीं होता, किंतु नशे की खुराक की तरह कामेच्छा और भी क्रूरतम होती चली जाती है.
प्रत्येक कारण को टालने के बजाय सभी के समुच्य पर विचार करना होगा. प्रलोभन से अलिप्त रहकर. पुरूषार्थ में पर्याप्त सम्भावनाएँ है. बस प्रयास ईमानदार होने चाहिए. आप क्या कहते है इन निष्कर्षों पर ?