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नश्वर बोध, राग विमुक्ति (आत्मचिंतन)
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‘शुभ ध्यान’ है अन्तर आत्मा का ‘स्वभाव’।
क्रूर जीवनशैली के प्रभाव में हमने अपने जीवनमूल्यों में क्रूरता को सामान्य सा आत्मसात कर लिया है। हमारे हृदय और अंतरमन नासूर बन चुके है। सदाचरण आसानी से स्वीकार्य नहिं होता। कहीं हम संस्कार अपना कर, बुद्दु, सरल, भोले न मान लिये जाय। हम, ‘यह सब तो बडे-बडे ज्ञानी पंडितों की बातें’, ‘बाबाओं के प्रवचन’, ‘सत्संग’ इत्यादि शब्दों से मखौल उडाकर अपनी विद्वता बचाने का प्रयास करते है।
इन आदतों से हमारे हृदय इतने कलुषित हो गये है कि सुविधाभोग़ी पूर्वाग्रहरत हम क्रूरता को हास्यरूप परोसने लगे है। निर्दयता को आदर की नज़र से देखते है। भला ऐसे कठोर हृदय में सुकोमलता आये भी तो कैसे?
माया चाल कपट व असत्य को हम दुर्गुण नहिं, आज के युग की आवश्यकता मान भुनाते है। प्रतिशोध ही आसान निराकरण नज़र आता है।
अच्छे सदविचारों को स्वभाव में सम्मलित करना या अंगीकार करना बहुत ही दुष्कर होता है,क्योंकि जन्मों के या बरसों के सुविधाभोगी कुआचार हमारे व्यवहार में जडें जमायें होते है, वे आसानी से दूर नहिं हो जाते।
कलयुग के नाम पर, या ये सब आध्यात्मिक बातें है पालन मुश्किल है, कहकर हम सिरे से खारिज नहिं कर सकते।
पालन कितना ही दुष्कर हो, सदविचारों पर किया गया क्षणिक चिन्तन भी व्यर्थ नहिं जाता।
सदाचरण को ‘अच्छा’ मानने की प्रवृति हमारी मानसिकता में बनी रहे यह हमारे शुद्ध अंतर्मन की जीत है। दया के,करूणा के,अनुकंपा के और क्षमा के भावों को उत्तम जानना, उत्तम मानना व उत्तम कहना भी आवश्यक है। हमारे कोमल मनोभावों को हिंसा व क्रूरता से दूर रखना आवश्यक है, देर से व शनै शनै ही सही हृदय की शुभ मानसिकता अंततः क्रियान्वन में उतरती ही है।
हृदय को निष्ठूरता क्रूरता से मुक्त रख, उसमें सद्विचारों और शुभ अध्यवसाय को आवास देना जरूरी है।