- आजीविका कर्म भी धर्म-प्रेरित चरित्र युक्त करना चाहिए।
- जीवन निर्वाह के साथ साथ जीवन निर्माण भी करना चाहिए।
- परिवार का निर्वाह गृहस्वामी बनकर नहीं बल्कि गृहन्यासी (ट्रस्टी) बनकर निस्पृह भाव से करना चाहिए।
- सत्कर्म से प्रतिष्ठा अर्जित करें व सद्चरित्र से विश्वस्त बनें।
- कथनी व करनी में समन्वय करें।
- कदैया (परदोषदर्शी) नहिं, सदैया (परगुणदर्शी) बने।
- सद्गुण अपनानें में स्वार्थी बनें, आपका चरित्र स्वतः परोपकारी बन जायेगा।
- इन्द्रिय विषयों व भावनात्मक आवेगों में संयम बरतें।
- उपकारी के प्रति कृतज्ञ भाव और अपकारी के प्रति समता भाव रखें।
- भोग-उपभोग को मर्यादित करके, संतोष चिंतन में उतरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए।
- आय से अधिक खर्च करने वाला अन्ततः पछताता है।
- कर्ज़ लेकर दिखावा करना, शान्ती बेच कर संताप खरीदना है।
- प्रत्येक कार्य में लाभ हानि का विचार अवश्य करना चाहिए, फिर चाहे कार्य ‘वचन व्यवहार’ मात्र ही क्यों न हो।
- आजीविका-कार्य में जो साधारण सा झूठ व साधारण सा रोष विवशता से प्रयोग करना पडे, पश्चाताप चिंतन कर लेना चाहिए।
- राज्य विधान विरुद्ध कार्य (करचोरी, भ्रष्टाचार आदि) नहीं करना चाहिए। त्रृटिवश हो जाय तब भी ग्लानी भाव महसुस करना चाहिए।
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