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Tag Archives: ब्लॉगिंग

आभार, हिंदी ब्लॉग जगत……..

ब्लॉग जगत में आते ही एक अभिलाषा बनी कि नैतिक जीवन मूल्यों का प्रसार करूँ. लेकिन डरता था पता नहीं प्रगतिशील लोग इसे किस तरह लेंगे. आज के आधुनिक युग में पुरातन जीवन मूल्यों और आदर्श की बात करना परिहास का कारण बन सकता था. लेकिन हिंदी ब्लॉगजगत के मित्रों ने मेरे विचारों को हाथो हाथ लिया. मात्र अनुकूलता की अपेक्षा थी किंतु यहाँ तो मेरी योग्यता से भी कईँ गुना अधिक, आदर व सम्मान मिला, और वो भी अल्पकाल में ही.

इतना ही नहीं, मित्रों के ब्लॉग-पोस्ट पर जा जाकर उनके विचारों के विरुद्ध तीव्र प्रतिघात दिए. जहाँ कहीं भी अजानते ही जीवन- मूल्यों को ठेस पहूँचने का अंदेशा होता, वहाँ चर्चा मेरे लिए अपरिहार्य बन जाती थी. मित्र ऐसी बहस से आहत अवश्य हुए, किंतु उन्होने अपना प्रतिपक्ष रखते हुए भी, समता भाव से मेरे प्रति स्नेह बनाए रखा.

कुल मिलाकर कहुँ तो हिंदी ब्लॉगजगत से मुझे अभिन्न आदर सम्मान मिला. आज मेरे “सुज्ञ” ब्लॉग को तीन वर्ष पूर्ण हुए. इतना काल आप सभी के अपूर्व स्नेह के बूते सम्पन्न किया. सत्कार भूख ने इस प्रमोद को नशा सा बना दिया. तीन वर्ष का समय कब सरक गया, पता भी न चला. यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि काफी सारा समय जो व्यवसाय या परिवार का था, मैंने यहां उडेल दिया. किंतु मन की शांति भी तो आवश्यक है, यहाँ नहीं तो मैं अपनी रूचियां और रंजन कहीं अन्यत्र प्रतिपूर्ण करता. फिर इस रूचिप्रद कार्य को कुछ समय देना सालता नहीं है. वस्तुतः इस प्रमोद ने मुझे कितने ही तनावो से उबारा है और बहुत से कठिन समय में सहारा बना है. मैं कृतज्ञ हूँ आप सभी के भरपूर स्नेह के लिए.

सभी ब्लॉगर बंधु और पाठक मित्रों का हृदय से कोटि कोटि  आभार

 

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शान्ति की खोज

हम क्यों लिखते है?

– ताकि पाठक हमें ज्यादा से ज्यादा पढ़ें।

 

पाठक हमें क्यों पढ़े? 

– ताकि पाठको को नवतर चिंतन दृष्टि मिले।

 

पाठको को नई चिंतन दृष्टि का क्या फायदा?

– एक निष्कर्ष युक्त सफलतापेक्षी दृष्टिकोण से अपना मार्ग चयन कर सके।

 

सही मार्ग का चयन क्यों करे?

– यदि अनुभव और मंथन युक्त दिशा निर्देश उपलब्ध हो जाय तो शान्तिमय संतोषप्रद जीवन लक्ष्य को सिद्ध कर सके।

 

कोई भी जो दार्शनिक, लेखक, वक्ता हो उनके लेख, कथा, कविता, सूचना, जानकारी या मनोरंजन सभी का एक ही चरम लक्ष्य है। अपना अनुभवजन्य ज्ञान बांटकर लोगों को खुशी, संतोष, सुख-शान्ति के प्रयास की सहज दृष्टि देना। बेशक सभी अपने अपने स्तर पर बुद्धिमान ही होते है। तब भी कोई कितना भी विद्वान हो, किन्तु सर्वाधिक सहज सफल मार्ग के दिशानिर्देश की सभी को आकांक्षा होती है।

 

यह लेखन की अघोषित जिम्मेदारी होती है। ब्लॉगिंग में लेखन खुशी हर्ष व आनन्द फैलाने के उद्देश्य से होता है और होना भी चाहिए। अधिकांश पाठक अपने रोजमर्रा के तनावों से मुक्त होने और प्रसन्नता के उपाय करने आते है। लेकिन हो क्या रहा हैं? जिनके पास दिशानिर्देश की जिम्मेदारी है वे ही दिशाहीन दृष्टिकोण रखते है। शान्ति और संतुष्टि की चाह लेकर आए लेखक-पाठक, उलट हताशा में डूब जाते है। घुटन से मुक्ति के आकांक्षी, विवादों में घिर कर विषादग्रस्त हो जाते है। अभी पिछले दिनों एक शोध से जानकारी हुई कि ब्लॉग सोशल साईट आदि लोगो में अधैर्य और हताशा को जन्म दे रहे है।

 

यह सही है कि जगत में अत्याचार, अनाचार, अन्याय का बोलबाला है किन्तु विरोध स्वरूप भी लोगों में द्वेष आक्रोश और प्रतिशोध के भाव भरना उस अन्याय का निराकरण नहीं है। आक्रोश सदाचारियों में तो दुष्कृत्यों के प्रति अरूचि घृणा आदि  पैदा कर सकते है पर अनाचारियों में किंचित भी आतंक उत्पन्न नहीं कर पाते। द्वेष, हिंसा, आक्रोश और बदला समस्या का समाधान नहीं देते, उलट हमारे मन मस्तिष्क में इन बुरे भावों के अवशेष अंकित कर ढ़ेर सारा विषाद छोड जाते है।

 

 

मैं समझता हूँ मशीनी जीवन यात्रा और प्रतिस्पर्द्धात्मक जीवन के तमाम तनाव झेलते पाठकों के मन में द्वेष, धृणा, विवाद, हिंसा, आक्रोश, प्रतिशोध, और अन्ततः विषाद पैदा करे ऐसी सामग्री से भरपूर बचा जाना चाहिए।

 

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ब्लॉग-जगत और पात्र का आधारभूत तल्ला

एक राजकुमार बहुत ही चंचल और नट्खट था। दासियों से चुहलबाजी करना और कर्मचारियों से गाली गलोच और तुच्छकार भरा वाणीव्यवहार उसका प्रिय शगल था। राजा नें उसे युवराज बनाया तब भी उसकी चंचलता कम न हुई। राजा ने सोचा – कल को जब यह राजा बनेगा, निश्चित ही यह प्रजापालन निति-नियम से नहीं करेगा। सोचने लगा युवराज की इन बुरी आदतों से छुटकारा कैसे हो? उसने एक निर्णय किया और उसकी सेवा में रत एक दासी को आदेश दिया कि युवराज दिन भर में जो भी वचन बोले दुर्व्यवहार करे उसे लिखकर शाम को मेरे सामने प्रस्तुत किया जाय। अब राजकुमार जो भी बोलता, पूर्व में ही विचार करता कि मेरे वचन रिकार्ड किए जा रहे हैं, परिणाम स्वरूप वह वाणी-व्यवहार में अतिरिक्त सावधान हो गया। कुछ ही दिनों में उसकी वाणी और व्यवहार दोनों शालीन और कुलीन हो गए। 
आज ब्लॉग-जगत में लेख व टिप्पणियों के माध्यम से जो भी हम अभिव्यक्त हो रहे है। सब कुछ रिकार्ड पर जा रहा है जो हमारे एक व्यक्तित्व का निरन्तर निर्माण कर रहा है। जिसका प्रभाव हमारे जीवन पर पडना ही है। पर हम इस रिकार्ड से सजग नहीं है। हम समझते है यह मनमौज का मनोरंजन माध्यम है। दो घडी मौज ली, अपने मान-अभिमान को पोषा और खेल खत्म!! किन्तु इसके जीवन पर पडते असर से हम बेदरकार है। अपने व्यक्तित्व पर जरा से आरोप पर हमारा इगो चित्कार कर उठता है और प्रतिक्रियात्मक तंज के साथ साथ, अपना मान बचाने के लिए हम हर अच्छा बुरा उपाय कर गुजरते है। किन्तु हमारे ही कटु-शब्दों से, ओछी वाणी से स्वयं हमारा ‘मान’ ही घायल और क्षत-विक्षित हो जाता है, हम नहीं देखते कि व्यक्तित्व के मान को अखण्ड रखने के मिथ्या प्रयासों में, हमारा वही व्यक्तित्व विकृत प्रतिबिम्बित होता जा रहा है जिसका मद के कारण हमें रत्तिभर भी भान नहीं रहता। मान-मद में चूर हम जिस डिब्बे में ‘सम्मान’ इक्कट्ठा करने का भ्रमित प्रयास कर रहे है, यह भी नहीं देखते कि उस डिब्बे का तो तल्ला है ही नहीं है। सारा का सारा, स्वमान, सरे राह बिखर कर धूल में मिल रहा है। जिस पात्र के आधारभूत तल्ला नहीं होता, उस पात्र में सम्मान भला कैसे ठहरेगा? चरित्र के प्रति सजग वाणी-व्यवहार भरा व्यक्तित्व ही पात्र का आधारभूत तल्ला है।
 

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लेखकीय स्वाभिमान के निहितार्थ

लेखकीय स्वाभिमान के निहितार्थ

हम प्रायः सोचते है विचार या मुद्दे पर चर्चा करते हुए विवाद अक्सर व्यक्तिगत क्यों हो जाता है। किन्तु हम भूल जाते है कि जिसे हम लेखन का स्वाभिमान कहते है वह व्यक्तिगत अहंकार ही होता है। इसी कारण स्वाभिमान की ओट में छिपा व्यक्तिगत अहंकार पहचान लिया जाता है और उस पर होती चर्चा स्वतः व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप का रूप ग्रहण कर लेती है। अभिमानी व्यक्ति निरर्थक और उपेक्षणीय बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अनावश्यक परिश्रम से भी अन्तत: कलह व झगड़ा ही उत्पन्न करता हैं। प्रायः ब्लॉगर/लेखक भी अपने लेखकीय स्वाभीमान की ओट में अहंकार का सेवन और पोषण ही करते है।

बल का दम्भ बुरा है, धन का दम्भ बहुत बुरा किन्तु ज्ञान का दम्भ तो अक्षम्य अपराध है।

हमारी व्यक्तिगत ‘मान’ महत्वाकांशाएँ विचार भिन्नता सहन नहीं कर पाती। विचार विरोध को हम अपना मानमर्दन समझते है। इसी से चर्चा अक्सर विवाद का रूप ले लेती है। इतना ही नहीं लेखन पर प्रतिक्रिया करते हुए टिप्पणीकार भी अपनी ‘मान’ महत्वाकांशा के अधीन होकर विचार विरोध की ओट में लेखक के मानखण्डन का ही प्रयास करते देखे जाते है। स्वाभिमान के नाम पर अपना सम्मान बचानें में अनुरक्त सज्जन चिंतन ही नहीं कर पाते कि जिस सम्मान के संरक्षण के लिए वे यह उहापोह कर रहे है उलट इन विवादों के कारण वही सम्मान नष्ट हो जाएगा। सम्मानजनक स्थिति को देखें तो हिंदी ब्लॉग जगत के विवादित मित्रों का प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है।

जितना भी सम्मान सुरक्षा की ललक में हम उठापटक करेंगे सम्मान उतना ही छिटक कर हमसे दूर चला जाएगा।

मैं यह नहीं कह सकता कि मैं अहंकार से सर्वथा अलिप्त हूँ। यह दंभी दुर्गुण ही महाजिद्दी व हठी है। इसलिए सामान्यतया कम या ज्यादा सभी में पाया जाता है। इतना आसान भी नहीं कि संकल्प लेते ही जादू की तरह यह हमारे चरित्र से गायब हो जाय। किन्तु यह भी इतना ही सही है कि पुरूषार्थ से इस अहंकार का शनै शनै क्षय किया जा सकता है। निरन्तर जागृत अभ्यास आवश्यक है। अभिमान का शमन आपके सम्मान को अक्षय अजर बना सकता है।

निराभिमान गुण, सम्मानजनक चरित्र का एक ऐसा आधार स्तम्भ है जो सुदृढ़ तो होता ही है लम्बे काल तक साथ निभाता है।

 

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विचारों का बेहतर प्रबंध

आज कल लोग ब्लॉगिंग में बड़े आहत होते से दिख रहे है। जरा सी विपरित प्रतिक्रिया आते ही संयम छोड़ देते है अपने निकट मित्र का विरोधी मंतव्य भी सहज स्वीकार नहीं कर पाते और दुखी हृदय से पलायन सा रूख अपना लेते है।

मुझे आश्चर्य होता है कि जब हमनें ब्लॉग रूपी ‘खुला प्रतिक्रियात्मक मंच’ चुना है तो अब परस्पर विपरित विचारों से क्षोभ क्यों? यह मंच ही विचारों के आदान प्रदान का है। मात्र जानकारी अथवा सूचनाएं ही संग्रह करने का नहीं। आपकी कोई भी विचारधारा इतनी सुदृढ नहीं हो सकती कि उस पर प्रतितर्क ही न आए। कई विचार परम-सत्य हो सकते है पर हमारी यह योग्यता नहीं कि हम पूर्णरूपेण जान सकें कि हमने जो प्रस्तुत किया वह अन्तिम सत्य है और उसको संशयाधीन नहीं किया जा सकता।

अधिकांश हम कहते तो इसे विचारो का आदान प्रदान है पर वस्तुतः हम अपनी पूर्वाग्रंथियों को अन्य के समर्थक विचारों से पुष्ठ करनें का प्रयास कर रहे होते है। उन ग्रंथियों को खोलनें या विचलित भी होनें देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। हमारा पूर्वाग्रंथी प्रलोभन इतना गाढ होता है कि वह न जाने कब अहंकार का रूप धर लेता है। इसी दशा में अपने विचारों के विपरित प्रतिक्रिया पाकर आवेशित हो उठता है। और सारा आदान-प्रदान वहीं धरा रह जाता है। जबकि होना तो यह चाहिए कि आदान प्रदान के बाद हमारे विचार परिष्कृत हो। विरोध जो तर्कसंगत हो, हमारी विचारधारा उसे आत्मसात कर स्वयं को परिशुद्ध करले। क्योंकि यही विकास का आवश्यक अंग है। अनवरत सुधार।

यदि आपका निष्कर्ष सच्चाई के करीब है फिर भी कोई निर्थक कुतर्क रखता है तो आवेश में आने की जगह युक्तियुक्त निराकरण प्रस्तुत करना चाहिए, आपके विषय-विवेचन में सच्चाई है तो तर्कसंगत उत्तर देनें में आपको कोई बाधा नहीं आएगी। तथापि कोई जड़तावश सच्चाई स्वीकार न भी करे तो आपको क्यों जबरन उसे सहमत करना है? यह उनका अपना निर्णय है कि वे अपने विचारों को समृद्ध करे,परिष्कृत करे, स्थिर करे अथवा दृढ्ता से चिपके रहें।

मैं तो मानता हूँ, विचारों के आदान-प्रदान में भी वचन-व्यवहार विवेक और अनवरत विचारों को शुद्ध समृद्ध करने की ज्वलंत आकांशा तो होनी ही चाहिए, आपके क्या विचार है?

 
1 टिप्पणी

Posted by on 30/06/2011 में बिना श्रेणी

 

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विचार प्रबन्धन

आज कल लोग ब्लॉगिंग में बड़े आहत होते से दिख रहे है। जरा सी विपरित प्रतिक्रिया आते ही संयम छोड़ देते है अपने निकट मित्र का विरोधी मंतव्य भी सहज स्वीकार नहीं कर पाते और दुखी हृदय से पलायन सा रूख अपना लेते है।

मुझे आश्चर्य होता है कि जब हमनें ब्लॉग रूपी ‘खुला प्रतिक्रियात्मक मंच’ चुना है तो अब परस्पर विपरित विचारों से क्षोभ क्यों? यह मंच ही विचारों के आदान प्रदान का है। मात्र जानकारी अथवा सूचनाएं ही संग्रह करने का नहीं। आपकी कोई भी विचारधारा इतनी सुदृढ नहीं हो सकती कि उस पर प्रतितर्क ही न आए। कई विचार परम-सत्य हो सकते है पर हमारी यह योग्यता नहीं कि हम पूर्णरूपेण जान सकें कि हमने जो प्रस्तुत किया वह अन्तिम सत्य है और उसको संशय में नहीं डाला जा सकता।

अधिकांश हम कहते तो इसे विचारो का आदान प्रदान है पर वस्तुतः हम अपनी पूर्वाग्रंथियों को अन्य के समर्थक विचारों से पुष्ठ करनें का प्रयास कर रहे होते है। उन ग्रंथियों को खोलनें या विचलित भी होनें देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। हमारा पूर्वाग्रंथी प्रलोभन इतना गाढ होता है कि वह न जाने कब अहंकार का रूप धर लेता है। इसी दशा में अपने विचारों के विपरित प्रतिक्रिया पाकर आवेशित हो उठता है। और सारा आदान-प्रदान वहीं धरा रह जाता है। जबकि होना तो यह चाहिए कि आदान प्रदान के बाद हमारे विचार परिष्कृत हो। विरोध जो तर्कसंगत हो, हमारी विचारधारा उसे आत्मसात कर स्वयं को परिशुद्ध करले। क्योंकि यही विकास का आवश्यक अंग है। अनवरत सुधार।

यदि आपका निष्कर्ष सच्चाई के करीब है फिर भी कोई निर्थक कुतर्क रखता है तो आवेश में आने की जगह युक्तियुक्त निराकरण प्रस्तुत करना चाहिए, आपके विषय-विवेचन में सच्चाई है तो तर्कसंगत उत्तर देनें में आपको कोई बाधा नहीं आएगी। तथापि कोई जड़तावश सच्चाई स्वीकार न भी करे तो आपको क्यों जबरन उसे सहमत करना है? यह उनका अपना निर्णय है कि वे अपने विचारों को समृद्ध करे,परिष्कृत करे, स्थिर करे अथवा दृढ्ता से चिपके रहें।

मैं तो मानता हूँ, विचारों के आदान-प्रदान में भी वचन-व्यवहार विवेक और अनवरत विचारों को शुद्ध समृद्ध करने की ज्वलंत इच्छा तो होनी ही चाहिए, आपके क्या विचार है?
 

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छवि परिवर्तन प्रयोग

क प्रयोग करने जा रहा हूँ। बस बैठे बैठे एक जिज्ञासा हो आई कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते है? वे मुझे किस तरह पहचानते है? लोगों के मानस में मेरी छवि क्या बनी है? क्या अपनी छवि जो मैं मानता रहा हूँ? ऐसी ही निर्मित है या एकदम भिन्न? कितना अलग हो सकती है, स्वयंभू धारणा  और लोकदृष्टि ?
औरों की नज़र से स्वयं के बारे में प्रतिभाव लेने की गज़ब की सुविधा इस ब्लॉगिंग में है। तो क्यों न ब्लॉग जगत में इस सुविधा का उपयोग किया जाय? अपने पाठक मित्रों ब्लॉग-मित्रों को आमंत्रित करूँ और जानकारी लूँ कि वे मुझे किस तरह पहचानते है। उनकी दृष्टि में मेरी छवि क्या है? क्या वह यथार्थ बिंब है या आभासी दुनिया में आभासी ही व्यक्तित्व। यदि कुछ नकारात्मक पता चले तो क्यों न छवि को सकारात्मक बनाने का प्रयोग किया जाय?
सभी ब्लॉगर, पाठक बंधु अथवा यत्र तत्र टिप्पणीयों से मुझे जानने वाले पाठक कृपा करके अपने प्रतिभाव अवश्य दें। आज बिना लाग लपेट के, प्रोत्साहन में अपने अहं को आडे लाकर, प्रसंशा में पूरी क्षमता से कंजूसी करते हुए,  निश्छल टिप्पणी करें। वे पाठक भी आज तो टिप्पणी अवश्य करे जो मात्र पढकर खिसक जाया करते है। आज आलेख को नहीं, मुझे टिप्पणियों की दरकार है। क्यों कि इसका मेरे व्यक्तित्व से सरोकार है। मेरे विचार मेरे व्यक्तित्व को कैसा आकार देते है।
आभासी दुनिया में बना बिंब, बालू शिल्पाकृति सम होगा, जिसमें परिवर्तन सम्भव है।
बेताल के शब्दों में कहुँ तो मेरी छवि के बारे में थोडा भी जानते हुए यदि लेख-पाठक मौन रहे तो उनका सिर मेरे ही विचारों से भारी होकर दर्दनिवारक गोली की शरण को प्राप्त होगा।
तो फटाफट टिप्पणी करिए कि क्या है आपकी नज़र में मेरी छवि?
 

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ब्लॉगिंग विमर्श

ब्लॉग एक सार्वजनिक मंच का स्वरुप ग्रहण कर चुका है, इस मंच से जो भी विचार परोसे जातेहैं पूरी दुनियाद्वारा आत्मसातहोने की संभावनाएंहै। ऐसे में ब्लोगर की जिम्मेदारी बढ जाती है वह अधिक से अधिक सामाजिक सरोकार के परिपेक्ष में लिखे तो सुधार की अनंत सम्भावनाएं है। हर ब्लॉगर को अपनी अनुकूलता अनुसार अपना वैचारिक योगदान अवश्य देना चाहिए। हिन्दी ब्लॉगिंग की वर्तमान, विकासशील परिस्थिति में भी, ब्लॉगर द्वारा किये गये प्रयास, सानुकूल समर्थ वातावरण निर्मित करेंगे। इस माध्यम से जीवन मूल्यो को नये आयाम देना सम्भव है। मानवता का विलक्षण वैचारिक विकास सम्भव है।

हिन्दी ब्लॉग जगत में सभी उच्च साहित्यकार नहीं आते, अधिसंख्य वे सामान्य से लेखक, सहज अभिव्यक्ति करने वाले ब्लॉगर ही होते है। ऐसे नव-आगंतुको को प्रेरणा व प्रोत्साहन की नितांत आवश्यकता होती है। उनकी सार्थक कृतियों पर प्रोत्साहन की दरकार रहती है। नव-ब्लॉगर के लिये तो उसका ब्लॉग लोग देखे, यह भी मायने रखता है। स्थापित होने के संघर्ष में वे भी यथा प्रयत्न दूसरे ब्लॉगर के समर्थक बनते है, बिना लेख पढे ज्यादा से ज्यादा टिप्पणियाँ करने का प्रयास करते है, उन्हे अपेक्षा होती है कि ब्लॉगजगत में उन्हें भी याद रखा जाय, और न्यूनाधिक महत्व दिया जाय। इसतरह लेन-देन प्रयास में एक तरह की नियमितता आती है, जिसे हम अक्सर गुट समझने की भूल करते है,जबकि वह सहयोग मात्र होता है।

कुछ प्रतिष्ठित प्रतिभावान साहित्यक ब्लॉगर्स के साथ भी यही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु वहां भी उनकी आवश्यकताएँ होती है। साहित्यक प्रतिभावान ब्लॉगर भी अपेक्षा रखते है, उन्हें भी साहित्यक समझ वाले पाठक उपलब्ध हो। वे अपने टिप्पणीकर्ता के अभिगम को भांप लेते है, कि पाठक साहित्यक समझ का योग्य पात्र है, और उसके साथ संवाद की निरंतरता बनती है,क्योंकि पाठक भी एक ब्लॉगर होता है सो उसके भी लेखादि को सराहता है, जो कि सराहने योग्य ही होते है। ऐसी आपसी सराहना को हम गुट मान लेते है। हमारी दुविधा यह है कि इस विकासशील दौर में हर ब्लॉगर ही पाठक होता है। अतः आपस में जुडाव स्वभाविक है।
स्थापित वरिष्ठ बलॉगर भी वर्षों से ब्लॉगिंग में है। अनुभव और प्रतिदिन के सम्पर्कों के आधार पर वे एक दूसरे को जानने समझने लगते है, ऐसे परिचित ब्लॉगर से सम्पर्क का स्थाई बनना आम बात है। इसे भी हम गुट मान लेते है।कोई भी व्यक्ति विचारधारा मुक्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रत्येक ब्लॉगर की भी अपनी निर्धारित विचारधारा होती है। सम्पर्क में आनेवाले दूसरे ब्लॉगर में जब वह समान विचार को पाता है, तो उसके प्रति आकृषण होना सामान्य है। ऐसे में निरंतर सम्वाद बनता है। समान विचारो पर समान प्रतिक्रिया देनेवालों को भी हम एक गुट मान लेते है।

इस प्रकार के जुडाव स्वभाविक और सामाजिक है। और प्राकृतिक रूप से यह ध्रुवीकरण अवश्यंभावी है। इस प्रक्रिया में वर्ग विभाजन भी सम्भव है। जैसे, बौद्धिक अभिजात्य वर्ग, सामान्य वर्ग, सहज अभिव्यक्ति वर्ग। स्थापित ब्लॉगर, साधारण ब्लॉगर, संघर्षशील ब्लॉगर।लेकिन इस वर्ग विभाजन से भय खाने की आवश्यकता नहीं। जैसे जैसे ब्लॉगिंग का विस्तार होता जायेगा, पाठक अपनी रूचि अनुसार पठन ढूंढेगा। परिणाम स्वरूप, विचार, विषय और विधा अनुसार वर्गीकृत होने में पाठकवर्ग की सुविधा अन्तर्निहित है।

वे धार्मिक विचारधाराएँ जिनमें, दर्शनआधारित विवेचन को कोई स्थान नहीं, जो कार्य-कारण के विचार मंथन को कुन्द कर देती है। मानवीय सोच को विचार-मंथन के अवसर प्रदान नहीं करती। ऐसी धार्मिक विचारधाराएं, सम्प्रदाय प्रचार की दुकानें मात्र है। जो फ़ुट्पाथ पर लगी, आने जाने वालों को अपनी दुकान में लाने हेतू चिल्ला कर प्रलोभन देते हुए आकृषित करती रहती है। इनके विवाद और गुट फ़ुट्पाथ स्तर के फेरियों समान होते है। अतः इनसे भी हिन्दी ब्लॉग जगत को कोई हानि नहीं। जहां तक बात ज्ञान-चर्चा की है तो उसके लिये धर्म-दर्शन आधारित अन्य क्षेत्र भी विकसित होतेरहेंगे।

एक प्राकृतिक नियम है, जो कमजोर होता है स्वतः पिछड जाता है।(कमजोर से यहां आशय विचार दरिद्रता से है।)और सार्वभौमिक इकोनोमिक नियम है, जैसी मांग वैसी पूर्ति। अन्ततः तो उच्च वैचारिक, सार्थक मांगे उठनी ही है, अतः जो सार्थक गुणवत्तायुक्त पूर्ति करेंगे, वही टिकेंगे। भ्रांत और निकृष्ट पूर्ति का मार्केट स्वतः खत्म होता है।

जो लोग तुच्छ स्वार्थ से ऊपर नहीं उठ पाते हैं ,मात्र कमेन्ट या समर्थकों के लिये क्षुद्र उद्यम करते है।

कभी स्वयं के आने वाले कमेन्टस व समर्थकों का दंभ भरते है या फिर अन्य ब्लॉगर को प्राप्त होने वाले कमेन्ट या समर्थकों पर ईष्याजनित आलोचना करते है। इन्ही बातों से विवाद अस्तित्व में आते है, प्रतिस्पृदा की दौड में ऐसी कई बुराईयों का प्रकट होना सहज है। इसे अपरिपक्व मानसिकता के रूप में देखा जाना चाहिए।

ऐसे विवादो का उद्देश्य अहं तुष्टि ही होता है। कहीं दर्प से तृस्कृत हुए लोग तो कहीं रंज से प्रतिकार या बदले की भावना से ग्रस्त गुट अस्तित्व में आते है जिनका पुनः आपस में ही विवाद कर बिखर जाना परिणिति है। इस प्रकार की निर्थक गुटबंदी वस्तुतः छोटे छोटे विवादो की ही उपज होती है। इन सभी विवादों का मूल है हमारा अहंकार, फिर भले हम उसे स्वाभिमान का नाम ही क्यों न दे दें।

तुच्छ स्वार्थो भरी मानसिकता से गुट्बंदी का खेल खेलने वाले ब्लॉगर, इन्ही प्रयासो में विवादग्रस्त होकर, अन्तत: अपना महत्व ही खो देंगे। वे बस इस सूत्र पर कार्य कर रहे है कि बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ। कदाचित वे अपने ब्लॉग को कथित प्रसिद्धि दे पाने में सफल हों, पर व्यक्तित्व और विचारों से दरिद्र हो जाएंगे। उन्हें नहीं पता कि उनके सद्चरित्र में ही अपने ब्लॉग की सफलता निहित है।

 
6 टिप्पणियां

Posted by on 05/04/2011 में बिना श्रेणी

 

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ब्लॉग गुटबाजी का निदान

अपने पिछले लेख और उस पर आयी प्रतिक्रियाओं से चर्चा आगे बढाते हुए………एक नज़र जो विचार प्रस्तुत हुए…
“……सिर्फ कमेन्ट पाने या खुद को बौद्दिक रूप से संपन्न दिखाने जैसे कारणों या इच्छाओं की पूर्ति के लिए के लिए लेखन का ये खेल खेला जाता है”।
“……गुटबाजी की चर्चा से लगता है कि कहीं न कहीं आग तो है, वर्ना धुँआ नहीं उठता।”
 “……गुट है और उसे बनाया और बढाया जाता है | बहुत सारी और भी बाते तथ्य है पर उन पर ज्यादा बहस करना ही बेकार है”।
“……जब परस्पर विरोधी विचारधाराएँ, रंजिश में बदल जाती हैं!
“……प्रचलित धारा से अलग कुछ कहने वाला कुपाच्य हो जाता हैं
“……अब अनुभव में आ रहा है कि लोगों को परामर्श रुचते नहीं”।
मेरी पूर्व वर्णीत, स्वभाविक ग्रुप-संकल्पना, जो कि सही अर्थो में गुट-निर्पेक्षता ही है। जिसका विचार, विषय और विधा अनुसार वर्गीकरण होना निश्चित है। 
उसके अतिरिक्त जो मात्र विवादों के समय गुट अस्तित्व में आते है और पुनः आपस में ही विवाद कर बिखर भी जाते है। जिसका आधार मात्र अहं तुष्टि होता है। हिन्दी ब्लॉग जगत को ऐसे गुटों से कोई खतरा नहीं है। प्रतिस्पृदा की दौड में ऐसी कई विधीओं का प्रकट होना और अस्त होना विकास में सम्भावित ही है। इसे अपरिपक्वता से परिपक्वता की संधी के रूप में देखना ही ठीक है।
 
मात्र तुच्छ स्वार्थो भरी मानसिकता से गुट्बंदी का खेल खेलने वाले ब्लॉगर, इन्ही प्रयासो में विवादग्रस्त होकर, अन्तत: महत्व खो देंगे। वे बस इस सूत्र पर कार्य कर रहे है कि बदनाम हुए तो क्या हुआ नाम तो हुआ। कदाचित वे अपने ब्लॉग को कथित प्रसिद्धि दे पाने में सफल हों, पर व्यक्तित्व से दरिद्र हो जाएंगे। उन्हें नहीं पता उनके सद्चरित्र व्यक्तित्व में ही ब्लॉग की सफलता निहित है।

एक प्राकृतिक नियम है, जो कमजोर होता है स्वतः पिछड जाता है।(कमजोर से यहां आशय विचार दरिद्रता से है।) और सार्वभौमिक इकोनोमिक नियम है, जैसी  मांग वैसी पूर्ति। अन्ततः तो उच्च वैचारिक, सार्थक मांगे उठनी ही है, अतः जो सार्थक गुणवत्तायुक्त पूर्ति करेंगे, वही टिकेंगे भ्रांत और निकृष्ट पूर्ति का मार्केट खत्म होना अवश्यंभावी है

वे धार्मिक विचारधाराएँ जिनमें, दर्शनआधारित विवेचन को कोई स्थान नहीं, जो कार्य-कारण के विचार मंथन को कुन्द कर देती है। मानवीय सोच को विचार-मंथन के अवसर प्रदान नहीं करती। ऐसी धार्मिक विचारधाराएं, सम्प्रदाय प्रचार की दुकानें मात्र है। जो फ़ुट्पाथ पर लगी, आने जाने वालों को अपनी दुकान में लाने हेतू चिल्ला कर प्रलोभन देते हुए आकृषित करती रहती है। इनके विवाद और गुट फ़ुट्पाथ स्तर के फेरियों समान होते है। अतः इनसे भी हिन्दी ब्लॉग जगत को कोई हानि नहीं। ज्ञान-चर्चा के लिये धर्म-दर्शन आधारित अन्य क्षेत्र विकसित हो सकते है।
विचार परिमार्जन के परामर्श जिन्हें पथ्य नहीं, ऐसे ब्लॉगर के विचार स्थिर होकर सडन को प्राप्त होंगे। कहते हैं ‘जो झुकते नहीं कट जाते है’। जो विनय से नया ज्ञान प्राप्त नहीं करते, विनम्रता से उस ज्ञान का परिशीलन नहीं करते, अन्तत: उनके अन्तरमन से ज्ञान नष्ट हो जाता है। और ज्ञान का दम्भ भी उनकी लुटिया डुबोने का ही कार्य करता है।
इसलिये चलें?, सार्थक ब्लॉग लेखन से ब्लॉग स्मृद्धि की ओर…………।
 

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हिन्दी ब्लॉग जगत में गुटबाजी?

हिन्दी ब्लॉग जगत में एक शिकायत बडी आम है कि ब्लॉगर गुट बनाते है, और अपने गुट विशेष के सदस्यों की सराहना करते है। मैं स्वयं गिरोहबाजी का समर्थक नहीं, पर हमेशा जो दिखाई देता है, वास्तव में वह मात्र गुटबाजी ही नहीं होता।

हिन्दी ब्लॉग जगत में सभी उच्च साहित्यकार नहीं आते, अधिसंख्य वे सामान्य से लेखक, सहज अभिव्यक्ति करने वाले ब्लॉगर ही होते है। ऐसे नव-आगंतुको को प्रेरणा व प्रोत्साहन की नितांत आवश्यकता होती है। उनकी विशिष्ठ सराहने योग्य कृतियों पर भी, ‘बढिया पोस्ट’ ‘उम्दा पोस्ट ‘Nice post’  मात्र जैसी टिप्पणियाँ भी, उनके लिये बहुत मायने रखती है। उनके लिये तो यह भी बहुत होता है, लोगों ने उसका ब्लॉग देखा। स्थापित होने के संघर्ष में वे भी यथा प्रयत्न दूसरे ब्लॉगर के समर्थक बनते है, बिना लेख पढे ज्यादा से ज्यादा टिप्पणियाँ करते है, इसलिये कि उन्हे भी याद रखा जाय, और न्यूनाधिक महत्व दिया जाय।

इसतरह लेन-देन के प्रयास में एक नियमितता आती है, जिसे हम अक्सर गुट समझने की भूल करते है,जबकि वह सहयोग मात्र होता है।

कुछ प्रतिष्ठित प्रतिभावान साहित्यक ब्लॉगर्स के साथ भी यही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु वहां भी उनकी आवश्यकताएँ होती है। साहित्यक प्रतिभावान ब्लॉगर भी अपेक्षा रखता है उसे साहित्यक समझ वाले पाठक उपलब्ध हो। वह टिप्पणीकर्ता के अभिगम से भांप लेता है, पाठक भी साहित्यक समझ का योग्य पात्र है, और उसके साथ संवाद की निरंतरता बनाता है, और उसके लेखादि को सराहता है, जो कि सराहने योग्य ही होता है। ऐसी आपसी सराहना को हम गुट मान लेते है। हमारी दुविधा यह है कि इस विकासशील दौर में हर ब्लॉगर ही पाठक होता है। अतः आपस में जुडाव सहज है।

स्थापित वरिष्ठ बलॉगर भी वर्षों से ब्लॉगिंग में है। प्रतिदिन के सम्पर्कों और अनुभव के आधार पर वे एक दूसरे को जानने समझने लगते है, ऐसे परिचित ब्लॉगर से सम्पर्क का स्थाई बनना आम बात है। इसे भी हम गुट मान लेते है।

कोई भी व्यक्ति विचारधारा मुक्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रत्येक ब्लॉगर की भी अपनी निर्धारित विचारधारा होती है। सम्पर्क में आनेवाले दूसरे ब्लॉगर में जब वह उसी विचार को पाता है, तो उसके प्रति आकृषण होना सामान्य है। ऐसे में निरंतर सम्वाद बनता है। समान विचारो पर समान प्रतिक्रिया देनेवालों को भी एक गुट मान लिया जाता है।

इस प्रकार के सम्पर्को को यदि गुट भी कहें तब भी यह गुट बनना प्राकृतिक है। और कुदरती रूप से यह केन्द्रियकरण अवश्यंभावी है। यह वर्ग विभाजन की तरह भी हो सकता है। जैसे बौद्धिक अभिजात्य वर्ग, सामान्य वर्ग, सहज अभिव्यक्ति वर्ग। स्थापित ब्लॉगर, सधारण ब्लॉगर, संघर्षशील ब्लॉगर।

लेकिन इस वर्ग विभाजन से भय खाने की आवश्यकता नहीं। जैसे जैसे ब्लॉगिंग का विस्तार होता जायेगा, पाठक अपनी रूचि अनुसार पठन ढूंढेगा। विषयानुसार केटेगरी बनना तो निश्चित है। साथ ही सारे के सारे विभाजन हिन्दी ब्लॉग पाठकों  की सुविधा में अभिवृद्धि ही करेंगे।

इसलिये बस लिखते चलो………लिखते चलो………
 

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