वहीं थोड़ी सी भी प्रतिकूल परिस्थिति आने पर, अधिसंख्य लोगों को स्वार्थ में सफल होते देखकर, नास्तिक के सब्र का बांध टूट जाता है। जब भी बह भलाई का बदला बुराई से मिलता देखता है, उसके भौतिक नियमों में खलबली मच जाती है। वह यह निश्चित कर लेता है कि सदाचार का बदला सदैव बुरा ही मिलता है। फिर वह ही क्यों अनावश्यक सदाचार निभाकर दुख पीड़ा और प्रतीक्षा मोल ले? धर्मग्रंथों से मिलने वाली उर्ज़ा के अभाव में, ‘नास्तिक-सदाचार’ लम्बी दौड नहीं दौड सकता। आधार रहित ‘नास्तिक-सदाचार’ पैर रहित अर्थात निराधार से होते है। कोई मजबूत मनोबल युक्त नास्तिक दृढ भी रह जाय जो कि सम्भव है, किन्तु यह अपवाद है। और यह ध्रुव सत्य है कि बिना कारण कोई कर्म नहीं होता। पुरूषार्थ के लिए भी हमें पर्याप्त नैतिक बल प्रेरणा चाहिए।
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नास्तिक के लिए सदाचार निष्प्रयोजन
नास्तिकता है क्या?
नास्तिकता (धर्म- द्वेष) के कारण
व्यक्तिगत तृष्णाओं में लुब्ध व्यक्ति, समाज से विद्रोह करता है। और तात्कालिक अनुकूलताओं के वशीभूत, स्वेच्छा से स्वछंदता अपनाता है, समूह से स्वतंत्रता पसंद करता है। किन्तु समय के साथ जब समाज में सामुहिक मेल–मिलाप के अवसर आते है, जिसमे धर्मोत्सव मुख्य होते है। तब वही स्वछन्द व्यक्ति उस एकता और समुहिकता से कुढ़कर द्वेषी बन जाता है। उसे लगता है, जिस सामुहिक प्रमोद से वह वंचित है, उसका आधार स्रोत यह धर्म ही है, वह धर्म से वितृष्णा करता है। वह उसमें निराधार अंधविश्वास ढूंढता है, निर्दोष प्रथाओं को भी कुरितियों में खपाता है और मतभेदों व विवादों के लिये धर्म को जिम्मेदार ठहराता है। ‘नास्तिकता’ के मुख्यतः यही कारण होते है।