विगत दो माह से ब्लोग जगत को खंगालनें के बाद, मैंने देखा कि बुद्धिजीवी लोग धर्म पर चर्चा मात्र से कतराते हैं। अधिकतर सज्जन सोचते है, क्यों पंगा लें। तो अधिकांश का मानना धर्म एक सम्वेदनशील मामला है, अनावश्यक विवाद खड़े होंगे। कुछ लोगों का मत है, क्यों फ़ालतू की बहस करना या फ़साद खडा करना। तो कुछ धर्म पर ही दोषारोपण करते है कि धर्म आपस में लडवाता है। कुछ बन्धु धर्म-चर्चा के नाम पर धर्म-प्रचार में लीन हैं, तो अन्य सज्जन उनके कुप्रचार के खण्ड़न से ही नहीं उभर पाते। एक विशेष अधर्मियों का मत हैं कि धर्म तो अफिम है और स्वयंभू नास्तिकता की ओट लेकर, धर्म की पीठ पर ही सवार होकर उस पर वार करते है। तो कुछ छोटी- छोटी टिप्पणियों से ही भड़ास निकाल संतोष मान लेते है।
धर्म ने आदि काल से हमारे जीवन को प्रभवित किया है, हमारी समाज व्यवस्था को नियन्त्रित किया है। फ़िर क्यों न हम इस पर खुलकर चर्चा करें।
धर्म का शाब्दिक अर्थ है, स्वभाव (स्व+भाव)। स्वयं का आत्म-स्वभाव, अपनी आत्मा के स्वभाव में स्थिर होना, आत्मा का मूल स्वभाव है निर्मलता। अतः सरल निश्छल भावो व सुगुणों में रहना ही आत्मा का धर्म हैं। धर्मों को वस्तुतः मार्ग या दर्शन कहना उचित है। दर्शनों ने मानव के व्यवहार को सुनिश्चित करने एवं समाज व्यवस्था को नियंन्त्रित करने के लिये कुछ नियम बनाए, उसे ही हम धर्म कहते है। यह स्वानुशासन हैं, जिसमें स्वयं को संयमित रखकर, स्वयं नियन्त्रित (मर्यादित) रहना ही धर्म कहा गया है। आत्मा की निर्मलता बरकरार रखने के लिए मर्यादित रहना ही धर्म है। वही उस आत्मा का ‘स्वभाव’ है।
याद रहे अच्छाई और बुराई में भेद करना और सभ्य-सुसंस्कृत रहना, इन्ही दर्शनों (धर्मों) की देन है। अन्यथा हम किसी का अहित करके भी यह न समझ पाते कि हमने कोई बुरा कृत्य किया है। हमारी शब्दावली में व्याभिचार, बलात्कार, झूठ, चोरी, हिंसा आदि शब्दों के कोई अर्थ ही न होते।
प्राकृतिक रूप से मानव को किसी भी अनुशासन में रहना नहीं सुहाता। इसिलिए धर्म की बातों(नियमों) को हम अपने जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप मानते है। और हमारी इस मान्यता को दृढ करते है, वे अधकचरे ज्ञान के पोंगापण्डित, जो ग्रन्थों से चार बातें पढकर, उसका (पूर्वाग्रहयुक्त) मनमाना अर्थ कर, भोले श्रद्धालुओं के लिए अजब भेदभाव युक्त नियमावली गढते हैं। इन ज्ञानपंगुओं ने वास्तव में सुखकर धर्म को, दुष्कर बना दिया हैं। हमारे पास बुद्धि होते हुए भी हमे जडवत रहने को अभिशप्त कर दिया हैं।
सर्वधर्म समान?
क्या कुदरत ने हमें सोचने समझने की शक्ति नहीं दी है? क्यों मानें हम सभी को समान? हमारे पास तर्कबुद्धि हैं। हम परीक्षण करने में सक्षम हैं।निर्णय लेने में समर्थ हैं। फ़िर कैसे बिना परखे कह दें कि सभी धर्म समान है। मानव है, कोई कोल्हू के बैल नहीं। हीरे और कोयले में अन्तर होता है, सभी का मूल्य समान नहीं होता। भले आप हमें भ्रांत करने के लिए तर्क दें कि, दोनो ही कार्बन तत्व से बने है,पर हमें दोनों के उपयोग और कीमत की सुदृष्ट जानकारी हैं।
हां यदि आपका आग्रह इसलिये है कि यह धर्मो का मामला है,क्यों फ़साद खडा करना? सभी धर्मो के लिए हमारा दिल विशाल होना चाहिए। तो मात्र यह मान सकते है कि ‘सर्वधर्म सद्भाव’ (द्वेषरहित)। किन्तु, सर्वधर्म सम्भाव या सर्वधर्म समान तो कदापि नहीं। गुणों के आधार पर अन्तर तो लाजिमि है।