अस्थिर आस्थाओं के ठग
एक विशाल नगर में हजारों भीख मांगने वाले थे। अभावों में भीख मांगकर आजिविका चलाना उनका पेशा था। उनमें कुछ अन्धे भी थे। उस नगर में एक ठग आया और भिखमंगो में सम्मलित हो गया। दो तीन दिन में ही उसने जान लिया कि उन भिखारियों में अंधे भिखारी अधिक समृद्ध थे। अन्धे होने से दयालु लोग उन्हे दान कुछ विशेष ही देते थे। उनका धन देखकर ठग ललचाया। वह अंधो के पास पहुंच कर कहने लगा-“सूरदास महाराज ! धन्य भाग मेरे जो आप मुझे मिल गये। मै आप जैसे महात्मा की खोज में था ! गुरूवर, आप तो साक्षात भगवान हो। मैं आप की सेवा करना चाहता हूँ ! लीजिये भोजन ग्रहण किजिए, मुझ कर कृपा का हाथ रखिए और मुझे आशिर्वाद दीजिये।“
अन्धे को तो जैसे मांगी मुराद मिल गई। वह प्रसन्न हुआ और भक्त पर आशिर्वाद की झडी लगा दी। नकली भक्त असली से भी अधिक मोहक होता है। वह सेवा करने लगा। अंधे सभी साथ रहते थे। वैसे भी उन्हे आंखो वाले भिखमंगो पर भरोसा नहीं था। थोडे ही दिनों में ठग ने अंधो को अपने विश्वास में ले लिया। और अनुकूल समय देखकर उस भक्त नें, अंध सभा को कहा-“ महात्मा मुझे आप सभी को तीर्थ-यात्रा करवाने की मनोकामना है। इस तरह आपकी सेवा कर संतुष्ट होना चाहता हूँ। मेरा जन्म सफल हो जाएगा। सभी अंधे ऐसा श्रवणकुमार सा योग्य भक्त पा गद्गद थे। उन्हे तो मनवांछित की प्राप्ति हो रही थी। वे सब तैयार हो गये।सभी ने आपना अपना संचित धन साथ लिया और चल पडे। आगे आगे ठगराज और पिछे अंधो की कतार।
भक्त बोला- “महात्माओं आगे भयंकर वनखण्ड है, जहाँ चोर डाकुओं का उपद्रव रहता है। आप अपनें अपने धन को सम्हालें”। अंध-समूह घबराया ! हम तो अंधे है अपना अपना धन कैसे सुरक्षित रखें? अंधो ने निवेदन किया – “भक्त ! हमें तुम पर पूरा भरोसा है, तुम ही इस धन को अपने पास सुरक्षित रखो”,कहकर नोटों के बंडल भक्त को थमा दिये। ठग नें इस गुरुवर्ग को आपस में ही लडा मारने की युक्ति सोच रखी थी। उसने सभी अंधो की झोलीयों में धन की जगह पत्थर रखवा दिये और कहा – “आप लोग मौन होकर चुपचाप चलते रहना, आपस में कोई बात न करना। कोई मीठी मीठी बातें करे तो उस पर विश्वास न करना और ये पत्थर मार-मार कर भगा देना। मै आपसे दूरी बनाकर चलता रहूंगा”। इस प्रकार सभी का धन लेकर ठग चलते बना।
उधर से गुजर रहे एक राहगीर सज्जन ने, इस अंध-समूह को इधर उधर भटकते देख पूछा –“सूरदास जी आप लोग सीधे मार्ग न चल कर, उन्मार्ग – अटवी में क्यों भटक रहे हो”? बस इतना सुनते ही सज्जन पर पत्थर-वर्षा होने लगी, साथ ही आपस में अंधो पर भी एक दूसरे के पत्थर बरसने लगे। अंधे आपस में ही लडकर समाप्त हो गये।
आपकी सुस्थापित श्रद्धा को चुराने के लिए, सेवा, परोपकार और सरलता का स्वांग रचकर ठग, आपकी आस्था को लूटेने के लिए तैयार बैठे है। यथार्थ दर्शन चिंतन के अभाव में हमारा ज्ञान भी अंध है। अज्ञान का अंधापा हो तो अस्थिर आस्था जल्दी विचलित हो जाती है। अज्ञानता के कारण ही अपने समृद्ध दर्शन की कीमत हम नहीं जान पाते। डगमग़ श्रद्धा को सरल-जीवन, सरल धर्म के पालन का प्रलोभन देकर आसानी से ठगा जा सकता है। विचलित विचारी को गलत मार्ग पर डालना बड़ा आसान है। आस्था टूट जाने के भय में रहने वाले ढुल-मुल अंधश्रद्धालु को सरलता से आपस में लडाकर खत्म किया जा सकता है।
अस्थिर आस्थाओं की ठग़ी ने आज जोर पकड़ा हुआ है। निष्ठा पर ढुल-मुल नहीं सुदृढ बनें।