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धर्म का उद्देश्य
आप क्या कहते हैं, धर्म लड़वाता है?
ईश्वर सबके अपने अपने रहने दो
ईश्वर हमारे काम नहीं करता…
कस्बे में जब बात आम हो गई कि उस ईश्वर की बुकलेट का मैने गहराई से अध्यन किया है। तो लोगों ने अपनी अपनी समस्या पर चर्चा हेतू एक सभा का आयोजन किया, और मुझे व्याख्याता के रूप में आमंत्रित किया। अपनी विद्वता पर मन ही मन गर्व करते हुए, मैं सभा स्थल पर आधे घंटे पूर्व ही पहुँच गया। सभी मुझे उपस्थित देखकर प्रश्न लेकर पिल पडे। सभी प्रश्नों के पिछे भाव एक ही था, उनका स्वयं का निष्कर्म स्वार्थ। बस यही कि ‘ईश्वर हमारे काम नहीं करता’।
आपने मान लिया जो वस्तुएं या बातें मानव को खुश करती है, बस वे ही बातें ईश्वर को खुश करती होगी। आप पूजा-पाठ-प्रसाद-कीर्तन-भक्ति यह मानकर अर्पित करते है कि वह खुश होगा और खुश होकर आपको बिना पुरूषार्थ के ही वांछित फल दे देगा। जब ऐसा नहीं होता तो आप रूठ जाते है और नास्तिक बन लेते है। पर इन सब बातों से उसे कोई सरोकार नहीं हैं। उसने तो सभी तरह से सशक्त, सुचारू, न्यायिक व क्रियाशील नियम लागू कर छोडे है। एक ऐसे पिता की वसीयत की तरह कि जो गुणवान सद्चरित्र पुरूषार्थी पुत्र होगा उसे उसी अनुसार लाभ मिलता रहेगा। जो अवगुणी दुश्चरित्र प्रमादी होगा उसे नुकसान भोगना होगा। दिखावा या शोर्टकट का किसी को कोई भी लाभ न होगा। प्रलोभन तो उसको चलेगा ही नहीं।
ईश्वर को देख के करना क्या है?
ईश्वर को देख के करना क्या है?
ईश्वर डराता है।
ईश्वर डराता है
जनाब नादान साहब को पता चला कि मैं ईश्वर की ऑफ़िस से बडा वाला प्रोस्पेक्टर ले आया हूँ। जिज्ञासावश वे भी चले आए। आते ही कहने लगे, ‘मैं भी उस कार्यालय का सदस्य बना हूँ’, लेकिन यार ‘ईश्वर डराता बहुत है’ मुझे फिर आश्चर्य हुआ, भई मेरे पास की बुकलेट में तो ऐसा कुछ नहीं है। वह तो दयालु है, भला डरायेगा क्यों। नादान साहब फट पडे, बोले ‘वही तो’…बात बात पे डराता है, क्यो?…मुझे भी समझ नहीं आ रहा। यह देख लो किताब। आपने तो वह बडी वाली उसके कायदे कानून की बुक पढ़ी है, आप ही बताएं। और अमां यार आप ईश्वर की फ़्रेचाईजी क्यों नहीं ले लेते। मैने टालते हुए कि इस फ़्रेचाईजी पर बाद में चर्चा करेंगे, पहले चलो कार्यालय चलते है, आपकी वह पुस्तिका साथ ले लो, उसी ऑफ़िसर से पूछेंगे, इस समस्या का कारण।
नादान साहब उसी हालात में अपने ‘घर’ छोडकर, अपने स्टडी-रूम में, मैं पुनः बडी बुकलेट पढ़नें में व्यस्त हो गया…
बादमें सुना कि नादान साहब ने एक रेश्मी कपडे में उस बुकलेट को जकड के बांध, उँची ताक पर सज़ा के रख दिया है, अब भी कभी उसे खोलने की आवश्यकता पडती है तो उनकी घिग्घी बंध जाती है।
ईश्वर रिश्वत लेते है?
ईश्वर रिश्वत लेते है
अबोध शाह आते ही कहने लगे- “ईश्वर रिश्वत लेते है” मुझे आश्चर्य हुआ, ईश्वर और रिश्वत? अबोध शाह ने विस्तार से बताया- अपने कस्बे के मध्य जो ईश्वरीय कार्यालय है, वहां मैं अपने आवश्यक कार्य के लिये गया था। वहाँ के ऑफिसर ने बताया इस काम के लिये माल तो देना ही पडेगा ‘हमारे उपरी ईश्वर को बडा हिस्सा पहुँचाना होता है’। मुझे विश्वास नहीं हुआ और उन्हें साथ लेकर हम पहुँच गये कार्यालय।
मेरी जिज्ञासा बलवती हो गई कि मुझे इस बुकलेट का अध्यन करना चाहिए, जैसे जैसे समझुंगा आपसे शेयर करूँगा…
धर्म का असर दिखाई नहीं पडता।
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धर्म का असर दिखाई नहीं पडता।
(यहां धर्म से आशय, अच्छे गुणो की शिक्षा देने वाला धर्म, न कि कोई निश्चित रूढ उपासना पद्दति।)
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धर्म का प्रभाव नहीं पडता।
पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कर्म प्रयोग सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है।पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती ही है। जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहीं सकता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कार्य संयोग स्वतः सम्भव है, व उस कारण अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।
पंच समवाय – कारणवाद (जो भी होता है,समय से?, स्वभाव से?भाग्य से?, कर्म से? या पुरूषार्थ से?)
कालवादी: कालवादी का मंतव्य होता है,जगत में जो भी कार्य होता है वह सब काल के कारण ही होता है, काल ही प्रधान है। समय ही बलवान है। सब काल के अधीन है,सभी कार्य समय आने पर ही सम्पन्न होते है।इसलिये काल (समय) ही एक मात्र कारण है।
नास्तिकता (धर्म- द्वेष) के कारण
व्यक्तिगत तृष्णाओं में लुब्ध व्यक्ति, समाज से विद्रोह करता है। और तात्कालिक अनुकूलताओं के वशीभूत, स्वेच्छा से स्वछंदता अपनाता है, समूह से स्वतंत्रता पसंद करता है। किन्तु समय के साथ जब समाज में सामुहिक मेल–मिलाप के अवसर आते है, जिसमे धर्मोत्सव मुख्य होते है। तब वही स्वछन्द व्यक्ति उस एकता और समुहिकता से कुढ़कर द्वेषी बन जाता है। उसे लगता है, जिस सामुहिक प्रमोद से वह वंचित है, उसका आधार स्रोत यह धर्म ही है, वह धर्म से वितृष्णा करता है। वह उसमें निराधार अंधविश्वास ढूंढता है, निर्दोष प्रथाओं को भी कुरितियों में खपाता है और मतभेदों व विवादों के लिये धर्म को जिम्मेदार ठहराता है। ‘नास्तिकता’ के मुख्यतः यही कारण होते है।