यह एक भ्रामक धारणा है कि भड़ास या क्रोध निस्तारण से तनाव मुक्ति मिलती है। उलट, क्रोध तो तनाव के अन्तहीन चक्र को जन्म देता है। क्योंकि भड़ास निकालने, आवेश अभिव्यक्त करने या क्रोध को मुक्त करने से प्रतिक्रियात्मक द्वेष ही पैदा होता है और द्वेष से तो वैर की परम्परा का ही सर्जन होता है। इस तरह प्रतिशोध की प्रतिपूर्ति के लिए व्यक्ति निरन्तर तनाव में रहता है। क्रोध का ईलाज आवेशों को मंद करके, क्रोध के शमन या दमन में ही है। क्षमा ही परमानेंट क्योर है। क्योंकि क्षमा ही वह शस्त्र है जो वैर के दुष्चक्र को खण्डित करता है। क्षमा के बाद किसी तरह के तनाव-बोझ को नहीं झेलना पड़ता। अर्थात् सहिष्णुता ही तनाव मुक्ति का उपाय है।
अहिंसा पर आम सोच बहुत ही सतही होती है। लोग गांधी के चिंतन, ‘दूसरा गाल सामने करने’ का परिहास करते है। वस्तुतः दूसरा गाल सामने करने का अभिप्राय है, धैर्यपूर्वक सहनशीलता से कोई ऐसा व्यवहार करना जिससे बदले की परम्परा प्रारम्भ होने से पहले ही थम जाय। ईट का जवाब पत्थर से देना तो तात्कालिक सरल और सहज है, किंतु निराकरण तो तब है जब हिंसा-प्रतिहिंसा की श्रंखला बनने से पूर्व ही तोड दी जाय। कईं लोगों के मानस में हिंसा और अहिंसा की अजीब अवधारणा होती है, वे सभी से हर हाल में अपने साथ तो अहिंसक व्यवहार की अपेक्षा रखते है, दूसरे किसी आक्रोशी को सहनशीलता का पाठ पढा लेते है, दूसरे लोगों के धैर्य सहित शिष्टाचार की भूरि भूरि प्रशंसा भी करते है। किन्तु अपने साथ पेश आती, जरा सी प्रतिकूलता का प्रतिक्रियात्मक हिंसा से ही जवाब देना उचित मानते है। सभी से सहिष्णु व्यवहार तो चाहते है, किन्तु अन्याय अत्याचार का जबाब तो त्वरित प्रतिहिंसा से ही देना उपयुक्त मानते है। हिंसा की प्रतिक्रिया हिंसा से न हो तो उसे कायरता मान बैठते है। अधैर्य से, सहिष्णुता एक ओर फैक कर, अतिशीघ्र क्रोध के अधीन हो जाते है और प्रतिहिंसा का दामन थाम लेते है। जबकि सबसे ज्यादा, उसी पल-परिस्थिति में क्षमा की आवश्यकता होती है। स्वार्थी सुध-बुध का आलम यह है कि यदि कोई उन्हें धैर्य की सलाह देकर, सहिष्णु बनने का आग्रह करे और अहिंसा अपनाने को प्रेरित करे तो उस सद्वचन में भी लोगों को आक्रमक वैचारिक हिंसा नजर आती है। ऐसे ही लोगों को क्षमा सदैव कायरता प्रतीत होती है। व प्रतिक्रियात्मक हिंसा ही उन्हें प्रथम व अन्तिम उपाय समझ आता है। यह सोच, प्रतिशोध शृंखला को जीर्ण शीर्ण नहीं होने देती और शान्ति का मनोरथ कभी भी पूर्ण नहीं हो पाता।
क्रोध प्रेरित द्वेष के साथ साथ, कभी-कभी ईर्ष्या जनित द्वेष भी पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों के कारण बनते है। राग की भाँति द्वेष भी अंधा होता है। राग हमको प्रेमपात्र के अवगुणों की ओर से अंधा कर देता है और द्वेष, अप्रिय पात्र के गुणों की ओर से। इसलिए प्रतिहिंसा न तो अन्याय अत्याचार रोकने का साधन है न प्रतिशोध और द्वेष के निवारण का समुचित उपाय। प्रत्येक सदाचरण कठिन ही होता है, अहिंसा और क्षमा भी कठिन राजमार्ग है, किसी भी परिस्थिति में समतावान व धैर्यवान ही इस महामार्ग पर चल पाते है। ‘मन की शान्ति’ तो निश्चित ही क्षमावान-सहिष्णु लोगों को ही प्राप्त होती है और वे ही इसके अधिकारी भी है।
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