इन आदर्श जीवन मूल्यों के विरूधार्थी दुष्कर्मो को अध्यात्म-दर्शन में पाप कहा जाता है। किंतु आज चाहे कैसी भी अनैतिकता हो, उसे पाप शब्द मात्र से सम्बोधित करना, लोगों को गाली प्रतीत होता है. सदाचार से पतन को पाप संज्ञा देना उन्हें अतिश्योक्ति लगता है. यह सोच आज की हमारी सुविधाभोगी मानसिकता के कारण है। किन्तु धर्म-दर्शन ने गहन चिंतन के बाद ही इन्हें पाप कहा है। वस्तुतः हिंसा, झूठ, कपट, परस्पर वैमनस्य, लालच आदि सभी, ‘स्व’ और ‘पर’ के जीवन को, बाधित और विकृत करने वाले दुष्कृत्य ही है। जो अंततः जीवन विनाश के ही कारण बनते है। अतः दर्शन की दृष्टि से ऐसे दूषणो को पाप माना जाना उपयुक्त और उचित है। हम हज़ारों वर्ष पुरानी सभ्यता एवं संस्कृति के वाहक है। हमारी सभ्यता और संस्कृति ही हमारे उत्तम आदर्शों और उत्कृष्ट जीवन मूल्यों की परिचायक है। यदि वास्तव में हमें अपनी सभ्यता संस्कृति का गौरवगान करना है तो सर्वप्रथम ये आदर्श, परंपराएं, मूल्य, मर्यादाएँ हम प्रत्येक के जीवन का, व्यक्तित्व का अचल और अटूट हिस्सा होना चाहिए। संस्कृति का महिमामण्डन तभी सार्थक है जब हम इस संस्कृति प्रदत्त जीवन-मूल्यों पर हर हाल में अडिग स्थिर बनकर रहें।
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उच्च आदर्श और जीवन-मूल्य धर्म का ढकोसला है। मात्र श्रेष्ठतावादी अवधारणाएं है। यह सब धार्मिक ग्रंथों का अल्लम गल्लम है। सभी पुरातन रूढियाँ मात्र है।
इस जीवन में, उस जीवन में
आस्तिक हो या नास्तिक, जिन्हें अपने विचारों पर संदेह रहित निष्ठा है, किंतु कर्म उनका निष्काम व यथार्थ सदाचरण है, स्वार्थवश शिष्टाचारों का पखण्ड नहीं है, भरमाने की धूर्तता नहीं है तो उसके दोनो हाथ में लड्डू है. यदि यही मात्र जीवन है तो वह सदाचार व त्यागमय व्यक्तित्व के कारण इस भव में प्रशंसित और पूर्ण संतुष्ट जीवन जी लेते है. और अगर जीवन के बाद भी जीवन है तो उन्ही त्यागमय सदाचारों के प्रतिफल में सुफल सुनिश्चित कर लेते है. जिसे कर्मफल ( बुरे का नतीजा बुरा, भले का नतीजा भला) में विश्वास है, चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में, किसी भी दशा में चिंतित होने की क्या आवश्यकता हो सकती है?
जो यह मानते है कि खाओ पीओ और मौज करो, यही जीवन है, उनके लिए अवश्य समस्या है. जिनका ‘मिलेगा नहीं दुबारा’ मानकर मनमौज और जलसे करना ही लक्ष्य है तो दोनो ही स्थिति में उनका ठगे जाना पक्का है. क्योंकि सद्कर्म पूर्णरूप से त्याग और आत्मसंयम में बसा हुआ है, और उसी स्थिति मेँ यथार्थ सदाचरण हो पाता है. जैसे अर्थ शास्त्र का नियम है कि यदि लाभ के रूप में हमारी जेब में एक रूपया आता है तो कहीं ना कहीं किसी की जेब से एक रूपया जाता ही है, कोई तो हानि उठाता ही है. भौतिक आनंद का भी बिलकुल वैसा ही है, जब हम अपने जीवन के लिए भौतिक आनंद उठाते है तो उसकी प्रतिक्रिया में कहीं न कहीं, कोई न कोई भौतिक कष्ट उठा ही रहा होता है. चाहे हमारी जानकारी में आए या न आए. लेकिन आत्मिक आनंद के साथ ऐसा नहीं है. क्योंकि आत्मिक आनंद, त्याग-संयम व संतोष से उपार्जित किया गया होता है.
यह यथोचित ही है कि इस जीवन को ऐसे जीना है, जैसे दुबारा नहीं मिलने वाला. वह इसलिए कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है, बार बार नहीं मिलता. किंतु इस जीवन की समाप्ति भी निश्चित है. मृत्यु अटल सत्य है. इसलिए जीते हुए भी इस सत्य की सतत स्मृति जरूरी है क्योंकि यह स्मृति ही सार्थक, निस्वार्थ, त्यागमय, संयमित सदाचरण का मार्ग प्रशस्त करती है. जिसका लाभ दोनो ही कंडिशन में सुखद रूप से सुरक्षित है.
धर्म पर छद्मावरण
नास्तिकता (धर्म- द्वेष) के कारण
व्यक्तिगत तृष्णाओं में लुब्ध व्यक्ति, समाज से विद्रोह करता है। और तात्कालिक अनुकूलताओं के वशीभूत, स्वेच्छा से स्वछंदता अपनाता है, समूह से स्वतंत्रता पसंद करता है। किन्तु समय के साथ जब समाज में सामुहिक मेल–मिलाप के अवसर आते है, जिसमे धर्मोत्सव मुख्य होते है। तब वही स्वछन्द व्यक्ति उस एकता और समुहिकता से कुढ़कर द्वेषी बन जाता है। उसे लगता है, जिस सामुहिक प्रमोद से वह वंचित है, उसका आधार स्रोत यह धर्म ही है, वह धर्म से वितृष्णा करता है। वह उसमें निराधार अंधविश्वास ढूंढता है, निर्दोष प्रथाओं को भी कुरितियों में खपाता है और मतभेदों व विवादों के लिये धर्म को जिम्मेदार ठहराता है। ‘नास्तिकता’ के मुख्यतः यही कारण होते है।
क्या हम कृतघ्न रहना चाह्ते है……
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नम्रता
भवन्ति नम्रास्तरवः फ़लोदगमैर्नवाम्बुभिर्भूमिविलम्बिनो घना:।अनुद्धता सत्पुरुषा: समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणम्॥
– जैसे फ़ल लगने पर वृक्ष नम्र हो जाते है,जल से भरे मेघ भूमि की ओर झुक जाते है, उसी प्रकार सत्पुरुष समृद्धि पाकर नम्र हो जाते है, परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा होता है।
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सर्वधर्म समान?
धर्म ने आदि काल से हमारे जीवन को प्रभवित किया है,हमारी समाज व्यवस्था को नियन्त्रित किया है,फ़िर क्यों न हम इस पर खुलकर चर्चा करें।
धर्म का शाब्दिक अर्थ है स्वभाव, स्व+भाव,स्वयं का आत्म-स्वभाव, अपनी आत्मा के स्वभाव में स्थिर होना, आत्मा का मूल स्वभाव अच्छा है,अतः अच्छे गुणों में रहना। धर्मों को वस्तुतः मार्ग या दर्शन कहना उचित है। दर्शनों ने मानव के व्यवहार को सुनिश्चित करने एवं समाज व्यवस्था को नियंन्त्रित करने के लिये कुछ नियम बनाए, उसे ही हम धर्म कहते है। यह स्वानुशासन हैं जिसमें स्वयं को संयमित रखकर नियन्त्रित करना होता है।
याद रहे अच्छाई बुराई का फ़र्क और सभ्यता इन्ही दर्शनों (धर्मों) की देन है अन्यथा हम किसी का अहित करके भी न समज़ पाते कि हमने बुरा किया। हमारी शब्दावली में व्याभिचार, बलात्कार, जुठ, चोरी, हिंसा आदि शब्दों के मायने ही न होते।
मानव मात्र को किसी भी अनुशासन में रहना अच्छा नहिं लगता, इसिलिये धर्म की बातों(नियमों) को हम अपने जिवन में अनावश्यक हस्तक्षेप मानते है। और हमारी इस मान्यता को दृढ करते है,वे अधकचरे ज्ञान के पोन्गापन्डित,जो ग्रन्थों से चार बातें पढकर उसका (पूर्वाग्रहयुक्त)मनमाना अर्थ कर भोले श्रद्धालुओं के लिये नियमावली गढते हैं। इन ज्ञानपंगुओं ने सुखकर धर्म को दुष्कर बना दिया हैं। हमारे पास बुद्धि होते हुए भी हमे जडवत रहने को अभिशप्त कर दिया हैं।
सर्वधर्म समान?
क्या कुदरत ने हमें सोचने समजने की शक्ति नहिं दी है? क्यों मानें हम सभी को समान? हमारे पास तर्कबुद्धि हैं,हम परिक्षण करने में सक्षम हैं,निर्णय लेने में समर्थ हैं। फ़िर कैसे बिना परखे कह दें कि सभी धर्म समान है। मानव है, कोई कोल्हू के बैल नहीं। हीरे और कोयले में अन्तर होता है, भले आप हमे मतिभृष्ट करने हेतू कह दें, दोनो ही कार्बन तत्व के बने है,पर हमें दोनों के उपयोग और कीमत की जानकारी हैं।
हां आपका आग्रह इसलिये है,कि धर्मो का मामला है,क्यों फ़साद खडा करना,हमारा दिल विशाल होना चाहिये। तो ठिक है, सर्वधर्म सद्भाव (द्वेषरहित), लेकिन सर्वधर्म सम्भाव या सर्वधर्म समान नहिं।।_______________________________________________________________________