हमारे गांव में एक फकीर घूमा करता था, उसकी सफेद लम्बी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डण्डा रहता था। चिथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढाला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर। कंधे पर पेबंदों से भरा झोला लिये रहता था। वह बार-बार उस गठरी को खोलता, उसमें बड़े जतन से लपेटकर रक्खे रंगीन कागज की गड्डियों को निकालता, हाथ फेरता और पुनः थेले में रख देता। जिस गली से वह निकलता, जहां भी रंगीन कागज दिखता बड़ी सावधानी से वह उसे उठा लेता, कोने सीधे करता, तह कर हाथ फेरता और उसकी गड्डी बना कर रख लेता।
फिर वह किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहा करता, “ये मेरे प्राण हैं।” कभी कहता, “ये रुपये हैं। इनसे गांव के गिर रहे अपने किले का पुनर्निर्माण कराऊंगा।” फिर अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरकर स्वाभिमान से कहता, “उस किले पर हमारा झंडा फहरेगा और मैं राजा बनूंगा।”
गांव के बालक उसे घेरकर खड़े हो जाते और हँसा करते। वयस्क और वृद्ध लोग उसकी खिल्ली उड़ाते। कहते, पागल है, तभी तो रंगीन रद्दी कागजों से किले बनवाने की बात कर रहा है।
मुझे अनुभूति हुई कि हम भी तो वही करते है। उस फकीर की तरह हम भी रंग बिरंगे कागज संग्रह करने में व्यस्त है और उनसे दिवास्वप्न के किले बनाने में संलग्न है। पागल तो हम है जिन सुखों के पिछे बेतहासा भाग रहे है अन्तत: हमें मिलता ही नहीं। सारे ही प्रयास निर्थक स्वप्न भासित होते है। फकीर जैसे हम संसार के प्राणियों से कहता है, “तुम सब पागल हो, जो माया में लिप्त, तरह-तरह के किले बनाते हो और सत्ता के सपने देखते रहते हो, इतना ही नही अपने पागलपन को बुद्धिमत्ता समझते हो”
ऐसे फकीर हर गांव- शहर में घूमते हैं, किन्तु हमने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है और कान बंद कर लिये हैं। इसी से न हम यथार्थ को देख पाते हैं, न समझ पाते हैं। वास्तव में पागल वह नहीं, हम हैं।
दीर्घतमा
29/11/2012 at 1:01 पूर्वाह्न
बहुत अच्छी कथा समाज को याना दिखने की कोशिश ——!
शालिनी कौशिक
29/11/2012 at 1:09 पूर्वाह्न
बहुत सही कह रहे हैं आप .सार्थक प्रस्तुति आभार . .आत्महत्या -परिजनों की हत्या
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
29/11/2012 at 6:09 पूर्वाह्न
मोह हमसे नहीं चिपका, हम मोह से चिपके हुए हैं| चाहें तो इन फकीरों की हालत से बहुत कुछ सीखा जा सकता है: बोधयन्ति न याचन्ते भिक्षाद्वारा गृहे गृहे । दीयतां दीयतां नित्यमदातुः फलमीदृशम् ॥
वाणी गीत
29/11/2012 at 8:29 पूर्वाह्न
करना फकीरी फिर क्या डरना , सदा मगन में रहना जी …मगर सभी के लिए बिना सपनों के जीवन को गति मिले भी कैसे !!
प्रवीण पाण्डेय
29/11/2012 at 9:25 पूर्वाह्न
हम भी धन से सुख के किले बनाने का स्वप्न देखते रहते है..
smt. Ajit Gupta
29/11/2012 at 9:56 पूर्वाह्न
भगवान में हमें स्वस्थ मन और स्वस्थ तन दिया है फिर भी हम मानसिक रोगी की तरह न जाने क्या पाने के लिए दिन रात दौड़ रहे हैं। कभी अन्त नहीं होता इस पाने का।
ज्ञानचंद मर्मज्ञ
29/11/2012 at 10:27 पूर्वाह्न
जीवन का यही यथार्थ है ! सब इसी में उलझे हुए हैं !
रविकर
29/11/2012 at 10:31 पूर्वाह्न
जोड़-गाँठ कर तह करे, जीवन चादर क्षीण ।बाँध-बूँध कर लें छुपा, विचलित मन की मीन । विचलित मन की मीन, जीन का किया परीक्षण ।बढ़े लालसा काम, काम नहिं आवे शिक्षण ।नोट जमा रंगीन, सीन को चूमे रविकर ।'पानी' मांगे मीन, मरे पर जोड़-गाँठ कर ।
सदा
29/11/2012 at 1:19 अपराह्न
बहुत ही अच्छी बोध कथा … आभार आपका इसे प्रस्तुत करने के लिये
रविकर
29/11/2012 at 5:54 अपराह्न
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
29/11/2012 at 7:57 अपराह्न
सुज्ञ जी!एक अंतराल के उपरांत आपकी यह पोस्ट पढने को मिली. बहुत ही सुन्दर दृष्टांत इस कथा के माध्यम से. याद आई एक कथा. दो फ़कीर थे, एक साथ घूमते गाँव-गाँव. एक ऐसे ही रंगीन टुकड़े रखता ज़रूरत के लिए. दूसरा हाथ में रंगीन कागज़ आते ही उसे स्वयं से अलग कर देता. उसका मानना था कि त्याग से ही लक्ष्य पाया जा सकता है. एक रात जंगल के बीच नदी पार करनी थी. केवट ने रंगीन कागज़ का टुकड़ा माँगा. पहले ने दे दिया और दूसरे से बोला- देखा इसी दिन के लिए कहता था सब-कुछ मत त्यागो. आज यह टुकड़ा न होता तो कैसे पार होते.दूसरे ने उत्तर दिया कि यह नदी भी हमने इसी लिए पार की है कि तुमने उन रंगीन टुकड़ों का त्याग किया. संचय करते तो न पार होते. और मेरे पास त्यागने को न था कुछ इसलिए मैं भी नहीं पार हो पाता.आवश्यकता है कि संचय के साथ त्यागने की प्रक्रिया भी समझ में आये. फिर तो दुनिया उन रंगीन टुकड़ों से भी अधिक रंगीन दिखाई देगी!!
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
29/11/2012 at 10:10 अपराह्न
बेहतरीन प्रेरक बोध कथा,,,आभार resent post : तड़प,,,
Virendra Kumar Sharma
29/11/2012 at 11:00 अपराह्न
.माया तू न गई मेरे मन से /माया तेरे तीन नाम ,परसी पर्सा ,परसराम /माया महा ठगनी हम जानी …कोई सुने तब न एक ओब्सेसन है माया ….भ्रम है हेलुसिनेसन है ,सटीक पोस्ट .
संजय @ मो सम कौन ?
29/11/2012 at 11:08 अपराह्न
जिन साँचों में हम ढले हैं, उनसे अलग साँचों वाले जीव पागल ही दिखते हैं। समझ समझ का फ़ेर है।
संजय @ मो सम कौन ?
29/11/2012 at 11:09 अपराह्न
सलिल भाई, मरहबा मरहबा।टिप्पणी हो तो ऐसी हो, ….:)
सुज्ञ
29/11/2012 at 11:34 अपराह्न
संजय बाउजी,क्या खाक टिप्पणी ऐसी हो… :)किसी गरीब की एक फ़कीरी पोस्ट पर भारी, दो फ़कीर जड दिए….यह तो वही बात हो गई, सिगरेट एक नही दो थी.सलिल भाई,भई तमे तो काठियावाडी वज़न मुक्युँ!! टिप पोस्ट पर भारे छे. संतुलन बोध कथा के लिए आभार!!
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
29/11/2012 at 11:40 अपराह्न
दोनों भाईयों का आभार!! इसे कहते हैं ज्योत से ज्योत जलाना.. क्या भारी क्या हल्की!!
संजय @ मो सम कौन ?
30/11/2012 at 12:28 पूर्वाह्न
:):))
Rajesh Kumari
30/11/2012 at 1:12 अपराह्न
एक सच्ची राह दिखाने वाली बोध कथा बहुत पसंद आई बहुत बहुत आभार साझा करने के लिए
kapoor jain
30/11/2012 at 6:24 अपराह्न
अति सुंदर कथा भाई साहब ..
Archana
01/12/2012 at 7:26 पूर्वाह्न
ह्म्म्म…
Archana
01/12/2012 at 7:29 पूर्वाह्न
ह्म्म्म..
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
01/12/2012 at 10:13 पूर्वाह्न
🙂
Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता
01/12/2012 at 4:08 अपराह्न
🙂
Alpana Verma
24/06/2013 at 9:48 अपराह्न
कितना सच लिखा है .हम इस पागलपन को बुद्धिमता समझ लेते हैं और अपनी ऊर्जा और कीमती समय इस में गवां देते हैं .समय रहते तो चेत जाए उसे किस्मतवाला समझें.