मानव ही क्यों, प्राणीमात्र में मुख्यतः ‘जिजीविषा’ और ‘विजिगीषा’ दो वृतियाँ कार्यशील होती है। अर्थात् जीने की और जीतने की इच्छा। दीर्घकाल तक जीने की और ऐश्वर्यपूर्वक दूसरों पर अधिपत्य जमाने की स्वभाविक इच्छा मनुष्य मात्र में पाई जाती है। वस्तुतः ‘जीने’ की इच्छा ही ‘जीतने’ की इच्छा को ज्वलंत बनाए रखती है। एक छोटे से ‘जीवन’ के लिए, क्या प्राणी क्या मनुष्य, सभी आकाश पाताल एक कर देते है।
भौतिकवादी प्राय: इस ‘जीने’ और ‘जीतने’ के आदिम स्वभाव को, प्रकृति या स्वभाविकता के नाम पर संरक्षण और प्रोत्साहन देने में लगे रहते है। वे नहीं जानते या चाहते कि इस आदिम स्वभाव को सुसंस्कृत किया जा सकता है या किया जाय। इसीलिए प्राय: वे सुसंस्कृतियों का विरोध करते है और आदिम इच्छाओं को प्राकृतिक स्वभाव के तौर पर आलेखित/रेखांकित कर उसे बचाने का भरपूर प्रयास करते है। इसीलिए वे संस्कृति और संयम प्रोत्साहक धर्म का भी विरोध करते है। वे चाहते है मानव सदैव के लिए उसी जिजीविषा और विजिगीषा में लिप्त रहे, इसी में संघर्ष करता रहे, आक्रोशित और आन्दोलित बना रहे। जीने के अधिकार के लिए, दूसरों का जीना हराम करता रहे। और अन्ततः उसी आदिम इच्छाओं के अधीन अभिशप्त रहकर हमेशा अराजक बना रहे। ‘पाखण्डी धर्मान्ध’ व ‘लोभार्थी धर्मद्वेषियों’ ने विनाश का यही मार्ग अपनाया हुआ है।
दुर्भाग्य से “व्यक्तित्व विकास” और “व्यक्तिगत सफलता” के प्रशिक्षक भी इन्ही वृतियों को पोषित करते नजर आते है। इसीलिए प्रायः ऐसे उपाय नैतिकता के प्रति निष्ठा से गौण रह जाते है।
वस्तुतः इन आदिम स्वभावों या आदतों का संस्करण करना ही संस्कृति या सभ्यता है। धर्म-अध्यात्म यह काम बखुबी करता है। वह ‘जीने’ के स्वार्थी संघर्ष को, ‘जीने देने’ के पुरूषार्थ में बदलने की वकालत करता है। “जीओ और जीने दो” का यही राज है। बेशक! आप जीने की कामना कर सकते है, किन्तु प्रयास तो ‘जीने देने’ का ही किया जाना चाहिए। उस दशा में दूसरो का भी यह कर्तव्य बन जाएगा कि वे आपको भी जीने दे। अन्यथा तो गदर मचना निश्चित है। क्योंकि प्रत्येक अपने जीने की सामग्री जुटाने के खातिर, दूसरो का नामोनिशान समाप्त करने में ही लग जाएंगा। आदिम जंगली तरीको में यही तो होता है। और यही विनाश का कारण भी है। जैसे जैसे सभ्यता में विकास आता है ‘जीने देने’ का सिद्धांत ‘जीने की इच्छा’ से अधिक प्रबल और प्रभाव से अधिक उत्कृष्ट होते चला जाता है। दूसरी ‘जीतने की इच्छा’ भी अधिपत्य जमाने की महत्वाकांक्षा त्याग कर, दिल जीतने की इच्छा के गुण में बदल जाती है।
(जिजीविषा-सहयोग) सभी को सहजता से जीने दो।
( हृदय-विजिगीषा) सभी के हृदय जीतो।
सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
रश्मि प्रभा...
08/10/2012 at 10:49 अपराह्न
विजिगीषा ही रह गई है और उसके लिए साम दाम दंड भेद ….सब
संजय @ मो सम कौन ?
08/10/2012 at 11:31 अपराह्न
स्व को पीछे रखकर सर्व को आगे रखने का संस्कार देने वाली ही सही संस्कृति हो सकती है लेकिन भौतिकवाद का बढ़ता प्रभाव इस स्थिति को उलटाये दे रहा है। इस काम में बाजार भी उनका साथ देता है और मीडिया भी।
प्रवीण पाण्डेय
09/10/2012 at 9:20 पूर्वाह्न
इन दो प्रवृत्तियों से ही संसार का आकार बना रहता है।
Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता
09/10/2012 at 10:08 पूर्वाह्न
सच कह रहे हैं आप. और जब नई जनरेशन टीवी आदि पर, स्वार्थ को लगातार स्मार्ट के रूप में परोसा जाता देखे, तो वही सही मानने लगती है ..
सदा
09/10/2012 at 12:25 अपराह्न
भौतिकवादी प्राय: इस जीने और जीतने के आदिम स्वभाव को प्रकृति या स्वभाविकता के नाम पर संरक्षण और प्रोत्साहन देने का प्रयास करते है वे नहीं जानते या चाहते कि इस आदिम स्वभाव को सुसंकृत किया जा सकता है या किया जाय। इसीलिए प्राय: वे सुसंस्कृतियों का विरोध करते है बिल्कुल सही … सादर
Arvind Mishra
09/10/2012 at 7:23 अपराह्न
यह सर्वथा अलग विचार है -ना त्वहम कामये राज्यम ना स्वर्गम ना पुनर्भवं कामये दुःख तप्तानाम प्राणीनाम आर्त नाशनं
सतीश सक्सेना
11/10/2012 at 9:51 पूर्वाह्न
सभी को सहजता से जीने दो (जिजीविषा-सहयोग)सभी का दिल जीतो ( हृदय-विजिगीषा)यह लेख महत्वपूर्ण है भाई जी ! आभार आपका !
Alok Mohan
11/10/2012 at 2:31 अपराह्न
(जिजीविषा-सहयोग) सभी को सहजता से जीने दो।( हृदय-विजिगीषा) सभी के हृदय जीतो।सुंदर और प्रभावशाली
सुज्ञ
11/10/2012 at 3:07 अपराह्न
संजय जी,सही पकड़ा, भौतिकवाद और भोगवाद इसे ज्वलंत समस्या बनाए हुए है।
सुज्ञ
11/10/2012 at 3:09 अपराह्न
इन दो प्रवृत्तियों का संस्कार हो तो संसार सुखी बने।
सुज्ञ
11/10/2012 at 3:13 अपराह्न
विजिगीषा के निमित प्रतिस्पर्धा से ही अहंकार उत्पन्न होता हैऔर अहंकार साम दाम दंड भेद को उकसाता है।
सुज्ञ
11/10/2012 at 3:14 अपराह्न
सटीक रेखांकित किया आपने!! आभार!!
सुज्ञ
11/10/2012 at 3:15 अपराह्न
आभार अरविन्द जी,प्राणीमात्र के दुखांत की अपेक्षा से यह अभिन्न विचार है।
सुज्ञ
11/10/2012 at 3:17 अपराह्न
आभार तो भाई जी आपका, एक विचार को महत्वपूर्ण होने का श्रेय दिया।
सुज्ञ
11/10/2012 at 3:21 अपराह्न
आलोक जी, आपका बहुत बहुत आभार, सराहना के लिए
Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता
16/10/2012 at 10:34 पूर्वाह्न
आज नवरात्रि की बैठकी है – सभी को बहुत बहुत सी बधाईयाँ और शुभकामनायें 🙂 🙂 🙂
Kumar Radharaman
01/11/2012 at 3:02 अपराह्न
जीने के लिए कुछ भी जीतना ज़रूरी नहीं है। सब हार जाएं,इसी में जीत है और हमारे होने का मतलब भी।
Suman
03/11/2012 at 7:25 अपराह्न
जीवन का महत्व जिसे समझ में आ गया है वही व्यक्ति खुद भी जीता है और दूसरों को भी जीने देता है ! सहजता से जीने देने में ही दूसरों का ह्रदय भी अनायास जीत लेता है !
alka sarwat
12/11/2012 at 12:53 अपराह्न
दोनों ही जरूरी है चैन के लिए ,आखिर शत्रु मर जाएगा तो हम शत्रुता किस से करेंगे .
Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार
13/11/2012 at 7:11 अपराह्न
ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ♥~*~दीपावली की मंगलकामनाएं !~*~♥ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜसरस्वती आशीष दें , गणपति दें वरदान लक्ष्मी बरसाएं कृपा, मिले स्नेह सम्मान**♥**♥**♥**● राजेन्द्र स्वर्णकार● **♥**♥**♥**ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ