मिथिला में एक बड़े ही धर्मात्मा एवं ज्ञानी राजा थे। राजकाज के विभिन्न कार्य और राजमहल के भारी ठाट-बाट के उपरांत भी वे उसमें लिप्त नहीं थे। राजॠषि की यह ख्याति सुनकर एक साधु उनसे मिलने आया। राजा ने साधु का हृदय से स्वागत सम्मान किया और दरबार में आने का कारण पूछा।
साधु ने कहा, “राजन्! सुना है कि इतने बड़े महल में आमोद प्रमोद के साधनों के बीच रहते हुए भी आप इनके सुखोपभोग से अलिप्त रहते हैं, ऐसा कैसे कर पाते है? मैंने वर्षों हिमालय में तपस्या की, अनेक तीर्थों की यात्राएं कीं, फिर भी मन को इतना नहीं साध सका। जबकि संसार के श्रेष्ठतम सुख साधन व समृद्धि के सहज उपलब्ध रहते यह बात आपने कैसे साध ली?”
राजा ने उत्तर दिया, “महात्माजी! आप असमय में आए हैं। यह मेरे काम का समय है। आपके सवाल का जवाब मैं थोड़ी देर बाद ही दे पाउँगा। तब तक आप इस राजमहल का भ्रमण क्यों नहीं कर लेते? आप इस दीये को लेकर पूरा महल देख आईए। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि दीया बुझने न पाए, अन्यथा आप रास्ता भटक जाएंगे।”
साधु दीया लेकर राजमहल को देखने चल दिए। कईं घन्टे बाद जब वे लौटे तो राजा ने मुस्करा कर पूछा, “कहिए, महात्मन् ! मेरा महल कैसा लगा?”
साधु बोला, “राजन्! मैं आपके महल के हर भाग में गया। सब कुछ देखा, किन्तु फिर भी वह अनदेखा रह गया।”
राजा ने पूछा, “क्यों?”
साधु ने कहा, “राजन्! मेरा सारा ध्यान इस दीये पर लगा रहा कि कहीं यह बुझ न जाय!”
राजा ने उत्तर दिया, “महात्माजी! इतना बड़ा राज चलाते हुए मेरे साथ भी यही होता है। मेरा सारा ध्यान अपनी आत्मा पर लगा रहता है। कहीं मेरे आत्मज्ञान की ज्योति मंद न हो जाय। किसी अनुचित कर्म की तमस मुझे घेर न ले, अन्यथा मैं मार्ग से भटक जाउंगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते, कार्य करते यह बात स्मृति में रहती है। मेरा ध्यान चेतन रहता है कि सुखोपभोग के प्रलोभन में कहीं मै अपने आत्म को मलीन न कर दूँ। इसलिए साक्षी भाव से सारे कर्तव्य निभाते हुए भी संसार के मोहजाल से अलिप्त रह पाता हूँ।
साधु राजा के चरणों में नत मस्तक हो गया। आज उसे नया ज्ञान प्राप्त हुआ था, आत्मा की सतत जागृति, प्रतिपल स्मृति ही अलिप्त रहने में सहायक है।
Arvind Mishra
21/08/2012 at 7:50 अपराह्न
आत्मदीपो भव !
रविकर फैजाबादी
21/08/2012 at 8:04 अपराह्न
पावन साक्षी भाव से, आत्म दीप का तेज |राजकर्म कर चाव से, ज्योति रखूं सहेज |ज्योति रखूं सहेज, कार्य पूरा करना है |लोभ हर्ष उपभोग, मोह में न पड़ना है |नियत कार्य कर पूर्ण, मानता कर ली पूजा |वाह अलिप्त विदेह, यहाँ तुम सम न दूजा ||
संतोष त्रिवेदी
21/08/2012 at 8:08 अपराह्न
…बहुत सहजता से सीख मिल गई !
सुशील
21/08/2012 at 8:14 अपराह्न
समझ में आ गया !अब दिया एक लेकर आना पडे़गाअंदर कैसे ले जायें अपने उसकोआपको बाद में बताना पडे़गा!
dheerendra
21/08/2012 at 8:33 अपराह्न
प्रेरक सीख देती बेहतरीन कहानी,,,,,RECENT POST …: जिला अनूपपुर अपना,,,
संजय @ मो सम कौन ?
21/08/2012 at 8:40 अपराह्न
यह साक्षी भाव या निर्लिप्तता ही सध जाए तो फिर साधने को क्या शेष?
शालिनी कौशिक
21/08/2012 at 8:47 अपराह्न
nice presentation.aabhar जनपद न्यायाधीश शामली :कैराना उपयुक्त स्थान
expression
21/08/2012 at 8:54 अपराह्न
बहुत सुन्दर…कुछ ऐसी ही कहानी नारद मुनि एक किसान और विष्णुजी की थी..कि कौन भक्त बड़ा…क्यूंकि किसान पूरे समय हरिजाप करता रहता…और देवर्षि नारद तो जपते ही थे…तब भगवन ने उन्हें सर पर तेल का मटका रख चलने को कहाँ….:-)अच्छा लगता है प्रेरक लघु कथाएं पढ़ना.आभारअनु
सतीश सक्सेना
21/08/2012 at 9:45 अपराह्न
वाह …
डॉ॰ मोनिका शर्मा
21/08/2012 at 11:05 अपराह्न
सरल ,सहज, प्रेरणादायी
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
21/08/2012 at 11:22 अपराह्न
सुज्ञ जी,बहुत ही प्रेरक प्रसंग.. गाँव में सिर पर घडा लिए पानी भरकर लौटती हुई महिलाओं को देखिये.. बातें करती, हँसी मजाक करती, चुहलबाजियाँ करती पनघट से लौटती हैं.. सिर पर पानी से भरा घडा, बिना किसी सहारे के.. तमाम गतिविधियों के मध्य ध्यान घड़े पर.. यही तो है ध्यान, अलिप्तता!!
शिखा कौशिक 'नूतन '
21/08/2012 at 11:58 अपराह्न
kash hamare नेता भी इस पोस्ट को padhen aur apne aacharan में parivartan laye to desh का bhala ho jaye .sarthak पोस्ट hetu आभार
राजेश सिंह
21/08/2012 at 11:59 अपराह्न
ऐसी बात राजा जनक के बारे में भी कुछ ऐसा ही कहा जाता है "विदेह"
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
22/08/2012 at 9:23 पूर्वाह्न
प्रेरक कथा। सावधानी हटी दुर्घटना घटी, सतत सजगता की आवश्यकता है।
प्रवीण पाण्डेय
22/08/2012 at 9:25 पूर्वाह्न
सच है, कुछ भी हो, आत्मा की ज्योति मंद नहीं पड़नी चाहिये।
देवेन्द्र पाण्डेय
22/08/2012 at 10:14 पूर्वाह्न
प्रेरक प्रसंग।
रश्मि प्रभा...
22/08/2012 at 10:51 पूर्वाह्न
जब तक रास्ते अपने नहीं होते … प्रश्न व्यर्थ , अनुमान व्यर्थ
kunwarji's
22/08/2012 at 3:04 अपराह्न
एक रोचक और प्रेरित करता प्रसंग आपने यहाँ प्रस्तुत किया!आभार! कुँवर जी,
दिगम्बर नासवा
22/08/2012 at 3:05 अपराह्न
प्रेरक प्रसंग … एकाग्रता जरूरी है किसी भि काम में … और कार्य की सफलता भी उसी पर निर्भर करती है …
Suman
22/08/2012 at 6:47 अपराह्न
आत्मा की सतत जागृति, प्रतिपल स्मृति ही अलिप्त रहने में सहायक है।सही कहा है …..
अमित श्रीवास्तव
22/08/2012 at 10:30 अपराह्न
ज्ञानवर्धक
Amit Sharma
23/08/2012 at 12:11 अपराह्न
तभी तो नाम विदेह पड़ा था उनका ……. हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक !
प्रतुल वशिष्ठ
23/08/2012 at 2:23 अपराह्न
@ आज कुछ ब्लॉग पढ़े …. लेकिन 'अलिप्तता' गुण के कारण से प्रतिक्रिया नहीं दी. मन के सरोवर में खिला अरविन्द तो जल से अलिप्त रहा लेकिन ब्लॉगजगत का अरविन्द जल'न से अलिप्त नहीं लगा.पढ़ते (घूमते) हुए हमेशा इस बात का ध्यान बना रहा कि कहीं 'स्नेह' दीप बुझ न जाये. मेरी इस अलिप्तता ने मुझ तक आती राहें बंद नहीं की हैं. सभी के लिये खुली हैं. फिर भी अब तो बहुतेरे मुझ माफिक (अलिप्त) हो चले हैं… उपदेश भी अपने सत्संग भवन की छत से ही देना पसंद करते हैं. प्रतीत होता है….इस 'अलिप्तता' का एक बड़ा कारण 'शांत विरक्ति'न होकर 'मूक तटस्थता' हो चला है.
सुज्ञ
23/08/2012 at 2:54 अपराह्न
प्रतुल जी,जब हम किसी को नाम लेकर लिप्त कहें तो कहाँ गई हमारी अलिप्तता? 'स्नेह' दीप है तो प्रकाश बिना पक्षपात सभी जगहों को समान उजागर करता है।'शांत विरक्ति'और'मूक तटस्थता'दोनो ही 'अलिप्तता' के पोषक है, जब ज्ञात हो जाए कि लेप पंक सभी तरफ अहंकार से ही बज़बज़ा रहा हो तो अलिप्तता के लिए मूक तटस्थता ही मार्ग शेष रह जाता है।
प्रतुल वशिष्ठ
24/08/2012 at 3:51 अपराह्न
जब हम किसी को नाम लेकर लिप्त कहें तो कहाँ गई हमारी अलिप्तता? @ 'मौन' अथवा 'शांति' के लिये भी 'मौन' व 'शांति' को भंग करना होता है. शांति की प्रार्थना के लिये उसका पाठ ही किया जाता है. अर्थात कुछ 'स्वरों' का उच्चारण कभी अशांति का वाचक नहीं होगा.'अलिप्तता' में भी यदि 'क्षणिक लिप्तता' दर्शित होती हो तो क्या वह त्याज्य मानी जाये?"मौन भंग, मौन संग." सूत्र (राह) पर चलने वाले 'स्नेह दीप' भी नहीं बुझने देते और विरोधी स्वर भी उच्चारते हैं.कॉलेज के दिनों की बात है … एक साथी को छात्र चुनाव में खड़ा किया.. लेकिन हम 'पोस्टर बेनर और पर्चे' के खिलाफ थे… लेकिन अपनी इस सोच को सभी मतदाता छात्रों तक पहुँचाने के लिये हमने खुद 'पोस्टर और पर्चे' छपवाए.उनपर लिखवाया… "पोस्टर बेनर पर्चे, बढ़ा देते हैं खर्चे" आइये हम फिजूलखर्ची रोकें और छात्रहित के कार्यो पर ध्यान केन्द्रित करें.आदि-आदि.कहने का तात्पर्य कि जिस 'अवधारणा' का विरोध करना हो जरूरी नहीं कि उसके विरोध में उसे ही हथियार न बनाया जाये.लोहे को आकार देने के लिये लोहे से ही चोट दी जाती है. "विषस्य विष्मौषधं"यदि विष की चिकित्सा करनी हो तो औषध रूप में 'विष' से दूरी बना पाना क्या संभव होगा?
सुज्ञ
24/08/2012 at 4:19 अपराह्न
@ लोहा लोहे को काटता है……"विषस्य विष्मौषधं"अब यह मुहावरे चिकित्सा ध्येय नहीं रहे… :)विष का उपचार यह भी है एक तरफ खडे रहकर धैर्य से वमन हो जाने का इन्तजार करना। :)फिर भी थोडा असर बच जाय तो शीतल गरिष्ट घी पिलाना। :)'होश में रखना', 'सोने न देना' :)आग बुझाने के लिए कभी आग काम नहीं करती जल ही करता है।तेज जल की धार भी लोहे को काट देती है।आग में तपा तपा कर लोहे के औजार को धार दी जाती है, पानी में थोडा सा रखो, धार कुंद हो जाती है 🙂