धन, सम्पत्ति, सुख-सुविधा और कीर्ती प्राप्त करनें के बाद भी जीवन में असंतोष की प्यास शेष रह जाती है। कारण कि जीवन में शान्ति नहीं सधती। और आत्म का हित शान्ति में स्थित है। आत्मिक दृष्टि से सदाचरण ही शान्ति का एक मात्र उपाय है।
धर्माचरण अपने शुद्ध रूप में सदाचरण ही है। धर्म की परिभाषा है ‘वत्थुसहावो धम्मो ’ अर्थात् वस्तु का ‘स्वभाव’ ही धर्म है। स्वभाव शब्द में भी बल ‘स्व’ पर है ‘स्व’ के भाव को स्वभाव कहते है। यदि हमारा स्वभाव ही धर्म है तो प्रश्न उठता है, हमारा स्वभाव क्या है? हम निश दिन झूठ बोलते है, कपट करते है, येन केन धन कमाने में ही लगे रहते है अथवा आपस में लड़ते रहते है, क्या यह हमारा स्वभाव है? हम क्रोध करते है, लोभ करते है, हिंसा करते है, क्या यह हमारा स्वभाव है? वास्तव में यह हमारा स्वभाव नहीं है। क्योंकि प्रायः हम सच बोलते है मात्र लोभ या भयवश झूठ बोलते है। यदि हम दिन भर क्रोध करें तो जिंदा नहीं रह सकते। थोडी देर बाद जब क्रोध शान्त हो जाता है, तब हम कहते है कि हम सामान्य हो गए। अतः हमारी सामान्य दशा क्रोध नहीं, शान्त रहना है। क्रोध विभाव दशा है और शान्त रहना स्वभाव दशा है। अशान्ति पैदा करने वाले सभी आवेग-आवेश हमारी विभाव दशा है। शान्तचित सदाचार में रत रहना ही हमारा स्वभाव है। और ‘स्वभाव’ में रहना ही हमारा धर्म है।
धर्म की यह भी परिभाषा है “यतस्य धार्यती सः धर्मेण ” धारण करने योग्य धर्म है। यह भी स्वभाव अपेक्षा से ही है। सदाचार रूप ‘स्वभाव’ को धारण करना ही धर्म है। इसिलिए यह निर्देश है कि स्वभाव में स्थिर रहो। यही तो धर्म है। और हमारा शाश्वत स्वभाव, सदाचरण ही है। क्योंकि लक्षित शान्ति ही है।
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अनुपमा त्रिपाठी...
24/07/2011 at 4:41 अपराह्न
sargarbhit ..shantisandesh deta hua alekh ..bahut badhia..
ajit gupta
24/07/2011 at 4:41 अपराह्न
बहुत श्रेष्ठ बात।
रश्मि प्रभा...
24/07/2011 at 5:17 अपराह्न
waah… anukarniye saar
JC
24/07/2011 at 5:46 अपराह्न
प्राचीन 'हिन्दू' अजन्मी और अनंत शक्ति रुपी 'शिव' को ही ब्रह्माण्ड का सत्व यानी सत्य और सुन्दर कह गए… शिव को ध्वनि ऊर्जा अथवा नादब्रह्म ॐ, और भूतनाथ भी कह, उनका निवास कैलाश-मानसरोवर दर्शा, उन के साकार रूपों में उपस्थित पांच भूत दर्शा गए, पंचाक्षर मन्त्र ॐ न-म:-शि-वा-य द्वारा… जिनमें न = नभ यानि 'आकाश'; म: = महि, यानि गंगाधर 'पृथ्वी'; शि = शिखी, यानि 'अग्नि' अथवा ऊर्जा; वा = 'वायु' यानि वातावरण अर्थात अंतरिक्ष रुपी शून्य; य = यमुना, यानि धरा पर आम गंगा की तुलना में प्रदूषित नदी / तालाब आदि में भंडारित पेय 'जल'…"जहां न पहुंचे रवि / वहां पहुंचे कवि" का सत्यापन करते, कालान्तर में, 'मेरे' मन में लगभग १३ वर्ष की आयु में पहली बार मानसरोवर के प्रतिरूप 'नैनीताल' के स्थिर और शांत सतही जल पर फेंके गए कंकड़ द्वारा उठती तरंगों और थोड़े से समय में फिर से स्थिर होते जलस्तर ने 'मुझे' मानव मस्तिष्क में किसी एक शब्द द्वारा ही उठते अनंत विचारों को समझाने का काम किया! और गीता में क्यों कृष्ण को योगियों ने उपदेश देते दर्शाया की मानव को दृष्ट भाव से जीवन यापन करना चाहिए, हर स्थिति में स्थितप्रज्ञ रह…
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)
24/07/2011 at 7:55 अपराह्न
बहुत ही उपयोगी आलेख।
रविकर
24/07/2011 at 7:56 अपराह्न
बहुत सुन्दर सन्देश ||बधाई ||
मनोज कुमार
24/07/2011 at 7:57 अपराह्न
पहले तो एक बहुत ही अच्छी और नयनाभिराम टेम्प्लेट के लिए बधाई स्वीकारें।दूसरे उतने ही मन को भाने वाली आलेख के लिए।और तीसरे कि मैं तो उसे ही धर्म मानता हूं जो मुझे इंसानियत के पथ पर चलना सिखाए।
Kunwar Kusumesh
24/07/2011 at 8:27 अपराह्न
बहुत ही प्रेरक बातें .
सतीश सक्सेना
24/07/2011 at 9:04 अपराह्न
अनुकरणीय सन्देश है इस पोस्ट में …आभार आपका भाई जी !
Arvind Mishra
24/07/2011 at 10:00 अपराह्न
धारयेति इति धर्मः ! बहुत सुन्दर मनन युक्त पोस्ट -ब्लॉग पृष्ठ का सौन्दर्य तो स्तंभित कर रहा है !
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
24/07/2011 at 10:28 अपराह्न
सुन्दर विचार है।
निशांत मिश्र - Nishant Mishra
24/07/2011 at 10:30 अपराह्न
यही तो है धर्म.भगवान महावीर भी यही कह गए हैं – वस्तु स्वभाव ही धर्म है.
Rakesh Kumar
24/07/2011 at 11:27 अपराह्न
स्वाभाव की बहुत सुन्दर व्याख्या की है आपने.स्व=भाव आत्म-भाव को ही परिलक्षित करता है,जिसका स्वरुप 'सत्-चित-आनंद' है.आनंद के विपरीत किये गए कार्य स्वाभाव के विपरीत हैं.
मदन शर्मा
24/07/2011 at 11:49 अपराह्न
आपकी विचार से पूर्णत: सहमत हूँ…एक बात कहना चाऊँगा की इंसानियत से बढ़कर कुछ भी नहीं यही तो है धर्म.जिन्दगी बेहतर होती है जब आप खुश होते हैं। लेकिन जिन्दगी बेहतरीन होती है जब दूसरे लोग आपकी वजह से खुश होते हैं। प्रेरक बनो और सबके साथ अपनी मुस्कुराहट बांटो।
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
24/07/2011 at 11:59 अपराह्न
लेख के साथ टेम्प्लेट भी अत्यन्त आकर्षक है..
Er. Diwas Dinesh Gaur
25/07/2011 at 12:39 पूर्वाह्न
स्वाभाव को परिभाषित करती एक बेहद सुन्दर रचना|आभार…आदरणीय मदन शर्मा जी की बात भी बहुत अच्छी लगी…
निर्मला कपिला
25/07/2011 at 12:55 अपराह्न
सार्थक चिन्तन। ये स्वभाव ही तो जीवन को दिशा दशा देता है अगर इसे वश मे कर लें तो क्या शेश रह जाता है। सुन्दर बात कही। शुभकामनायें\
सदा
25/07/2011 at 1:48 अपराह्न
सही एवं सार्थक प्रस्तुति के लिये आभार ।
सुज्ञ
25/07/2011 at 6:33 अपराह्न
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।धर्म के यह दस लक्षण स्पष्ठ रूप से सदाचरण के ही स्वभाविक लक्षण है।
JC
26/07/2011 at 8:30 पूर्वाह्न
सुज्ञ जी, आपने अपने पूर्वजों द्वारा उपलब्ध ज्ञान के सार अथवा 'सत्व' को – सीधे सीधे शब्दों में लिखे सदाचार के लक्षणों को जैसा उन्होंने दर्शाया – और प्राचीन 'हिन्दू' ने भी सत्य उसे माना जो काल से सम्बंधित नहीं है, और सदैव 'सत्य' है – उसको वर्तमान में भी समझ हमारा ज्ञानोपार्जन किया… उसके लिये आपको अनेकानेक धन्यवाद्! किन्तु, अब किसी के मन में प्रश्न उठ सकता है कि आपके और अन्य कई ज्ञानियों के माध्यम से सदाचार क्या है यह तो मालूम हो गया, किन्तु वास्तविक जीवन में क्यूँ नहीं सभी इसे अपनाते हैं? कौन सी शक्ति अथवा शक्तियां हैं जो शून्य से अनंत तक के रोल मॉडेल आपके और हमारे सामने प्रस्तुत कर देते हैं – सदाचारी और दुराचारी भी (यह वर्तमान में कहना आवश्यक तो नहीं था)? और, हमारे पूर्वज कितना और ज्ञान अपनी कथाओं पुराण आदि में सांकेतिक भाषा में लिख गये… यदि कोई उनको पढने का प्रयास करे तो संभवतः 'प्रभु की माया' को भेद 'परम सत्य' तक पहुँच सकता है… ऐसा 'मेरा' मानना है… किन्तु उसके लिए भी किसी के पास टाइम क्यूँ नहीं है? क्या कोई केवल एक ही अदृश्य शक्ति अपनी उपस्थिति का आभास कराना चाहता है? जैसे तुलसी दास जी भी कह गए, "होई है सो ही / जो राम रची राखा", यानि मानव कठपुतली समान माटी का पुतला है, अथवा एक कटी पतंग समान धरा में गिरने का अथवा किसी अदृश्य शक्ति द्वारा डोर पकड़ लेने की आशा में जी रहा है 🙂
ZEAL
26/07/2011 at 11:50 पूर्वाह्न
.आत्मिक दृष्टि से सदाचरण ही शान्ति का एक मात्र उपाय है।So true ! No doubt about it ! You have beautifully explained the thought ..
संगीता स्वरुप ( गीत )
26/07/2011 at 1:09 अपराह्न
। अशान्ति पैदा करने वाले सभी आवेग-आवेश हमारी विभाव दशा है। शान्तचित सदाचार में रत रहना ही हमारा स्वभाव है।बहुत प्रेरक पोस्ट …
सञ्जय झा
26/07/2011 at 4:36 अपराह्न
………………..pranam
Navin C. Chaturvedi
27/07/2011 at 10:03 पूर्वाह्न
धारयेत इति धर्म:ऐसी सद्गुणों भरी बातों को पढ़ कर मन को बहुत शांति मिलती है| इस ब्लॉग पर बार बार आने को मन करेगा|घनाक्षरी समापन पोस्ट – १० कवि, २३ भाषा-बोली, २५ छन्द
shilpa mehta
27/07/2011 at 12:55 अपराह्न
धर्म क्या है , क्या नहीं है – इस पर कितनी ही चर्चाएँ पढ़ी हैं, हर चर्चा से कुछ न कुछ नयी परिभाषा मिलती है | यह जो आपने कहा आज – यह भी मन को एक अलग सी शान्ति दे रहा है | धर्म स्वीकार भाव है, धर्म आभार भाव है, धर्म भक्ति भाव है, धर्म विश्वास भाव है | धर्मं कर्तव्य भाव, सेवाभाव , सह-अनुभूति भाव और शान्ति भाव है | यही हमें मानव से इश्वर की और बढाने का मार्ग है | अपने अहम् को छोड़ कर यदि हम धर्म पर चल सकें, तो यह हमें क्रोध, द्वेष,लोभ मोह आदि दुखों से छुडवाता है…"धर्म इंसानियत है " यह भी सुना है, परन्तु आज दुर्भाग्य से कई लोगों के लिए इंसानियत के मायने भी खो गए हैं ..
सुज्ञ
27/07/2011 at 1:52 अपराह्न
@"धर्म क्या है , क्या नहीं है – इस पर कितनी ही चर्चाएँ पढ़ी हैं, हर चर्चा से कुछ न कुछ नयी परिभाषा मिलती है|"शिल्पा जी,धर्म की सारी परिभाषाएं उसी एक 'स्वभाव' का सापेक्ष कथन होती है। कोई भी वस्तु अनन्त धर्मात्मक (गुणात्मक) होती है प्रत्येक कथन किसी एक गुण को प्रधान करते हुए कहा जाता है, तब दूसरे सभी गुण गौण रहते है। अतः प्रधान गुण की अपेक्षा से कथन होता है, बस एक गुण को प्रधान बताते हुए अन्य गुणों का निषेध नहीं किया जाय तो नययुक्त सत्य कथन होता है। अतः सारी परिभाषाएं विरोधाभासी नहीं बल्कि विशेष गुण की अपेक्षा से होती है।सदाचार धारण करनें की अपेक्षा से धर्म स्वीकार भाव है।जीवन के उत्थान में सहायक होने की अपेक्षा से धर्म आभार भाव है।अहं का त्याग और समर्पण की अपेक्षा से धर्म भक्ति भाव है।निश्चित सुख का मार्ग होने की अपेक्षा से धर्म विश्वास भाव है| समस्त जगत के हितचिंतन की अपेक्षा से धर्मं कर्तव्य भाव, सेवाभाव , सह-अनुभूति भाव है।सार्थक लक्ष्य की अपेक्षा से धर्म शान्ति भाव है|यही हमें मानव से इश्वर की और बढाने का मार्ग है|इंसान के लिए अनुकूलताएं उपलब्ध करवाने की अपेक्षा से धर्म इंसानियत है।हर कथन सापेक्षता के सिद्धांत से सत्य कथन है, कोई भी नवीन अथवा विरोधाभासी परिभाषा नहीं है।@"धर्म इंसानियत है " यह भी सुना है, परन्तु आज दुर्भाग्य से कई लोगों के लिए इंसानियत के मायने भी खो गए हैं ..– दुर्भाग्य से नहीं, आत्मिक सद्भाव रूप सदाचार से अरूचि के कारण इंसानियत के मायने भी खो गए हैं।
shilpa mehta
27/07/2011 at 3:43 अपराह्न
सुज्ञ जी, मैं विरोधाभास नहीं कह रही थी – मैं तो बस – कह रही थी उस एक शब्द में कितने अर्थ कितने रंग छुपे हैं …
दिगम्बर नासवा
27/07/2011 at 5:44 अपराह्न
नए दृष्टिकोण से सोचा है आपने .. पर स्वभाव ही धर्म है … मुझे लगता है आंशिक ठीक है … अच्छा स्वभाव धर्म का एक अंग हो सकता है पर धर्म बहुत व्यापक है …
JC
27/07/2011 at 6:14 अपराह्न
शिल्पा मेहता जी, जय श्री कृष्ण! जिसे आपने दुर्भाग्यवश कहा, वो वास्तव में प्राचीन किन्तु ज्ञानी 'हिन्दू' के अनुसार ऐसा ही डिजाइन के कारण है – शून्य से (+/-) अनंत रूपों को प्रतिबिंबित करती प्रकृति में मानव रुपी ब्रह्माण्ड के प्रतिरूपों को (दशरथ/ दशानन और निर्गुण, साधना में लीन योगियों तक) प्रतीत होती विविधता के कारण सबसे पहले किसी को भी, (हिन्दू को विशेषकर), समझने की आवश्यकता है कि महाकाल, यानि भूतनाथ, 'योगेश्वर शिव' ('विष का उल्टा, यानि अमृत), अर्थात निर्गुण रचयिता, शून्य काल और समय से सम्बंधित है, जिस कारण वो 'हिन्दुओं' द्वारा अजन्मा और अनंत (शक्ति रुपी) है,,, किन्तु 'द्वैतवाद' के कारण, माना जाता / जाती है – "या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण सस्थिता…" आदि द्वारा शक्ति के उपासकों द्वारा पूजित, और दूसरी ओर 'माया' द्वारा जनित साकार ब्रह्माण्ड के विभिन्न सगुण प्रतिरूपों में से किसी को भी, अथवा अनेकों को भी, पूजते हुए वास्तव में निराकार ब्रह्म तक पहुँचने के प्रयास में रत सभी अन्य आम 'हिन्दुओं' को भी अपने एक सीमित जीवन काल में अपना लक्ष्य मान… काल-चक्र उल्टा चलने के कारण केवल हर युग की अपनी-अपनी प्रकृति के कारण मानव के पहुँच की सीमा सतयुग से कलियुग तक १००% से ७५% से घाट २५% से ०% तक ही रह जाती है, किन्तु आत्माओं के स्तर (-) अनंत से (+) अनंत तक के बीच ही रहती है जिसे गणितज्ञ द्वारा 'टेंजेंट कर्व' के माध्यम से समझा जा सकता है (यदि कोई इच्छुक हो तो, नहीं तो कहावत है कि कोई भी घोड़े को पानी तक ले जा सकता है / किन्तु बीस आदमी भी उसे पानी नहीं पिला सकते)… और काल चक्र उल्टे चलने के कारण है
डॉ॰ मोनिका शर्मा
28/07/2011 at 3:45 पूर्वाह्न
सुंदर विचार …… सार्थक विवेचन
Mukesh Kumar Sinha
28/07/2011 at 9:40 पूर्वाह्न
🙂 ACHCHHE VICHAR….PARILAKSHIT HO RAHE HAIN!
shilpa mehta
28/07/2011 at 1:13 अपराह्न
जय श्री कृष्ण जे सी जी … जी | आप ठीक कह रहे हैं, परन्तु मुझे इतना गहराई में ज्ञान नहीं है ..
amrendra "amar"
28/07/2011 at 2:30 अपराह्न
waah, artho me bhi arth samate hue behtreen lekh ke liye badhai
JC
28/07/2011 at 5:33 अपराह्न
शिल्पा जी, जय श्री कृष्ण! आप ठीक कह रही हैं, हरेक व्यक्ति अपने रोज मर्रा के जीवन में केवल उतना ही जान पाता है जितना उसे आवश्यक होता है…'मैं' भी पहले केवल निराकार को मानता था और अस्सी के दशक के आरम्भ तक मेरी मान्यता थी कि उसका काम वो ही जाने… किन्तु कुछेक घटनाओं ने मुझे मजबूर किया और 'सत्य' जानने के लिए मैंने सन '८४ में पहली बार पूरी गीता लाइनों के बीच पढ़ी और कम से कम मन से मैंने उन पर आत्म समर्पण कर दिया… जिस कारण मेरा २५ वर्ष से अधिक का अनुभव भी तो हो गया है…!
रविकर
28/07/2011 at 9:17 अपराह्न
महा-स्वयंवर रचनाओं का, सजा है चर्चा-मंच |नेह-निमंत्रण प्रियवर आओ, कर लेखों को टंच ||http://charchamanch.blogspot.com/
सुधीर
28/07/2011 at 10:22 अपराह्न
बहुत श्रेष्ठ एवं सार्थक प्रस्तुति
vidhya
29/07/2011 at 1:06 अपराह्न
बढ़िया प्रस्तुतिआपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें आप का बलाँग मूझे पढ कर अच्छा लगा , मैं भी एक बलाँग खोली हूलिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।
सुरेन्द्र सिंह " झंझट "
29/07/2011 at 6:26 अपराह्न
धर्म वास्तव में मनुष्य का स्वभाव ही है ……इस तथ्य को बहुत ही सरल, सहज और तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है आपने अति सुन्दर ….