विचार प्रबन्धन
18
जून
आज कल लोग ब्लॉगिंग में बड़े आहत होते से दिख रहे है। जरा सी विपरित प्रतिक्रिया आते ही संयम छोड़ देते है अपने निकट मित्र का विरोधी मंतव्य भी सहज स्वीकार नहीं कर पाते और दुखी हृदय से पलायन सा रूख अपना लेते है।
मुझे आश्चर्य होता है कि जब हमनें ब्लॉग रूपी ‘खुला प्रतिक्रियात्मक मंच’ चुना है तो अब परस्पर विपरित विचारों से क्षोभ क्यों? यह मंच ही विचारों के आदान प्रदान का है। मात्र जानकारी अथवा सूचनाएं ही संग्रह करने का नहीं। आपकी कोई भी विचारधारा इतनी सुदृढ नहीं हो सकती कि उस पर प्रतितर्क ही न आए। कई विचार परम-सत्य हो सकते है पर हमारी यह योग्यता नहीं कि हम पूर्णरूपेण जान सकें कि हमने जो प्रस्तुत किया वह अन्तिम सत्य है और उसको संशय में नहीं डाला जा सकता।
अधिकांश हम कहते तो इसे विचारो का आदान प्रदान है पर वस्तुतः हम अपनी पूर्वाग्रंथियों को अन्य के समर्थक विचारों से पुष्ठ करनें का प्रयास कर रहे होते है। उन ग्रंथियों को खोलनें या विचलित भी होनें देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। हमारा पूर्वाग्रंथी प्रलोभन इतना गाढ होता है कि वह न जाने कब अहंकार का रूप धर लेता है। इसी दशा में अपने विचारों के विपरित प्रतिक्रिया पाकर आवेशित हो उठता है। और सारा आदान-प्रदान वहीं धरा रह जाता है। जबकि होना तो यह चाहिए कि आदान प्रदान के बाद हमारे विचार परिष्कृत हो। विरोध जो तर्कसंगत हो, हमारी विचारधारा उसे आत्मसात कर स्वयं को परिशुद्ध करले। क्योंकि यही विकास का आवश्यक अंग है। अनवरत सुधार।
यदि आपका निष्कर्ष सच्चाई के करीब है फिर भी कोई निर्थक कुतर्क रखता है तो आवेश में आने की जगह युक्तियुक्त निराकरण प्रस्तुत करना चाहिए, आपके विषय-विवेचन में सच्चाई है तो तर्कसंगत उत्तर देनें में आपको कोई बाधा नहीं आएगी। तथापि कोई जड़तावश सच्चाई स्वीकार न भी करे तो आपको क्यों जबरन उसे सहमत करना है? यह उनका अपना निर्णय है कि वे अपने विचारों को समृद्ध करे,परिष्कृत करे, स्थिर करे अथवा दृढ्ता से चिपके रहें।
मैं तो मानता हूँ, विचारों के आदान-प्रदान में भी वचन-व्यवहार विवेक और अनवरत विचारों को शुद्ध समृद्ध करने की ज्वलंत इच्छा तो होनी ही चाहिए, आपके क्या विचार है?
JC
18/06/2011 at 5:00 अपराह्न
यद्यपि मेरा अपना निजी ब्लॉग नहीं है, आपसे पूर्णतया सहमत हूँ… जैसे आजकल इंटरनेट को सूचना का स्रोत माना जाता है, प्राचीन काल में पुस्तकों को मनुष्य का सबसे बेहतर मित्र माना गया (और यह भी, "पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ/ पंडित भय न कोई…" यानि पंक्तियों के बीच पढ़ सार निकलना आवश्यक है)… और इस में भी शक नहीं कि भारत में 'भागवद गीता' एक ऐसी पुस्तक या ग्रन्थ है जिसने किसी भी धर्म के मानने वालों को आकर्षित किया है,,, और इस कारण इस ग्रन्थ का रूपांतर संसार की कई भाषाओँ में किया जा चुका है… इसमें, उदाहरणतया (सन '८४ में), मुझे अन्य कई नयी जानकारी के अतिरिक्त योगियों (जिन्होंने साकार को शक्ति और मिटटी का योग जाना) का एक विचार विशेष पढने को मिला, कि मानव एक उल्टा वृक्ष है जिसकी जडें आकाश में हैं! वैसे वृक्षों को आम तौर से देखते आये थे कि इनकी जडें भूमि के नीचे अधिकतर अदृश्य होती हैं, तना धरा की सतह के ऊपर, और शाखाएं, पत्ते, फल आदि हवा में, यानि 'आकाश' में दिखाई देते हैं… इसी एक विचार ने निरंतर मानस मंथन के पश्चात योगियों की मान्यता पर, कि 'मानव ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप है', कुछ कुछ प्रकाश डाला क्यूंकि बचपन से ही स्कूल में एक विज्ञान के विषय का विद्यार्थी होने और संयोगवश (?) हस्तरेखा पर एक विदेशी पुस्तक पढने से ग्रहों आदि के विषय में थोडा बहुत ज्ञान था… यह भी सभी को पता है कि हमारा एक जीवन काल काफी नहीं है सभी विषयों पर उपलब्ध पुस्तकों को पढने के लिए, और आज विषय भी निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं… जिस कारण यद्यपि हर व्यक्ति निरंतर ज्ञानोपार्जन करते भी संभव है कि अज्ञानी ही रहेगा (और गीता में 'कृष्ण' कहते हैं कि सब गलतियों का कारण 'अज्ञान' है,,, और यदि कोई व्यक्ति उन पर 'आत्म समर्पण' कर उनकी ऊंगली थाम ले तो वो उसे स्वयं अपने विराट रूप का दर्शन करायेंगे, जैसे 'महाभारत' में तथाकथित कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में उन्होंने अर्जुन को दिव्य-चक्षु दे कर किया था…
सुशील बाकलीवाल
18/06/2011 at 5:05 अपराह्न
पूर्णतः सहमत.
रविकर
18/06/2011 at 5:20 अपराह्न
जब हमनें ब्लॉग रूपी ‘खुला प्रतिक्रियात्मक मंच’ चुना है तो अब परस्पर विपरित विचारों से क्षोभ क्यों ||केवल मन को आनन्दित करने वाली टिप्पणियां ||मतलब 100 में 100 वो भी हमेशा ||अपनी कक्षा के टापर को भी कभी-कभी निराश होना पड़ता है ||आलोचना बेहतर और सटीक लिखने के लिए प्रेरित करती है ||और हम सरकार थोड़े ही है जो धरा 144 लगा दें ||आते रहिये |संयमित टिप्पणी करते रहिये ||
ajit gupta
18/06/2011 at 5:34 अपराह्न
मैं तो कई बार टिप्पणियों में लिख चुकी हूँ कि यह विचारों के आदान-प्रदान का स्थान है। लेकिन परेशानी तब होती है जब हम विचार या मुद्दे से हटकर व्यक्तिगत चरित्रहनन पर आ जाते हैं। अब वर्तमान में चल रहे संदर्भ को ही देखें, देश में संघर्ष चल रहा है भ्रष्टाचार और कालेधन के लिए। अब बहस इसी के इर्द गिर्द होनी चाहिए लेकिन हम व्यक्तिगत चरित्रहनन पर उतारू हो गए हैं। विचारों में भिन्नता से किसी को कोई आपत्ति शायद ही होती हो अगर होती है तो उसे दूसरे के विचार जानने के लिए तैयार होना चाहिए।
Rahul Singh
18/06/2011 at 6:19 अपराह्न
असहमति का कोई कारण नहीं बनता.
वर्ज्य नारी स्वर
18/06/2011 at 6:43 अपराह्न
सहमत हूँ सब समझे तो न
शालिनी कौशिक
18/06/2011 at 6:56 अपराह्न
poori tarah se sahmat.
RAJEEV KUMAR KULSHRESTHA
18/06/2011 at 8:13 अपराह्न
पूर्णतः सहमत.असहमति का कोई कारण नहीं पूर्णतया सहमत
M VERMA
18/06/2011 at 8:28 अपराह्न
द्वन्द ही तो नवसृजन का आधार है
वन्दना
18/06/2011 at 8:44 अपराह्न
सहमत हैं
डॉ॰ मोनिका शर्मा
18/06/2011 at 9:43 अपराह्न
पूरी तरह सहमत हूँ……..
प्रतुल
18/06/2011 at 11:35 अपराह्न
आज सत्ता पक्ष ही अपने विपक्ष का सम्मान नहीं करता, उसकी उपयोगिता को नहीं जानता… तब एक स्वस्थ चर्चा की परम्परा टूटती है. फिर भी हमें अपने प्रयास ज़ारी रखने चाहिये. यदि रामदेव बाबा में कोई स्वभावगत छिद्र खोज भी लेता है तो उन्हें इतना अवसर देना ही होगा कि वे आने वाले समय में उन कमियों को दूर कर पायें. यदि कोई विरोधी विचारों को सुनकर प्रतितर्क नहीं सोच पाता तो उसे अपने साथियों की सहायता लेनी चाहिये अन्यथा उसे कुछ अधिक समय ले लेना चाहिये .. ये कहते हुए कि "मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूँ किन्तु फिलहाल मुझे कोई तर्क नहीं सूझ रहा. इसलिए कुछ समय प्रतीक्षा करें. या फिर आप अमुक व्यक्ति से बात करें." किसी भी हाल में संतुलन नहीं खोना चाहिये. कई बार मैंने स्वयं भी संतुलन खोया है. लेकिन उससे उक्त बात गलत नहीं हो जाती. यदि किन्हीं कारणों से शांत स्वभावी व्यक्ति ने क्रोध में आकर कुछ कटु बोल भी दिया तो दूसरे को अपने शान्ति नहीं खोनी चाहिये.मेरे एक आचार्य थे वे मेरे आज भी पूज्य हैं…. उनमें कई स्वभावगत कमियाँ थीं… जिसे उन्होंने बाद में स्वयं भी स्वीकारा .. वे आज ७० वर्ष की आयु में उन कमियों से कोसों दूर हैं. अपेक्षाएँ जरूरत से अधिक नहीं करनी चाहिये …. यदि अपेक्षाएँ जरूरत से अधिक हैं तो उसे सुधार का अवसर भी देना चाहिये.__________________________________एम् वर्मा जी के संक्षित वाक्य ने काफी काफी कुछ कह दिया.रविकर जी अपनी टिप्पणियों से गुदगुदाने के साथ-साथ बड़ी बातें कह जाते हैं.
संगीता स्वरुप ( गीत )
18/06/2011 at 11:40 अपराह्न
विचारों के आदान-प्रदान में भी वचन-व्यवहार विवेक और अनवरत विचारों को शुद्ध समृद्ध करने की ज्वलंत इच्छा तो होनी ही चाहिएसहमत …
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
18/06/2011 at 11:44 अपराह्न
इससे असहमत तो हुआ ही नहीं जा सकता.
कौशलेन्द्र
19/06/2011 at 12:27 पूर्वाह्न
"न श्रुणुतव्यं न मन्तव्यं …वक्तव्यं तु पुनः-पुनः" ……विगृह्य संभाषा का सूत्र है. इस सिद्धान्त के पोषक अपने मत का मंडन और दूसरों के मत का खंडन ही देखने के अभ्यस्त होते हैं ……कुल लक्ष्य होता है अपने विचारों को प्रकट कर दूसरों से उसकी पुष्टि और उनकी प्रशंसा का पात्र बनना. जो मंथन में विश्वास रखते हैं वे विष और अमृत दोनों को पचाने की शक्ति रखते हैं …और ऐसे लोग ही मनीषियों की श्रेणी में आ पाते हैं. सुज्ञ जी के विचार अनुकरणीय हैं . अभी आपका स्वास्थ्य कैसा है ?
Er. Diwas Dinesh Gaur
19/06/2011 at 1:11 पूर्वाह्न
हंसराज भाई बिलकुल सही कहा आपने…विचारों के आदान प्रदान के स्थान पर वाद विवाद स्थापित कर देना गलत है…कई बार कई ब्लॉग पर मैंने ऐसा देखा है…हालांकि मेरे ब्लॉग पर ऐसी परिस्थिति कभी नहीं आई…मेरे ब्लॉग पर अभी तक जितने भी विचार आए, अधिकतर मुझसे सहमती दर्शाते हैं…परन्तु फिर भी अन्य स्थानों पर ऐसा होता रहता है…यह गलत है…
Vivek Jain
19/06/2011 at 1:14 पूर्वाह्न
आपसे पूरे तरह सहमत हूँ, पर कुछ लोग विचारों के स्व्स्थ आदान प्रदान का स्वागत भी करते हैं, भले ही ऐसे लोग कम हों, विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
blogtaknik
19/06/2011 at 4:58 पूर्वाह्न
धन्यवाद आपके ब्लॉग से निरंतर अच्छी जानकारी मिलती है.
अल्पना वर्मा
19/06/2011 at 4:55 अपराह्न
आप के विचारों से सहमत.बहस अगर विचारों तक ही रहे तो बेहतर .समस्या तब होती है जब लोग व्यक्तिगत आक्षेप करने लगते हैं .इससे अगर सभी बचें और सिर्फ स्वस्थ बहस करें तो अवांछित स्थितियाँ उत्पन्न ही नहीं होंगी .
Kunwar Kusumesh
19/06/2011 at 7:13 अपराह्न
आप के विचारों से सहमत.
विरेन्द्र सिंह चौहान
19/06/2011 at 7:16 अपराह्न
हम भी सहमत है आपसे! असहमति का तो प्रश्न ही नहीं है!
Global Agrawal
20/06/2011 at 11:47 पूर्वाह्न
@आपके विषय-विवेचन में सच्चाई है तो तर्कसंगत उत्तर देनें में आपको कोई बाधा नहीं आएगी।सही बात है :)) सच्चाई है तो कोई बाधा नहीं आनी चाहिए :)मैं इस सम्बन्ध में अपने अनुभव नहीं लिखूं तो ही बेहतर है :))मैं फिर से वही बात दोहरा रहा हूँ“……सिर्फ कमेन्ट पाने या खुद को बौद्दिक रूप से संपन्न दिखाने जैसे कारणों या इच्छाओं की पूर्ति के लिए के लिए लेखन का ये खेल खेला जाता है”।
सुज्ञ
20/06/2011 at 1:49 अपराह्न
@“……सिर्फ कमेन्ट पाने या खुद को बौद्दिक रूप से संपन्न दिखाने जैसे कारणों या इच्छाओं की पूर्ति के लिए के लिए लेखन का ये खेल खेला जाता है”।ग्लोबल जी,आपकी बात में सत्यांश है समग्र सत्य नहीं… तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग।……इस दुनिया की तरह ही ब्लॉग-जगत में भी भिन्न भिन्न मानसिकताओं के लोग विद्यमान है। बहुतो के लिये लेखन अहं तुष्टि का माध्यम है तो ऐसे लोग भी हो सकते है जो लिखकर समाज को श्रेष्ठ विचार देनें का प्रयास करते है। कुछ ऐसे भी है, नाकारात्मक उर्ज़ा का स्राव करते रहते है। विवेकवान को ऐसे खेल से किनारा करते हुए आगे बढ लेना चाहिए।
दर्शन लाल बवेजा
20/06/2011 at 10:30 अपराह्न
आप के विचारों से सहमत.
शिखा कौशिक
20/06/2011 at 11:49 अपराह्न
sateek bat kahi hai aapne .aabhar
Global Agrawal
21/06/2011 at 7:18 पूर्वाह्न
@बहुतो के लिये लेखन अहं तुष्टि का माध्यम है तो ऐसे लोग भी हो सकते है जो लिखकर समाज को श्रेष्ठ विचार देनें का प्रयास करते है।सही कहा आपने…… ऐसे ही सभ्य ब्लोग लेखक/लेखिकाओं की वजह से आज भी हम जैसे लोग ब्लॉग पाठक हैं 🙂 और वही कुछ "सभ्य ब्लोगर्स" ब्लोगिंग को भड़ास समझे जाने से रोकते हैं…रोकते रहेंगे
ZEAL
21/06/2011 at 2:47 अपराह्न
सुज्ञ जी , पूर्णतया सहमत हूँ आपके विचारों से।
Kailash C Sharma
21/06/2011 at 3:58 अपराह्न
आपके विचारों से पूर्णतः सहमत हूँ..बहुत सारगर्भित आलेख..
सुरेन्द्र सिंह " झंझट "
22/06/2011 at 11:10 अपराह्न
बिलकुल सही लिखा है सुज्ञ जी ……..असहमत होने का कोई औचित्य नहीं विचारों की भिन्नता तो होगी ही किन्तु किसी पर भी व्यक्तिगत आक्षेप से बचें
veerubhai
23/06/2011 at 7:01 पूर्वाह्न
सहमत !लेकिन एक बात और सामने वाले की भाषा नहीं आशय को देखो !मोतिवेतिंग फ़ोर्स को देखो .
veerubhai
23/06/2011 at 7:02 पूर्वाह्न
सहमत !लेकिन एक बात और सामने वाले की भाषा नहीं आशय को देखो !मोतिवेतिंग फ़ोर्स को देखो .
चंदन कुमार मिश्र
23/06/2011 at 12:22 अपराह्न
वैसे तो आपने सही ही कहा होगा। अब ज्ञानीजनों से कुछ ज्ञान लेने मैं भी कभी-कभार आ जाऊंगा। जब कोई हो ही नहीं तो क्यों अपनी टिप्पणियाँ खराब करते हैं? वहाँ मैंने कह दिया है कि अब नहीं लिखूंगा तो देखता हूँ कि मुझपर अब भी लिखाई चल रही है।
सुज्ञ
23/06/2011 at 12:34 अपराह्न
चंदन कुमार ज़ीवहाँ आपनें एक प्रश्न छोडा था, उसका जवाब जरूरी था।
चंदन कुमार मिश्र
23/06/2011 at 1:18 अपराह्न
अगर आपकी इच्छा हो तो जवाब देने से कतराऊंगा नहीं। थोड़ा ठहरें। मैंने सोचा है कि अब अपने ब्लाग पर ही सभी सवाल जवाब देने की कोशिश करूंगा।
Rakesh Kumar
24/06/2011 at 12:26 पूर्वाह्न
मैंने एक पोस्ट लिखी थी 'ऐसी वाणी बोलिए'.मेरे विचार में 'वाद' ही विचारों के आदान प्रदान का सर्वश्रेष्ठ तरीका है ,जिससे सभी जन लाभान्वित होते हैं.'वाद' से ही निर्मल आनंद की प्राप्ति हो सकती है.'वितण्डा' या 'जल्पना' से तो हमेशा कटुता उत्पन्न होती है.
Arvind Mishra
29/06/2011 at 8:11 पूर्वाह्न
आपका कहना सही है मगर सभी बुद्ध प्रबुद्ध हो भी कैसे सकते हैं !
DR. ANWER JAMAL
06/01/2012 at 10:23 पूर्वाह्न
@ भाई सुज्ञ जी ! वाक़ई आपने हक़ीक़त बयान की है। लोग विपरीत विचार सामने आते ही या तो पलायन का रूख़ इख्तियार कर लेते हैं या फिर फ़र्ज़ी आईडी से अपमानजनक टिप्पणियां करने लगते हैं ताकि विपरीत विचार वाले का हौसला तोड़ा जा सके। यह प्रक्रिया विचार विमर्श के अनुकूल नहीं है। जो लोग विचार विमर्श का दंभ भरते हैं वे भी ऐसी असभ्य टिप्पणियां प्रकाशित करते देखे जाते हैं।जब हौसला नहीं है विपरीत विचार को सहन करने का तो फिर ब्लॉगिंग जैसे खुले मंच पर ये लोग आते ही क्यों हैं ?आपने सही कहा है कि मुझे आश्चर्य होता है कि जब हमनें ब्लॉग रूपी ‘खुला प्रतिक्रियात्मक मंच’ चुना है तो अब परस्पर विपरित विचारों से क्षोभ क्यों? यह मंच ही विचारों के आदान प्रदान का है। मात्र जानकारी अथवा सूचनाएं ही संग्रह करने का नहीं। आपकी कोई भी विचारधारा इतनी सुदृढ नहीं हो सकती कि उस पर प्रतितर्क ही न आए।नास्तिक विचार इंसान को भ्रष्टाचार की प्रेरणा देता है।http://commentsgarden.blogspot.com/2012/01/atheist.html
सुज्ञ
06/01/2012 at 11:10 पूर्वाह्न
डॉ अनवर जमाल साहब,"जब हौसला नहीं है विपरीत विचार को सहन करने का तो फिर ब्लॉगिंग जैसे खुले मंच पर ये लोग आते ही क्यों हैं ?"इस पर आपका ध्यान आपकी ही दो एक टिप्पणीओं पर दिलाना चाहता हूं, यह विपरित विचार मात्र है या गर्भित धमकियाँ……………?@ सुज्ञ जी ! आपकी ऊर्जा को हरगिज़ व्यर्थ न जाने दिया जायेगा .आपके लिए मैंने थोड़ी सी डिफरेंट स्टोरी लिखी है .हरेक सीन उसी तरह आगे बढ़ रहा है.कहानी के मुताबिक़ अभी आपका हौसला बढ़ाया जायेगा और यह तब होगा जबकि …खैर , हम और आप बात करेंगे तभी तो शाकाहार का प्रचार होगा ? http://niraamish.blogspot.com/2011/01/blog-post_29.html?showComment=1297168411139#c6611298185131349714और्……@ सुज्ञ जैन जी ! आप डरपोक न होते तो अपनी पहचान और पता जाहिर कर देते ।आपने खुद को बहुत दिनों तक वैदिक भाइयों की आड़ में छिपाए रखा । अब आपका मत भी पता चल चुका है मन भी ।बहुत शौक है आपको भांडे फूटते देखने का ?क्या हमेँ आपका शौक़ पूरा करने का अवसर मिल सकता है ?वादा करता हूँ आपको निराश नहीं करूँगा ।तब पता चलेगा कि आपको सत्य के प्रति कितनी जिज्ञासा है ?दूसरों के घरों में आग लगती देखकर पहुँच जाते हैं साथ सेकने ।अब दिखावा करते रहना निर्भय बने रहने का । http://bharatbhartivaibhavam.blogspot.com/2010/11/blog-post_18.html?showComment=1290195509885#c8270110706785631754ऐसे तो बहुत से उदाहरण है आपकी सौजन्यपूर्ण चर्चा विचारणा के!!!!!!