युग चाहे कोई भी हो, सदैव जीवन-मूल्य ही इन्सान को सभ्य सुसंस्कृत बनाते है। जीवन मूल्य ही हमें प्राणी से इन्सान बनाते है। जीवन मूल्य ही हमें शान्ति और संतुष्टि से जीवन जीने का आधार प्रदान करते है। किन्तु हमारे बरसों के जमे जमाए उटपटांग आचार विचार के कारण जीवन में सार्थक जीवन मूल्यो को स्थापित करना अत्यंत कष्टकर होता है।
हम इतने सहज व सुविधाभोगी होते है कि सदाचार अपनानें हमें कठिन ही नहीं दुष्कर प्रतीत होते है। तब हम घोषणा ही कर देते है कि साधारण से जीवन में ऐसे सत्कर्मों को अपनाना असम्भव है। फिर शुरू हो जाते है हमारे बहाने …
‘आज के कलयुग में भला यह सम्भव है?’ या ‘तब तो फिर जीना ही छोड दें’। ‘आज कौन है जो यह सब निभा सकता है?’, इन सदाचार को अंगीकार कर कोई जिन्दा ही नहीं रह सकता।
कोई सदाचारी मिल भी जाय तो हमारे मन में संशय उत्पन्न होता है। यदि उस संशय का समाधान हो जाय तब भी उसे संदिग्ध साबित करने का हमारा प्रयास प्रबल हो जाता है। हम अपनी बुराईयों को सदैव ढककर ही रखना चाहते है। जो थोड़ी सी अच्छाईयां हो तो उसे तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करते है। किसी अन्य में हमें हमसे अधिक अच्छाईयां दिखाई दे तो बर्दास्त नहीं होती और हम उसे झूठा करार दे देते है।
बुराईयां ढलान का मार्ग होती है जबकि अच्छाईयां चढाई का कठिन मार्ग। इसलिए बुराई की तरफ ढल जाना सहज सरल आसान होता है जबकि अच्छाई की तरफ बढना अति कठिन श्रमयुक्त पुरूषार्थ।
मुश्किल यह है कि अच्छा कहलाने का श्रेय सभी लेना चाहते है पर जब कठिन श्रम की बात आती है तो हम शोर्ट-कट ढूँढते है। किन्तुसदाचार और गुणवर्धन के श्रम का कोई शोर्ट-कट विकल्प नहीं होता। यही वह कारण हैं जब हमारे सम्मुख सद्विचार आते है तो अतिशय लुभावने प्रतीत होने पर भी तत्काल मुंह से निकल पडता है ‘इस पर चलना बड़ा कठिन है’।
यह हमारे सुविधाभोगी मानस की ही प्रतिक्रिया होती है। हम कठिन प्रक्रिया से गुजरना ही नहीं चाहते। जबकि मानव में आत्मविश्वास और मनोबल की अनंत शक्तियां विद्यमान होती है। प्रमादवश वह उनका उपयोग नहीं करता। जबकि जरूरत मात्र जीवन-मूल्यों को स्वीकार करने के लिए इस मन को जगाने भर की होती है। मनोबल यदि एकबार जग गया तो कैसे भी दुष्कर गुण हो अंगीकार करना सरल ही नहीं मजेदार भी बनता चला जाता है। सारी कठिनाईयां परिवर्तित होकर हमारी ज्वलंत इच्छाओं में तब्दिल हो जाती है। यह मनेच्छा उत्तरोत्तर उँचाई सर करने की मानसिक उर्ज़ा देती रहती है।
जैसे एड्वेन्चर का रोमांच हमें दुर्गम रास्ते और शिखर सर करवा देता है। यदि यही तीव्रेच्छा सद्गुण अंगीकार करने में प्रयुक्त की जाय तो जीवन को मूल्यवान बनाना कोई असम्भव भी नहीं। मैं तो मानता हूँ, आप क्या कहते है?
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नूतन ..
13/06/2011 at 3:17 अपराह्न
बिल्कुल सही कहा है आपने ।
Kunwar Kusumesh
16/06/2011 at 10:08 पूर्वाह्न
आपके विचार बहुमूल्य हैं.
M VERMA
18/06/2011 at 7:59 अपराह्न
बुराईयां ढलान का मार्ग होती है जबकि अच्छाईयां चढाई का कठिन मार्ग'साधुवचन .. सुविचार
CS Devendra K Sharma "Man without Brain"
21/06/2011 at 7:16 अपराह्न
bilkul sahee kaha…sadaachran se hi manushya, manushya kahlata hai…
कविता रावत
29/06/2011 at 8:59 पूर्वाह्न
bahut sundar vicharon se bhara aalekh padhna sukhad laga..aabhar..aapka Sugya blog nahi khul paa raha tha.. abhut gaon se lauti hun… bahut din se blog se duriya badh gayee thi..
सुज्ञ
29/06/2011 at 10:25 पूर्वाह्न
आभार आपका कविता जी,सुज्ञ ब्लॉग में नए टेम्पलेट के कारण कुछ समस्या आ रही है।असुविधा के लिए खेद है।
कुमार राधारमण
29/06/2011 at 11:26 अपराह्न
कठिन प्रक्रिया की आवश्यकता भी तब पड़ती है,जब उससे पूर्व की हमारी प्रोग्रामिंग ठीक विपरीत प्रकार की रही हो। आप कहते हैं कि कठिनाईयां परिवर्तित होकर हमारी ज्वलंत इच्छाओं में तब्दील होती हैं और यही मनेच्छा उत्तरोत्तर उँचाई सर करने की मानसिक उर्ज़ा देती रहती है। परन्तु,ज्ञानीजन तो इच्छाओं को ही तमाम दुखों का कारण बताते रहे हैं!
सुज्ञ
30/06/2011 at 12:11 पूर्वाह्न
कुमार राधारमण जी,आपने सही कहा, विपरित मनोस्थिति को कठिनाई अधिक होगी।किन्तु, कल्याण की इच्छा रखे बिना सदमार्ग गमन सम्भव नहीं। इसलिए तृष्णा युक्त इच्छा को हेय और सद्भाव इच्छा को उपादेय मानना होगा। ज्ञानीजन तृष्णा युक्त इच्छाओं को ही तमाम दुखों का कारण बताते हैं! और सदमार्ग पर प्रयाण करने की आकांशा को अनुकरणीय बताते है।