छवि परिवर्तन प्रयोग
19
मई
एक प्रयोग करने जा रहा हूँ। बस बैठे बैठे एक जिज्ञासा हो आई कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते है? वे मुझे किस तरह पहचानते है? लोगों के मानस में मेरी छवि क्या बनी है? क्या अपनी छवि जो मैं मानता रहा हूँ? ऐसी ही निर्मित है या एकदम भिन्न? कितना अलग हो सकती है, स्वयंभू धारणा और लोकदृष्टि ?
औरों की नज़र से स्वयं के बारे में प्रतिभाव लेने की गज़ब की सुविधा इस ब्लॉगिंग में है। तो क्यों न ब्लॉग जगत में इस सुविधा का उपयोग किया जाय? अपने पाठक मित्रों ब्लॉग-मित्रों को आमंत्रित करूँ और जानकारी लूँ कि वे मुझे किस तरह पहचानते है। उनकी दृष्टि में मेरी छवि क्या है? क्या वह यथार्थ बिंब है या आभासी दुनिया में आभासी ही व्यक्तित्व। यदि कुछ नकारात्मक पता चले तो क्यों न छवि को सकारात्मक बनाने का प्रयोग किया जाय?
सभी ब्लॉगर, पाठक बंधु अथवा यत्र तत्र टिप्पणीयों से मुझे जानने वाले पाठक कृपा करके अपने प्रतिभाव अवश्य दें। आज बिना लाग लपेट के, प्रोत्साहन में अपने अहं को आडे लाकर, प्रसंशा में पूरी क्षमता से कंजूसी करते हुए, निश्छल टिप्पणी करें। वे पाठक भी आज तो टिप्पणी अवश्य करे जो मात्र पढकर खिसक जाया करते है। आज आलेख को नहीं, मुझे टिप्पणियों की दरकार है। क्यों कि इसका मेरे व्यक्तित्व से सरोकार है। मेरे विचार मेरे व्यक्तित्व को कैसा आकार देते है।
आभासी दुनिया में बना बिंब, बालू शिल्पाकृति सम होगा, जिसमें परिवर्तन सम्भव है।
बेताल के शब्दों में कहुँ तो मेरी छवि के बारे में थोडा भी जानते हुए यदि लेख-पाठक मौन रहे तो उनका सिर मेरे ही विचारों से भारी होकर दर्दनिवारक गोली की शरण को प्राप्त होगा।
तो फटाफट टिप्पणी करिए कि क्या है आपकी नज़र में मेरी छवि?
रश्मि प्रभा...
19/05/2011 at 6:02 अपराह्न
एक तो हर व्यक्ति की अपनी एक विशेषता होती है , छवि परिवर्तन क्यूँ ! कुछ बातें स्थायित्व चाहती हैं और उसके लिए किसी टिप्पणी की ज़रूरत नहीं होती है . आत्मविश्वास चेहरे पर है , फिर ऐसा क्यूँ ?
सञ्जय झा
19/05/2011 at 6:19 अपराह्न
yatha naam tatha gun…..phir kshavi parivartanki lagi kyon dhun……..pranam.
सुज्ञ
19/05/2011 at 6:24 अपराह्न
मैं इस पोस्ट पर कोई प्रतिक्रिया टिप्पणी नहीं करूँगा। मैं मानता हूँ प्रतिटिप्पणी से आगे आने वाली टिप्पणियां प्रभावित हो सकती है।
ajit gupta
19/05/2011 at 6:39 अपराह्न
हंसराज जी, मेरे मन में भी आज ऐसे ही विचार आ रहे थे कि इस ब्लाग जगत की जागतिक दुनिया में हम कहाँ खड़े हैं, इसका ज्ञान होना चाहिए, लेकिन फिर सोचा कि क्या होगा जानने से? लेकिन आपने यह प्रश्न दाग ही दिया। एक तो मुझे आभासी दुनिया वाला शब्द कुछ समझ नहीं आता है, यह तो 24 घण्टे जगने वाली दुनिया है, इसमें आभासी कौन है? क्या हम किसी से साक्षात नहीं मिले हैं तो वे आभासी हो जाते हैं? फिर तो सारी दुनिया ही आभासी है। मैंने एक बार पूर्व में भी लिखा था कि हम तो भूत-प्रेत की दुनिया को आभासी कहते आए हैं। आप इस शब्द का भी स्पष्टीकरण दें, क्योंकि आपकी छवि विद्वान लेखक की छवि है। वैसे अभी आपको पढ़ना प्रारम्भ ही किया है इसलिए बहुत अधिक तो नहीं कह सकती लेकिन फिर भी इतना कह सकती हूँ कि संतुलित भाषा में, विद्वतापूर्ण पोस्ट की आपसे अपेक्षा रहती है। हाँ कभी-कभी विषय गूढ़ और दर्शन आधिक्य वाला हो जाता है इस कारण फौरी-फौरी पढ़ने से काम नहीं चलता। डूबकर पढ़ना पड़ता है।
Rahul Singh
19/05/2011 at 7:25 अपराह्न
फिलहाल मौन, देखें क्या असर होता है, चाहें तो यही टिप्पणी मान लें.
नुक्कड़
19/05/2011 at 7:28 अपराह्न
बिल्कुल सच कहूंयाद नहीं कि पढ़ा भी है आपका ब्लॉगपर आज जरूर पढूंगा आपका ब्लॉगऔर बतलाता जाऊंगाजहां पर जैसा लगेगा। बस कुछ इंतजार करना होगा।
शिखा कौशिक
19/05/2011 at 7:38 अपराह्न
Sugy ji i can comment on this post after some days because my net is not working well & so that i am enable to see your photo .have a good day .
ललित शर्मा
19/05/2011 at 7:56 अपराह्न
"तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग."ऐसा ही यह ब्लॉग जगत हैं, यहाँ सभी तरह के लोग हैं.कुछ विशुद्ध लेखक हैं तो कुछ सिर्फ मौज लेने ही आते हैं.आपके शुरुवाती दिनों में मैंने आपका लेखन पढ़ा है.आप अपने मन पसंद विषयों पर सार्थक लेखन कर रहे हैं.वास्तविक दुनिया हो नेट की आभासी दुनिया,छवि सकारात्मक ही होनी चाहिए.
PRO. PAWAN K MISHRA
19/05/2011 at 8:28 अपराह्न
जैसा कि कल वार्तालाप के दौरान मैंने कहा था मुझे आपकी छवि में एक सरल, सुधारवादी, और शाकाहार के प्रति समर्पित व्यक्ति नजर आता है जो स्वधर्म के प्रति चैतन्य है —
जी.के. अवधिया
19/05/2011 at 8:30 अपराह्न
हंसराज जी,आपके इस पोस्ट को पढ़कर अनायास ही फिल्म श्री 420 का एक दृश्य आँखों के सामने घूम गया जिसमें फिल्म का हीरो राजकपूर फटे हुए जूते और साधारण कपड़े पहन कर नरगिस के सामने आता है और नरगिस सिर्फ उसके कपड़ों के आधार पर उसे कुछ का कुछ समझ लेती है।प्रायः हम लोगों के साथ भी यही होता है कि हम किसी व्यक्ति को उसके लुक के आधार पर ही महत्वहीन या महत्वपूर्ण समझ लेते हैं। किसी व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व को सिर्फ वह व्यक्ति ही जान सकता है और कोई नहीं। उदाहरण के लिए मैं अपने बहुत पोस्ट में बहुत अच्छी बातें लिखता हूँ तो मेरे पाठक मुझे अच्छा व्यक्ति ही समझते हैं किन्तु वे यह कभी नहीं जान सकते कि मेरे भीतर कितना कलुष है जिसे मैंने छुपा रखा है। खैर, इस विषय पर तो एक पूरा पोस्ट ही लिखा जा सकता है।जहाँ तक आपके विषय में मेरे सोचने का सवाल है, आपके जो भी पोस्ट मैंने पढ़े हैं मुझे प्रेरणास्पद ही लगे हैं और उनके आधार पर आप मुझे भले व्यक्ति ही लगते हैं।अन्त में –"अपनी तुलना इस संसार के किसी अन्य व्यक्ति से कभी भी न करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो स्वयं का अपमान करते हैं।"एलेन स्ट्राइक
Kailash C Sharma
19/05/2011 at 8:49 अपराह्न
आप की कुछ पोस्ट्स पढीं और सुन्दर और विचारोत्तोजक लगीं. उनमें गहराई और और एक साफ़गोई थी.वैसे किसी के कहने से परिवर्तन लाने की क्या आवश्यकता है. आप जैसे हैं अपने आप को स्वीकारिये और जहां आपका मन आपको अपने व्यक्तित्व या स्वाभाव में बदलाव की आवश्यकता बतलाये, वहाँ अपने मन की सुनिये. बस अपनी गंभीर और सकारात्मक छवि को बनाए रखिये.
अजय कुमार झा
19/05/2011 at 9:02 अपराह्न
क्या कहूं सुज्ञ जी सोच में हूं । यहां पर हम किसी की भी छवि अगर अपने मन में बनाते हैं तो उसका आधार होता है , सिर्फ़ और सिर्फ़ उसका लेखन , उसकी शैली , उसका मंतव्य , उसकी भाषा , और उस पैमाने पर आप खरे हैं सोने से खरे ।
VICHAAR SHOONYA
19/05/2011 at 9:27 अपराह्न
श्रीमंत हंसराज सुज्ञ जी मेरी निगाह में आप एक ऐसे परंपरावादी विचारक हैं जो अपनी आस्थाओं और विश्वाशों पर दृढ है और हमेशा उन्हें समाज में स्थापित करने और विरोधियों से बचाने के लिए प्रयासरत रहता है. अभी तो यही कोशिश की है की कम शब्दों में सब कुछ समेट दूँ पर कहीं कुछ छूटता हुआ नज़र आयेगा तो आगे जोड़ दूंगा.
Global Agrawal
19/05/2011 at 9:52 अपराह्न
@कुछ नकारात्मक पता चले तो क्यों न छवि को सकारात्मक बनाने का प्रयोग किया जाय?अगर कुछ नकारात्मक पता चले तो मुझे भी बताना भाई लोगों , क्योंकि मुझे अभी तक मिला नहीं और मिलता तो मैं तो कहे बिना मानता भी नहीं(ये बात अलग है की मैं वो टिप्पणी हटवाने का अनुरोध भी कर देता )और बोलूं …….मुझे ब्लॉग जगत में आप , अमित भाई , अदा दीदी, रश्मि दीदी (और भी नाम हैं लेकिन अभी चार ही लिख रहा हूँ ) व्यवहार कुशलता में आइडियल लगते हैं , मतलब मेरे जैसे महा-बेवकूफ को अगर को भी कोई मित्रवत झेल ले तो ये तो सहन शीलता की पराकाष्ठा है :))एक बात और ………ब्लोगजगत में बिना ज्ञान और अनुभव के लोगों में गजब का अहंकार भरा होता है , आपकी विनम्रता के आगे हर बार खुद को और कईं लोगों को हमेशा छोटा पाया हैअनुरोध बस यही है : आप ऐसे ब्लोग्स पर कम जाया करें या ना ही जाया करें जिन पर लेखक / लेखिका अपने फालतू लेख को जस्टिफाई करने के लिए अपमान करने तक की हद पहुँच जाया करते हैं ..क्योंकि इससे हम मित्रों को तकलीफ होती है ..
Global Agrawal
19/05/2011 at 10:01 अपराह्न
~~~~ एक सात्विक क्रांतिकारी ~~~और हाँ आपने अकेले दम पर ही शुरुआत करके ग्रुप ब्लोगिंग को एक नयी उच्च स्तरीय पहचान दी है मैं तो आपको एक सात्विक क्रांतिकारी के रूप में भी मानता आया हूँ और मुझे यकीन हगे की ब्लॉग जगत सदैव इसके लिए आपका ऋणी रहेगा / रहना चाहिएमित्रों ,मैं इस ब्लॉग की बात कर रहा हूँhttp://niraamish.blogspot.com/सही मायनों में ग्रुप ब्लोगिंग किसे कहते हैं/ कहना चाहिए यहाँ देखने को मिल सकता है
Global Agrawal
19/05/2011 at 10:02 अपराह्न
*मुझे यकीन है की
Global Agrawal
19/05/2011 at 10:09 अपराह्न
जो दिल में था लिख दिया ….. नेगेटिव लगने वाली कोई भी बात होती तो जरूर बताता /बताउंगा…..
शिखा कौशिक
19/05/2011 at 10:14 अपराह्न
sugya sahab main diplomat nahi hoon jo vastvikta thi vahi bayan kee thi.
Global Agrawal
19/05/2011 at 10:16 अपराह्न
आपकी छवि पोस्ट के 'गागर' में ज्ञान का 'सागर' भरने वाले विद्वान लेखक के रूप में भी है
Deepak Saini
19/05/2011 at 10:47 अपराह्न
~~~~ एक सात्विक क्रांतिकारी ~~~Global Agrawal जी ने मेरे मन की बात इन तीन शब्दों में कह दी है
सतीश सक्सेना
19/05/2011 at 11:33 अपराह्न
"एक सरल ह्रदय इंसान !"
Rakesh Kumar
19/05/2011 at 11:37 अपराह्न
मैंने जो आपके लेखों और टिप्पणियों के द्वारा जाना अबतक वह यह कि(१)आप अहिंसा के पुजारी शाकाहार को समर्पित जीवंत व्यक्तित्व हो(२)आपकी सोचने की पद्धति सकारात्मक व विश्लेषणात्मक है.(३)आप दूसरों की प्रशंसा मुक्त भाव से करतें हैं ,और अपना पक्ष भी तार्किक ढंग से प्रस्तुत करते हैं.ऐसा मैंने 'ग्लोबल'भाई के ब्लॉग पर आपको करते पाया था,जिससे आकर्षित होकर ही मेरा आपके ब्लॉग पर आना जाना हुआ.(४)आपकी कविताओं में भक्ति,समर्पण और सात्विक भावों का दर्शन होता है.(५)आपके लेखों में मैं कभी कभी व्यंगात्मक शैली के माध्यम से गहन कटाक्ष के भी दर्शन करता हूँ.कुल मिलाकर मेरा तो यही मानना है कि आप नित्य सीखने की अभिलाषा लिए स्वयं और समाज के उत्थान के लिए सजग व तत्पर हैं और आपसे मैं ऐसी ही आशा भी करता हूँ.मेरी दृष्टि में ऐसा कोई दोष आपमें अभी नजर नहीं आ रहा है,जिसको की मैं यहाँ वर्णित करूँ.तथापि यदि आपके आकलन में मुझ से कोई भूल हुई हो तो क्षमा चाहता हूँ.
संगीता स्वरुप ( गीत )
20/05/2011 at 12:39 पूर्वाह्न
सुज्ञ जी , ब्लॉग जगत में हम एक दूसरे से पहचान उनके विचारों से ही करते हैं …और एक छवि बना लेते हैं … आपके लेख और अन्य ब्लोग्स पर आपकी दी गयीं टिप्पणियाँ एक शिष्ट और संतुलित व्यवहार को दर्शाती हैं …बाकी हर व्यक्ति का अपना व्यक्तित्त्व होता है उसे बदलना क्यों ?
डॉ॰ मोनिका शर्मा
20/05/2011 at 6:01 पूर्वाह्न
सकारात्मक सोच वाले स्पष्टवादी व्यक्ति लगते हैं…..
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
20/05/2011 at 8:27 पूर्वाह्न
स्वयम् को बनाने और बदलने का अधिकार व्यक्ति का है, छवि को दूसरे बनाते और बदलते हैं।
Kunwar Kusumesh
20/05/2011 at 10:25 पूर्वाह्न
यूँ तो हर आदमी का एक स्वभाव होता है जो उसकी मौलिकता को प्रमाणित करता है.आदमी सभी की तरह अपने को नहीं ढाल सकता और ढालना भी नहीं चाहिए, हाँ,सकारात्मक परिवर्तन ज़रूरी विषय है. आपने विचार आमंत्रित करते हुए सकारात्मक परिवर्तन की बात सोंची ये आपकी साफ़ और सुलझी सोंच को दर्शाता है.आप की सोंच को सलाम.
मनोज कुमार
20/05/2011 at 11:22 पूर्वाह्न
ज़माने में उसने बड़ी बात कर लीख़ुद अपने से जिसने मुलाक़ात कर लीबस!हम तो जो भी आपको समझे हैं आपकी रचनाओं से, और वहीं पर अपनी बातें कह दी हैं। लोगों के विचार उसके व्यक्तित्व को ही तो बताते हैं। अगर कहीं कुछ ऐतराज़ वाली बात होती तो वहीं कह दिया होता। एक और शे’रजान पाया ना बहुत अपने मुतल्लिक मैं, मगरलोग कहते हैं – तुम हमें जानते अच्छी तरह।
निर्मला कपिला
20/05/2011 at 1:43 अपराह्न
यूँ तो आभासी दुनिया मे जो होता है दिखता नही और जो दिखता है होता नही। फिर भी आपकी छवि मेरे मन मे निहायत ही मधुरभाशी सुह्रदय और सूझवान व्यक्ति की है। लिखना तो बहुत कुछ चाहती हूँ लेकिन आज कल एक हाथ से ही लिख पा रही हूँ इस लिये एक आध ब्लाग पर ही टिप्पणी कर पाती हूँ । जल्दी दायाँ हाथ सही होते ही हाज़िर होती हूंम। शुभकामनायें।
Er. Diwas Dinesh Gaur
20/05/2011 at 3:05 अपराह्न
हंसराज भाई मुझे अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है आपसे परिचित हुए…अभी तक आपके ब्लॉग निरामिष के द्वारा आपको जाना है…आपके इस ब्लॉग "सुज्ञ" पर प्रथम बार आना हुआ…बिना कोई लेख पढ़े मैंने इस ब्लॉग का अनुसरण किया इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अभी तक की आपकी छवि मेरे मन में कैसी है…निरामिष पर आपने मुझे आमंत्रित किया…वहां आपको पढ़ा तो यह जाना कि आप निर्दोष जीवों पर की जाने वाली हिंसा के विरोधी हैं…आप जीव दया का पक्ष रखते हैं…आप शाकाहार का समर्थन करते हैं…इन सब विचारों के बाद यह तो पक्का ही है कि आप एक सात्विक पुरुष हैं…जियो और जीने दो की विचारधारा का पक्ष रखते हैं…आप निर्मल ह्रदय वाले मानव हैं…यह मेरा विचार है…आगे जैसे-जैसे आपको पढेंगे आपको जानते जाएंगे…
Sujata
20/05/2011 at 3:24 अपराह्न
apni chhbi banane wala insaan swayam hota hai.. bus achhe karm karte raho, kaun bura kahega…bahut badiya laga aapka aalekh…
कौशलेन्द्र
20/05/2011 at 3:27 अपराह्न
मेरी छवि ….के प्रति लोगों की धारणा ?……इस उत्सुकता का कारण ? ……….ताकि परिवर्तन किया जा सके ! …………………परिवर्तन का उद्देश्य ? ……….श्रेष्ठ छवि का निर्माण ! श्रेष्ठता का लोभ हर किसी को है. किन्तु यह लोभ अहम् को जन्म दे सकता है. सीता स्वयंवर के समय विप्र परशुराम ने राम की परीक्षा के लिए उन्हें अपना धनुष प्रत्यंचा चढाने के लिए दिया. राम ने प्रत्यंचा तो चढ़ा दी पर कहा- हे प्रभु ! अब शर का लक्ष्य भी बताइये. परशुराम सोच में पड़ गए पर तभी उन्होंने विचार कर कहा – इस शर का लक्ष्य मेरे समस्त पुण्य हों. उन्होंने आव्हान किया कि उनके अन्दर से श्रेष्ठता का भाव समाप्त कर दिया जाय. परशुराम के मन में अपनी कठोर तपस्याओं के कारण एक श्रेष्ठता का भाव आ गया था. इस श्रेष्ठता में एक विकलता थी. श्रेष्ठता का बोध असहज होता है ….वह प्रकृक्तिस्थ नहीं रहने देता. सहज मानवीय विकार है …परशुराम को विकलता थी इसे लेकर … आज अवसर मिल गया तो तो वे चूके नहीं …सोचा, इस विकलता के मूल को ही समाप्त कर दिया जाना चाहिए . उन्होंने शरसंधान के बहाने राम से अनुरोध किया कि उनके अन्दर से श्रेष्ठता का भाव समाप्त कर दिया जाय. ब्राह्मणों के लिए एक बहुत बड़ी सीख दे गए परशुराम जी .यह तो हुयी आख्यान की बात, अब मूल बात पर आते हैं- हम जैसी छवि चाहें…. दूसरों के सामने वैसी ही बना सकते हैं. पर यह आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया नहीं है. वस्तुतः छवि होती है ऑब्जर्वर के लिए. हमें तो आत्म-अवलोकन ही करना है. अपने प्रतिद्वंदी हम स्वयं हैं. हमें हम से बेहतर और कौन जान सकता है भला !….और क्या परिवर्तन करना है यह भी खुद से बेहतर और कौन बता सकता है? दूसरे जो बताएँगे उसमें उनका आकलन होगा …उनकी विश्लेषक बुद्धि होगी ….वह आभासी रिपोर्ट होगी ….वास्तविक रिपोर्ट तो अपने ही पास है. और दूसरों की रिपोर्ट से हमें क्या लेना देना ? हमारे साध्य और साधन हमें स्वयं निर्धारित करने होंगे .
rashmi ravija
20/05/2011 at 6:26 अपराह्न
मुझे गौरव के ब्लॉग पर आपसे हुआ विमर्श याद है….आपने मेरी बातों को सकारात्मक तरीके से लिया था और मत भिन्नता होते हुए भी…दूसरे का पक्ष समझने की कोशश की थी…यह एक सकारात्मक गुण ही है…..नकारात्मक तो कुछ नज़र आया नहीं…इसलिए सुधार की कोई गुंजाईश नहीं :)…ऐसे ही open minded बने रहिए बस.
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
20/05/2011 at 8:02 अपराह्न
हंसराज जी!एक बड़ी विकत समस्या रख दी है आपने. ईश्वर को साक्षी मानकर कहूँ तो जब भी आपको पढता हूँ, स्वयं के छोटेपन का एहसास होता है.
"अमित शर्मा-Amit Sharma"
20/05/2011 at 8:53 अपराह्न
सुग्यजी,भला प्रश्न पूछा है आपने 🙂 …………………….. आत्मवलोकन करना ठीक ही रहता है जीवन में. आप स्वयं में क्या है इसका विश्लेषण तो आप ही यथार्थपरक कर सकतें है दूसरे सिर्फ आपसी संबंधो के धरातल पर ही इसका निर्धारण करतें है, जो की समयानुसार घटित व्यवहार से व्यक्त होता है.जैसे की मैंने आपको हमेशा सत्य-मार्ग अन्वेषी के रूप में पाया है, किसी विषय पर संतुलित और सारगर्भित चिंतनपरक मत आपकी अध्यनशीलता भी दर्शातें हैं. ब्लॉग पटल पर अपने दोनों ब्लोगों सहित निरामिष जैसा साझा ब्लॉग आपके सत्प्रयासों और निरंतर गतिशीलता को व्यक्त करता है. मेरे निजी व्यवहार में आपने हमेशा बड़े होने के नाते शुभ सलाह और कुशल मार्गदर्शन दिया है, और एक पारिवारिक सुहृदय की भांति समय समय पर फोन पर भी हमेशा हाल चाल जानते रहतें है. अतः मेरे आंकलन में आप निष्पक्ष, ज्ञानापेक्षी और सरल ह्रदय हैं. परन्तव आपका स्वयं का अंतःकरण क्या आंकलन प्रस्तुत करता है. वही आपके जीवन की दिशा निर्धारित कर सकता है, दूसरों का आंकलन भ्रमित भी कर सकता है पर आत्मवलोकन भ्रमों का नाश करता है. प्रणाम सहित
कौशलेन्द्र
20/05/2011 at 9:50 अपराह्न
नहीं ! वैचारिक चेतना का सदा सही सम्प्रेषण नहीं हो पाता …संभव भी नहीं है ……क्योंकि संप्रेषक और ग्रहीता दोनों की मनः स्थितियाँ एक ही स्तर पर हों यह आवश्यक नहीं. एक कलाकृति से कुछ दूरी पर गोलाई में लोगों को बैठाया जाय और उनसे दृष्टव्य भाग का चित्र बनाने को कहा जाय तो आपको सम्पूर्ण कलाकृति के स्थान पर उसके आंशिक भागों के चित्र प्राप्त होंगे. जबकि कलाकृति अपने में सम्पूर्ण है . ओब्जर्वर्स का भी दोष नहीं है क्योंकि वे वही ग्रहण कर रहे हैं जो उन्हें उनकी स्थिति में संप्रेषित हुआ है. आर्ष ग्रंथों का न जाने कितने लोगों ने पठन-पाठन किया होगा…..किन्तु वेदों को पढ़कर ज्ञानी कितने हो पाए ?
JC
21/05/2011 at 8:16 पूर्वाह्न
अनादि काल से चला आया है यह प्रश्न कि मैं कौन हूँ ? इस का उत्तर प्राचीन ज्ञानी हिन्दुओं, 'पहुंची हुई आत्माओं', 'सिद्ध पुरुषों', के अनुसार साधारण कहानियों में भी दर्शाया गया है, "मैं और आप सभी ब्रह्मा हैं" !,,, अथवा "मैं शिव हूँ" !!!यदि गहराई में मुझे जाना है तो मैं उनके अन्य विचार भी पढ़कर जानना चाहुंगा कि ये 'ब्रह्मा', अथवा 'शिव' कौन हैं ? जो 'मैं' समझता हूँ 'मैं' (संस्कृत भाषा में 'अहम्', जिसका अर्थ गर्व भी माना गया) जान पाया हूँ उसके अनुसार सूर्य ही ॐ द्वारा प्रदर्शित सृष्टिकर्ता, निराकार ब्रह्म के एकमात्र साकार रूप (संख्या में '३'), ' त्रेयम्बकेश्वर ' (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) के, 'गुरु ब्रह्मा' हैं ! और 'शिव' (अस्थायी साकार की मृत्यु का कारण, 'विष' का उलटा, यानि अमृत, अनंत परमात्मा का अंश) हर साकार के भीतर व्याप्त अनंत 'आत्मा' है, जिसे हम चार अरब से भी अधिक समय से शून्य में उपस्थित 'महाशिव', यानि सौरमंडल के सदस्यों, अथवा 'शिव', यानि ब्रह्माण्ड के सार भौतिक पृथ्वी और उसके केंद्र में उपस्थित गुरुत्वाकर्षण शक्ति (विष्णु = विष + अणु) द्वारा अनुमान लगा सकते हैं (ब्रह्मा सृष्टि कर्ता, और शिव संहार कर्ता दर्शाए जाते आये हैं, जबकि शक्ति रूप, नादबिन्दू विष्णु, पालन कर्ता)…आदि आदि…
ZEAL
21/05/2011 at 10:30 पूर्वाह्न
जितना मैंने अभी तक आपको जाना है– आप एक भावुक , संवेदनशील , कविमन रखने वाले गंभीर लेखक हैं।आपका रुझान अध्यात्म की तरफ है,
JC
21/05/2011 at 11:04 पूर्वाह्न
'निरामिष' को (और "मुर्गी पहले आई कि अंडा"? को) ध्यान में रख प्राचीन 'हिन्दू' सम्पूर्ण सृष्टि को ' ब्रह्माण्ड ' कह गए, क्यूंकि ' अंडा ' प्रतिरूप माना जा सकता है 'अजन्मे परमात्मा ' का, निराकार शक्ति (' अग्नि ') रूप में सभी अनंत पंचतत्वों से बने हरेक साकार प्रतीत होते रूपों में भी व्याप्त 'परम जीव' का जो वास्तव में शून्य काल और स्थान से सम्बंधित है,,, यानि सृष्टि की ' रचना ' और उसका ध्वंस अथवा संहार होना – ' चुटकी बजाते ' समान, शून्य काल में ही हो गया होगा !…' वर्तमान ' में तकनीक के क्षेत्र में कैमरा आदि की प्रगति और उत्पत्ति के सन्दर्भ में इसे सोचें तो यह ऐसा ही है जैसे धोनी आदि बल्लेबाजों के छक्कों का, और उनके आउट होने का आनंद भी, टीवी पर बार बार देखा जाना, यानी निराकार का साकार के माध्यम से अपना इतिहास देख पाना, ऊर्जा से आरंभ कर अमृत सौर-मंडल की उत्पत्ति तक (' योगनिद्रा ' में ! जिसमें 'आप' और 'हम' भी कुछ योगदान दिए होंगे !)…
विरेन्द्र सिंह चौहान
21/05/2011 at 4:32 अपराह्न
– मैं अमित शर्मा जी के कमेन्ट से पूरी तरह सहमत हूँ. मेरे विचार भी इसी तरह के हैं साथ ही आपके लेख पढ़कर आप की जो छवि मेरे दिमाग़ में बनी उसके अनुसार ये कहना चाहूँगा कि आप न केवल एक बहुत बड़े विद्धान हैं बल्कि बेहद उम्दा इंसान भी हैं. वैसे आपके अन्दर की ख़ूबियों का वर्णन करना मेरे बस में नहीं हैं इसीलिए सरल और कोमल ह्रदय वाले सुज्ञ जी को ढेरों शुभकामनाएँ देते हुए अपनी बात यहीं ख़त्म करता हूँ.
Patali-The-Village
21/05/2011 at 7:52 अपराह्न
सकारात्मक सोच वाले स्पष्टवादी व्यक्ति लगते हैं|शुभकामनायें।
आनन्द पाण्डेय
21/05/2011 at 9:06 अपराह्न
भवान् यत् किमपि अस्तिहिन्दुजगत: एका आशा अस्ति ।आप जो कुछ भी हैं , हिन्दूधर्म की आशा हैं ।आपके लेख अत्यन्त प्रभावी होते हैं, सबसे अच्छी बात यह है कि आप हमेशा कुछ नया और अच्छा लिखते हैं और जहाँ हिन्दू धर्म की बात आती है वहाँ आप स्वत्व का मद छोडकर सनातन हो जाते हैं । मैं तो आपको अपने परम मित्रों में एक मानता हूँ जो चिट्ठाजगत की शान हैं ।बस इतना ही कहूँगा ।अलम् अति विस्तरेणधन्यवाद:
प्रतुल वशिष्ठ
22/05/2011 at 8:14 पूर्वाह्न
सभी की टिप्पणियाँ पढीं.. कौशलेन्द्र जी ने एक आख्यान से काफी कुछ कह दिया है… आपने ब्लॉग-स्थली पर काफी तप किया है उससे आपमें एक श्रेष्ठता का भाव कहीं जन्म न ले बैठा हो?.. इसका शीघ्र आत्म-अवलोकन करें… यदि उसकी उपस्थिति पायें तो किसी राम की तलाश कर उसे अपना आध्यात्मिक धनुष देकर उसपर शर-संधान करवायें… हाँ, लक्ष्य बताना न भूलें. मुझे प्रतीत होता है कि इस तरह के प्रश्न सुधारकों, चिंतकों और जन नायकों के भीतर स्वभावतः उठते ही हैं.. वे अपनी कीर्ति के दर्शन कर लेना चाहते हैं… पर हाय! कीर्ति साकार नहीं.. और न ही मिलती प्रशंसा से उन्हें संतुष्टि मिलती है… इसलिये इस 'छवि परिवर्तन प्रयोग' पोस्ट के बहाने से आपने यशेषणा की प्यास बुझानी चाही है. आप भी जानते हैं कि आपकी सुगंध कितनी दूरियाँ तय कर चुकी है फिर क्यों आप उस सुगंध को एक छोटे से पैमाने से नपवा लेने पर तुले हैं.
Global Agrawal
23/05/2011 at 11:18 पूर्वाह्न
ये मैं पाण्डेय जी के ब्लॉग कोपी पेस्ट कर रहा हूँ …"हाँ मन में आयी बात को यदि आप यथावत बिना लाग लपेट के कहना ही चाहते हैं तो स्पष्ट कहें क्योंकि मैं लोगों के मन में छिपी बातों को नहीं पढ़ पाता."इस पर ध्यान दें"क्योंकि मैं लोगों के मन में छिपी बातों को नहीं पढ़ पाता"आज लोगों के मन कोम्प्लेक्स होते जा रहे हैं , आप चाह कर भी पता नहीं लगा पाते की आपकी कौनसी बात किसी को चुभ सकती हैमुझे तो लगता है पोस्ट इसी आधार पर बनी है , और ये भी की मैं ऐसी पोस्ट नहीं लिख सकता क्योंकि मेरा दिल इतना बड़ा नहीं कोई मुझे सुना कर जाए और मेरी सुन कर ना जाये :)) मतलब ये मुझमें कमीं ही हैबाकी सभी टिप्पणियाँ विचारणीय है, क्योंकि सभी बिना लाग लपेट के की गयी लगती हैं , मित्र ऐसे ही होने चाहिए .. जो दिल में हो साफ़ कह दें
देवेन्द्र पाण्डेय
23/05/2011 at 11:13 अपराह्न
मै सभी से कुछ न कुछ सीखता रहता हूं। आपके ब्लॉग के रूप में ज्ञान का नया मार्ग मिला है…अभी पूर्णतया समझना शेष है।
Markand Dave
27/05/2011 at 1:00 पूर्वाह्न
आदरणीय श्रीहंसराजजी,मेरी नज़र में अपने आपका निरिक्षण करने का मन में भाव प्रकट होना ही, उम्दा मानव होने का परिचय है । आपके इस उम्दा भाव का समर्थन करते हुए,महान ग्रीक फिलोसोफर एरिस्टोटल ने भी` पढ़ाई के साथ ही स्वयं की घड़ाई ।` करने की भारतीय परंपराओं का समर्थन किया है ।सन-१९७१ में जन्मे अमेरिकन लेखक डोनाल्ड मिलर की बेस्ट सेलर किताब,`A Million Miles in a Thousand Years, (सब टायटल) , What I Learned While Editing My Life.`में भी स्वयं निरीक्षण द्वारा जीवन प्रणाली का सदैव ऍडीटींग करते रहने की बात का उन्होंने भी पुरजोश समर्थन किया है ।पुरी किताब का केन्द्रवर्ती विचार यही है की," अच्छा जीवन जीने के लिए मानसिक शक्तियों पर, सत्कर्म द्वारा, सहेतु दबाव डालकर, सही ढंग से जीने की, बेहतर जीवन गाथा लिखी जा सकती है ।""यार हमारी बात सुनो,ऐसा एक इन्सान चुनो, जिसने पाप ना किया हो जो पापी ना हो । इस पापन को आज सजा देंगे, मिलकर हम सारे, लेकिन जो पापी ना हो वह पहला पत्थर मारे । पहले अपना मन साफ़ करो फिर औरोंका इन्साफ़ करो । यार हमारी….!!"यह सुंदर गीत के बोल में, स्वयं निरीक्षण करने ही बात पर ज़ोर दिया गया है ।ख्रिस्ती धर्म में इस महान सत्य को सुंदर ढंग से उजागर किया गया है,"The heart is deceitful above all things, and desperately wicked: who can know it?" (Jeremiah 17:9)अर्थात – "दुन्यवी बातों की ओर, हृदय कपटी, धोखेबाज़ और भ्रम पैदा करनेवाला, ला-इलाज, पापी और अवगुण से भरा होता है । आजतक उसे कौन जान पाया है?"समाज को अगर अपनी पहचान विकृत नहीं करनी है तो, अंधकार से भरे इस माहौल में, अपने स्वयं निरीक्षण के द्वारा, स्पष्ट विचारों की रौशनी चारों ओर फैला कर इस अंधकार को दूर करने का सफ़ल प्रयास निरंतर करना चाहिए ।ईश्वर आपकी स्वयंनिरिक्षण की ये मनोकामना पूर्ण करें,यही शुभकामनाओं के साथ..!!
kapoor jain
15/01/2013 at 10:59 अपराह्न
परिवर्तन संसार का नियम …और रही बात छवि और अपने बारे में दुसरो के विचारो को जानने की तो …जहा तक मेरा अनुभव रह रहे है …समय के साथ लोगो के विचार और धरना अपने आप बदल जाती ….बस हम अपना करनीय काम करते रहे …जय जिनेश्वर …