जो मनुष्य, जीव (आत्मा) के अस्तित्व को मानता है, उसके लिए जीवन के लक्ष्य को खोजने की बात पैदा होती है। जो मनुष्य जीव के अस्तित्व को नहीं मानता या मात्र इस भव (मनुष्य जीवन) जितना ही इस जीवन को मानता है तो उसके लिए कमाना, खाना और मज़े (विलास) करना ( Like : ‘Eat, Drink and be merry’) यह बाह्य बातें ही जीवन-लक्ष्य होती है। अगर चिंतक नास्तिक हुआ तो कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा आदि को भी अपने जीवन का लक्ष्य मान सकता है। किन्तु यह उच्च कक्षा के नैतिकता सम्पन्न नास्तिक के विषय में ही समझना चाहिए।
इसी प्रकार जिन जीवों को कुछ भी तत्व जिज्ञासा नहीं है, वे जीव भी बाहर के लक्ष्य में ही खो जाते है। ऐसे जीव बहिरात्मा है। वे स्थूल लक्ष्यों को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते है। परन्तु जिन्हें जीव के त्रैकालिक अस्तित्व में विश्वास है, वह चिंतन के माध्यम से अपने जीवन-लक्ष्य का निर्धारण करता है।
वह सोचता है कि जो सामान्य मनुष्य खाने –पीने-विलास में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं, क्या मुझे भी वैसे ही जीवन व्यतीत कर देना है? – ऐसा जीवन तो मात्र मृत्यु के लक्ष्य से ही जिया जाता है। जन्म लेना और भोग-भाग कर मर जाना? यह तो मेरे जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। अथवा फिर नाम अमर रखने का लक्ष्य भी नहीं हो सकता।क्योंकि उस नाम-अमरत्व का मेरी आत्मा को कोई फायदा मिलना नहीं है। जन्म और मृत्यु के मध्य का काल किसी विशिष्ठ पुरूषार्थ के प्रयोजनार्थ है। इसलिए मेरे जीवन का कोई ऐसा उत्तम लक्ष्य अवश्य होना चाहिए, जिससे मेरा जीवन सार्थक हो। यदि वह ज्ञानियों के वचनों के बल से अपने जीवन के लक्ष्य को खोजता है, तो वह निर्णय करता है कि मेरी आत्मा की शक्तियों का चरम और परम विकास करना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है।
हमारे इस विकास में मुख्य बाधक कारण है- हमारे विकार। अतः हमें दो साधनो को अपनाना होगा। पहला साधन है- विकारों पर विराम। और दूसरा साधन है- गुणों के समरूप भावों का आराधन। विकारों के विराम हेतू व्रत-नियम-संयम है और आत्मा में सद्गुणों के उत्थान हेतू ज्ञान-दर्शन-चरित्र का आराधन है। इसी साधना का चरम बिंदु सत्-चित-आनंद अवस्था होगी। इसी से मोक्ष रूप लक्ष्य की सिद्धि होती है।
ललित "अटल"
17/05/2011 at 6:51 अपराह्न
जीवन मुल्यो पर शानदार प्रस्तुति, बधाई हो सुज्ञ जी
रश्मि प्रभा...
17/05/2011 at 9:22 अपराह्न
jivan lakshy kee sukshm prastuti
Rakesh Kumar
17/05/2011 at 10:48 अपराह्न
हमारे इस विकास में मुख्य बाधक कारण है- हमारे विकार। अतः हमें दो साधनो को अपनाना होगा। पहला साधन है- विकारों पर विराम। और दूसरा साधन है- गुणों के समरूप भावों का आराधन। विकारों के विराम हेतू व्रत-नियम-संयम है और आत्मा में सद्गुणों के उत्थान हेतू ज्ञान-दर्शन-चरित्र का आराधन है। इसी साधना का चरम बिंदु सत्-चित-आनंद अवस्था होगी। सुन्दर,सार्थक अनुपम चिंतन.साधना का चरम बिंदु 'सत्-चित-आनंद'अवस्था ही होगी.शानदार प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.
डॉ॰ मोनिका शर्मा
18/05/2011 at 6:01 पूर्वाह्न
सार्थक और अनुकरणीय पोस्ट…. आभार इन सुंदर विचारो के लिए
Patali-The-Village
18/05/2011 at 8:37 अपराह्न
जीवन मुल्यो पर सार्थक और अनुकरणीय प्रस्तुति|धन्यवाद|
कौशलेन्द्र
18/05/2011 at 9:16 अपराह्न
यह सूत्र प्रस्तुत कर एक बड़ी समस्या का समाधान कर दिया है आपने सुज्ञ जी ! आराधना का प्रकार और कोटि कैसी होनी चाहिए ….लोग इसमें भ्रमित हो जाते हैं.