(निराशा, विषाद, अश्रद्धा के बीच जीवट अभिव्यक्ति : प्रार्थना)
॥समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
आत्मश्रद्धा से भर जाऊँ, प्रभुवर ऐसी भक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
कईं जन्मों के कृतकर्म ही, आज उदय में आये है।
कष्टो का कुछ पार नहीं, मुझ पर सारे मंडराए है।
डिगे न मन मेरा समता से, चरणो में अनुरक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
कायिक दर्द भले बढ जाय, किन्तु मुझ में क्षोभ न हो।
रोम रोम पीड़ित हो मेरा, किंचित मन विक्षोभ न हो।
दीन-भाव नहीं आवे मन में, ऐसी शुभ अभिव्यक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
दुरूह वेदना भले सताए, जीवट अपना ना छोडूँ।
जीवन की अन्तिम सांसो तक, अपनी समता ना छोडूँ।
रोने से ना कष्ट मिटे, यह पावन चिंतन शक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
प्रतुल वशिष्ठ
19/04/2011 at 8:18 अपराह्न
सुज्ञ जी, एक-एक कामना अति उत्तम है, तपश्चर्या में ऐसे ही भाव साधक मन में धारण करता है. ऐसे ही कुछ भाव हमारे मन में विचरा करते हैं. कष्ट घूमते आस-पास तब सच में थोड़ा डरते हैं. इसीलिए समता पहनावा सिलने को इत भेजा है अच्छी फिटिंग कर दें दर्जी, दुःख से फिर हम लड़ते हैं.
Rakesh Kumar
19/04/2011 at 9:27 अपराह्न
श्रेष्ठ सुन्दर भावों की अनुपम अभिव्यक्ति.समता के उच्च भाव के लिए धीरज,धर्म और विवेक के साथ प्रभु कृपा की अति आवश्यकता है,प्रभु कृपा से ही अहं गल कर समता का भाव आ पाता है.इस उत्तम प्रभु को स्मरण कराती प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार.
राज भाटिय़ा
19/04/2011 at 10:23 अपराह्न
यह तो हमे एक सुंदर प्राथना लगी जी, बहुत अच्छी ओर पबित्र. धन्यवाद
ZEAL
20/04/2011 at 8:53 पूर्वाह्न
.कईं जन्मों के कृतकर्म ही, आज उदय में आये है।कष्टो का कुछ पार नहीं, मुझ पर सारे मंडराए है।डिगे न मन मेरा समता से, चरणो में अनुरक्ति दो।समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥——-अपने मन की पीड़ा किसी से कहनी नहीं चाहिए , सिवाय दो लोगों के। * माता पिता से * गुरु से गुरु तो आजकल मिलते नहीं। और माता पिता सभी खुशनसीबों के पास होते हैं। इसलिए जब कभी मन उदास हो या पीड़ा असह्य हो जाए तो माता-पिता के सिवाय किसी के साथ साझा नहीं करना चाहिए , क्यूंकि अक्सर व्याकुल मन को जो चाहिए होता है , वो नहीं मिलता, बल्कि थोड़ी देर की सहानुभूति या फिर ढेरों समझाइशें या फिर आपमें ही ये कमी है , जिसके कारण ऐसा हुआ , सुनने को मिलता है।किसी का दुःख साझा करने के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए , वो भी आपके लिए स्नेह से लबालब भरा होना चाहिए। तभी उसके साथ अपने मन की व्यथा कहनी चाहिए। अन्यथा अल्पकालिक आराम तो वो दे देगा आपको अपने सहानुभूतिपूर्ण वचनों से। लेकिन अक्सर उन जानकारियों का गलत इस्तेमाल ही करेगा , जब खुद नाराज़ हो जाएगा तब।इसलिए जब मन व्यथित हो तो स्वयं के साथ थोडा समय गुजारना चाहिए। जब मन में स्फूर्ति वापस आ जाये , तभी मित्रों और सहयोगियों से कुछ कहें। थोडा वक़्त दुखों को जीतने में भी लगाना चाहिए। जब हम अपने दुखों के साथ लड़ना सीख जाते हैं तो दुःख में भी सुख की अनुभूति होने लगती है।और हाँ एक विशेष बात – जब हम दुखी होते हैं तो हमें कोशिश करनी चाहिए की हम अपने मित्रों को परेशान ना करें। अपने दुःख उनसे कहकर हम उनपर भी दुःख का बोझ अनायास ही डाल देते हैं। वो कुछ कर भी नहीं सकेंगे और परेशान भी हो जायेंगे। हो सकता है वो आपके हित में कुछ कहें और आपको पसंद न आये तो दोनों का मन उदास होगा। इसलिए बेहतर यही है की मन की व्यथा को पिया जाए और नीलकंठ बना जाए।.
सुज्ञ
20/04/2011 at 12:39 अपराह्न
दिव्या जी,आपनें तो जैसे मेरे मन को ही अभिव्यक्त कर दिया।विषाद के क्षणों में पूर्ण संतुलन से स्वयं को ही मंथन कर सहज बनना ही उत्तम है। क्यों कि जगत का कोई भी दुख जो किसी की सलाह या साझा करने पर दूर हो सकता है उस दुख को हम स्वयं स्वतः ही समाधान दे सकते है।
Navin C. Chaturvedi
20/04/2011 at 7:14 अपराह्न
बड़ी ही मासूम और हितकारी कामना है आपकी| आमीन|
रश्मि प्रभा...
22/04/2011 at 10:31 पूर्वाह्न
डिगे न मन मेरा समता से, चरणो में अनुरक्ति दो।समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दोprabhu bas itna ker do
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)
05/05/2011 at 6:03 अपराह्न
प्रार्थना में शब्दों और सुरों का संगम बहुत बढ़िया है!
ललित "अटल"
05/05/2011 at 7:17 अपराह्न
सुंदर अभिव्य्क्ति
Udan Tashtari
07/05/2011 at 10:38 अपराह्न
उत्तम रचना…..सुनकर और भी अच्छा लगा.