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जीवन का लक्ष्य

04 मई
जो मनुष्य, ‘जीव’ (आत्मा) के अस्तित्व को मानता है, उसी के लिए जीवन के लक्ष्य को खोजने की बात पैदा होती है। जो मनुष्य जीव के अस्तित्व को नहीं मानता या मात्र इस भव (मनुष्य जीवन) जितना ही इस जीवन को मानता है तो उसके लिए कमाना, खाना और मज़े करना ( जैसे : Eat, Drink and be merry) यह बाह्य बातें ही जीवन लक्ष्य होती है। अगर चिंतक नास्तिक हुआ तो कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा आदि को भी अपने जीवन का लक्ष्य मान सकता है। किन्तु यह उच्च श्रेणी के नैतिकता सम्पन्न नास्तिक के विषय में ही समझना चाहिए।
 
इसी प्रकार जिन जीवों को कुछ भी तत्व जिज्ञासा नहीं है, वे जीव भी बाहर के लक्ष्य में ही खो जाते है। ऐसे जीव बहिरात्मा है। वे स्थूल लक्ष्यों को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते है। परन्तु जिसे जीव के त्रैकालिक अस्तित्व में विश्वास है, वह चिंतन के माध्यम से अपने जीवन लक्ष्य का निर्धारण करता है।

वह सोचता है कि सामान्य मनुष्य जैसे- खाने,पीने और मज़े करने में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं, क्या मुझे भी वैसे ही जीवन व्यतीत कर देना है? – ऐसा जीवन तो मात्र मृत्यु के लक्ष्य से ही जीया जाता है। जन्म लेना और भोग-भाग कर मर जाना तो मेरे जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। अथवा मात्र नाम अमर रखने का लक्ष्य नहीं हो सकता, क्योंकि उस नाम-अमरता का मेरी आत्मा को कोई फायदा मिलना नहीं है। जन्म और मृत्यु के मध्य का काल किसी विशिष्ठ पुरूषार्थ के प्रयोजनार्थ है। इसलिए कोई ऐसा उत्तम लक्ष्य मेरे जीवन का अवश्य होना चाहिए, जिससे मेरा जीवन सार्थक हो। जब वह ज्ञानियों के वचनों के बल से, अपने जीवन लक्ष्य को खोजता है, तो वह निर्णय करता है कि मेरी आत्मा की शक्तियों का चरम और परम विकास ही मेरे जीवन का लक्ष्य है

हमारे विकास में मुख्य बाधक कारण है- हमारे विकार। अतः मुझे दो साधनो को अपनाना होगा। पहला साधन है- विकारों का विराम। और दूसरा साधन है- मेरे गुणों के समरूप भावों का आराधन। विकारों के विराम हेतू व्रत-नियम-संयम है और आत्मा के सद्गुणों में उत्थान हेतू ज्ञान-दर्शन-चरित्र का आराधन है। इसी से मोक्ष रूप लक्ष्य की सिद्धि होती है। वही सत्-चित-आनंद अवस्था होगी।

 

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46 responses to “जीवन का लक्ष्य

  1. भारतीय नागरिक - Indian Citizen

    04/05/2011 at 11:35 पूर्वाह्न

    यह दो प्रवृतियां हमारे दर्शन में भी तो पाई जाती हैं..

     
  2. ललित "अटल"

    04/05/2011 at 12:20 अपराह्न

    mai bhi esse sahamat hu.

     
  3. ajit gupta

    04/05/2011 at 12:37 अपराह्न

    हम अधिक से अधिक वह काम करना चाहते हैं जिससे दूसरों को हानि नहीं पहुंचे, इससे ज्‍यादा कुछ नहीं। प्रेम पाना जीवन का लक्ष्‍य है लेकिन जितना आप इसके लिए प्रयास करते हैं उतना ही द्वेष मिलता रहता है। क्‍या करें?

     
  4. कौशलेन्द्र

    04/05/2011 at 1:04 अपराह्न

    @ प्रेम पाना जीवन का लक्ष्‍य है लेकिन जितना आप इसके लिए प्रयास करते हैं उतना ही द्वेष मिलता रहता है। क्‍या करें?सच्चा प्रेम प्रतिदान की आशा से नहीं किया जाता ……हमें क्या मिलता है और क्या नहीं …यह विचार करने पर तो प्रेम भी व्यापार हो जाएगा ….एक सांसारिक भाव हो जाएगा …..सुज्ञ जी नें जिस और संकेत किया है वह तो आत्म शक्तियों के विकास की ओर है …..इस विकास के मार्ग में एक घटक प्रेम भी है.माँ का प्रेम सर्वोपरि है …..वह किसी आशा से अपनी संतान को प्रेम नहीं करती ……यह तो एक पक्षीय धारा है जिसका प्रवाह समुद्र की ओर ….अनंत की ओर जाता है.सांसारिक संबंधों में जब हम प्रेम में असफलता की बात करते हैं तो यह हमारी अपेक्षाओं की ओर इंगित करता है . वस्तुतः यह लौकिक प्रेम है ……आत्मा का शुद्ध प्रेम नहीं ……बड़ा कठिन है ऐसा प्रेम कर पाना …और इसे पहचान पाना. यह प्रेम जिसे हो गया वह तो समझो भव बंधनों से मुक्ति की ओर चल पडा …

     
  5. सुज्ञ

    04/05/2011 at 1:58 अपराह्न

    कौशलेन्द्र जी,आपने प्रेम के दोनो रूपों का अच्छा विश्लेषण किया। लौकिक प्रेम जो अक्सर रति और मोह से निर्देशित होता है, वहीं आत्मिक प्रेम सम्यग् निरपेक्ष होता।

     
  6. चला बिहारी ब्लॉगर बनने

    04/05/2011 at 2:40 अपराह्न

    सुज्ञ जी! आपकी बातें हमेशा मन पर छाप और मस्तिष्क में एक सोच को जन्म देती है.. कौशलेन्द्र जी की बात आपकी पोस्ट को विस्तार प्रदान करती है.. "Be Merry" का अर्थ आपने शादी करना लिखा है जो त्रुटि है (यदि इसका अन्य कोइ गूढार्थ न हो जो मैं न समझ पाया).. इसका अर्थ है मज़े करना.. विवाज वाला शब्द है Marry.

     
  7. सुज्ञ

    04/05/2011 at 3:21 अपराह्न

    सलिल जी,यह वाकई त्रुटि ही है, 'मज़े करना' सही भी है और सार्थक भी!! मेरा मज़े और सन्तानोत्पत्ति के समग्र भाव को समाहित करने का आशय था। उपयुक्त शब्द मुझे मिल नहीं पाया।अभी मज़े से काम चला लिया है 🙂 निर्देश के लिए आभार आपका!!

     
  8. वन्दना

    04/05/2011 at 4:46 अपराह्न

    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी हैकल (5-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकरअवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।http://charchamanch.blogspot.com/

     
  9. रश्मि प्रभा...

    04/05/2011 at 6:29 अपराह्न

    main to nihshabd hun, kitni saralta, kitni badee baat

     
  10. Rahul Singh

    04/05/2011 at 7:19 अपराह्न

    धर्म, अर्थ और काम के समन्‍वय-संतुलन से ही मोक्ष उपलब्‍ध होता है.

     
  11. सुज्ञ

    04/05/2011 at 8:09 अपराह्न

    राहुल जी,निवेदन, जरा विस्तार से बताईए ना, धर्म, अर्थ और काम किस प्रकार मोक्ष प्राप्ति में सहायक होते है?

     
  12. सतीश सक्सेना

    04/05/2011 at 8:41 अपराह्न

    विकारों पर विराम …अपने ऊपर लागू कर पाना बड़ा दुष्कर कार्य है भाई जी ! लगे हुए हैं कुछ आपकी सलाह अंगीकार कर पायें ! शुभकामनायें !!

     
  13. प्रतुल वशिष्ठ

    04/05/2011 at 9:10 अपराह्न

    "विकारों के विराम हेतु व्रत-नियम-संयम है और आत्मा के सद्गुणों में उत्थान हेतु ज्ञान-दर्शन-चरित्र का आराधन है। इसी से मोक्ष रूप लक्ष्य की सिद्धि होती है। वही सत्-चित-आनंद अवस्था होगी।"@ सुज्ञ जी, जीवन सहजता से जीने का मूलमंत्र बता दिया आपने.

     
  14. प्रतुल वशिष्ठ

    04/05/2011 at 9:14 अपराह्न

    सुज्ञ जी, प्रेम के विषय में वेदान्त कहता है कि जब वह हृदय में घर करता है तब किसी अन्य भाव-विशेष के लिये हृदय में स्थान ही नहीं रखता. वह अकेला ही रहता है. प्रेम के हृदय में आने पर घृणा, ईर्ष्या-द्वेष आदि दुष्ट भाव सर पर पाँव रख आकर भाग जाते हैं. करुणा, श्रद्धा आदि भाव प्रेम के परिवार के सदस्य हैं वे आते रहते हैं.

     
  15. प्रतुल वशिष्ठ

    04/05/2011 at 9:18 अपराह्न

    जो प्रेमी अपनी प्रेमिका से अपने प्रेम का दावा करते हुए कहता है कि 'ज़माना उनके प्रेम का दुश्मन है' उसे दुनिया रोड़ा और बाधा लगती है… इस संबंध में वेदान्त दर्शन में पार्थसारथी जी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि 'जो प्रेमी एक तरफ अपने हृदय में प्रेम को स्थान दिये है और दूसरी तरफ दुनिया से नफरत भी कर रहा है, तब उसने प्रेम किया कहाँ?… जब 'प्रेम' होता है तब प्रकृति का ज़र्रा ज़र्रा उसे अच्छा लगता है पत्ता-पत्ता उसे लुभाता है. घृणा तो वह कर ही नहीं पाता.

     
  16. प्रतुल वशिष्ठ

    04/05/2011 at 9:23 अपराह्न

    सब कुछ जानते हुए भी सुज्ञ जी आप जानबूझकर राहुल जी को घेर रहे हो न! … राहुल जी फिर भी एक वाक्य से अधिक लिखने से रहे वे अपने ब्लॉग पर एक वाक्य से अधिक लिखते हैं.

     
  17. सुज्ञ

    04/05/2011 at 9:47 अपराह्न

    प्रतुल जी,आपने सही पहचाना……यह प्रेम वह प्रेम होता है जो समस्त मोह-माया से उपर उठा होता है। वह तो करूणा का भी आश्रयदाता होता है। सर्वजग हितकर होता है। जैसा कि आपने कहा…"जब 'प्रेम' होता है तब प्रकृति का ज़र्रा ज़र्रा उसे अच्छा लगता है पत्ता-पत्ता उसे लुभाता है. घृणा तो वह कर ही नहीं पाता."अच्छा ही नहीं, अपने जीव सम लगता है। लुभाता ही नहीं हमें भरमाने भी नहीं देता।

     
  18. सुज्ञ

    04/05/2011 at 10:01 अपराह्न

    प्रतुल जी,राहुल जी से मेरा निवेदन निर्दोष है। जानना और हर जाने हुए को पुनः जानना हमें नवीनत्तम दृष्टिकोण प्रदान करता है।अध्यन और स्वाध्याय में यही अन्तर है स्वाध्याय में हम दोहराव करते है और हर बार विषय स्पष्ठ से स्पष्ठतर होता जाता है। विभिन्न दृष्टियों से और भी निर्मल बनता जाता है। यह बात तो गांठ बांध लेनी होगी कि जो कोई भी हमारा ज्ञानदाता हमें ज्ञान अर्पण कर रहा हो, 'पहले से ही जाने हुए के घमंड' में ज्ञान को बाधित नहीं करेंगे। अन्यथा हम नये दृष्टिकोण से सर्वथा वंचित रह जाएंगे।

     
  19. ZEAL

    04/05/2011 at 10:04 अपराह्न

    विकारों के विराम हेतू व्रत-नियम-संयम है और आत्मा के सद्गुणों में उत्थान हेतू ज्ञान-दर्शन-चरित्र का आराधन है। इसी से मोक्ष रूप लक्ष्य की सिद्धि होती है। वही सत्-चित-आनंद अवस्था होगी।अनमोल जीवन सूत्र दिया है आपने सुज्ञ जी ।————–@-जब 'प्रेम' होता है तब प्रकृति का ज़र्रा ज़र्रा उसे अच्छा लगता है पत्ता-पत्ता उसे लुभाता है. घृणा तो वह कर ही नहीं पाता. प्रतुल जी ki यह पंक्ति अकाट्य है । बहुत सुन्दर तर्क। मन प्रसन्न हुआ। ———–@-सच्चा प्रेम प्रतिदान की आशा से नहीं किया जाता ..Beautiful expression !.

     
  20. डॉ॰ मोनिका शर्मा

    04/05/2011 at 11:05 अपराह्न

    बहुत अच्छी बात ……. विकारों पर विराम लगाने का प्रयास जीवन की दिशा ही बदल देता है…. और फिर गुणों का आराधन क्या कहना ……?

     
  21. प्रवीण शाह

    04/05/2011 at 11:23 अपराह्न

    मानव भी अपने जीवन के उद्देश्यों के मामले में अन्य जंतुओं से कोई अलग नहीं है… परंतु हुआ क्या है कि पिछले ५-१० हजार में मानव मस्तिष्क के विकसित हो जाने के कारण उसकी ईगो भी बहुत बड़ी हो गई है…मानव जीवन तो तब भी था जब भाषा-लिपि का विकास नहीं हुआ था,और जीवन तब भी था तो उद्देश्य भी रहा ही होगा… परंतु आज वह यह मानने को तैयार नहीं कि मरने के बाद मेरा हश्र भी वही होगा जो मेरी कॉलोनी के कुत्ते या चिकन शाप के ब्रायलर का होगा… अब इसी ईगो को चंपी करने के लिये पैदा की गई हैं धर्म-अध्यात्म जैसी दुरूह अवधारणायें, कुछ चालाक दिमागों के द्वारा… यह बताती हैं कि मानव अन्य जीवों से इतर है… उसका जीवन उद्देश्य है, अपने बनाने वाले को पहचानना… जीवन भर उसका गुणगान, उसकी कृपा का बखान… मृत्यु के बाद उसके फैसले के अनुसार दूसरे लोक के जीवन की सजा या इनाम… और यदि मस्का ज्यादा लगाया हो तो, जीवन के बाद उसी में मिलन…Excuse me, but isn't it a big joke with capital J ?

     
  22. Deepak Saini

    04/05/2011 at 11:23 अपराह्न

    उस प्रेम को पाना और विकारों पर विराम लगाना थोडा सा कठिन है सादर

     
  23. राज भाटिय़ा

    04/05/2011 at 11:44 अपराह्न

    जब प्रेम निस्वार्थ हो तो ही हमे प्रेम का मजा आता हे, ओर प्रेम का अर्थ समझ मे आता हे, जो बहुत कठिन हे, हम तो सुंदर सुरत देख कर मोहित हो जाते हे, हमारे लिये यही प्रेम हे…

     
  24. सुज्ञ

    05/05/2011 at 1:33 पूर्वाह्न

    @ जब प्रेम निस्वार्थ हो तो ही हमे प्रेम का मजा आता हे.मजा!! यह मजा ही वह स्वार्थ है सच्चा या निस्वार्थ प्रेम पाने का।हमें अच्छा लगे वही करना हमारा स्वार्थ ही है, उस स्वार्थ से हम अगले को अच्छा लगने के लिये मजबूर कर देते है। फिर कहां रहा निस्वार्थ?

     
  25. वाणी गीत

    05/05/2011 at 7:31 पूर्वाह्न

    सिर्फ जीना और मर जाना , यही जीवन की नियति नहीं होनी चाहिए …मगर श्रमजीवी वर्ग को देख कर लगता है , ये करे भी तो क्या …भूखे भजन ना होहिं गोपाला …सार्थक टिप्पणियों ने पोस्ट की गुणवत्ता को और बढ़ा दिया !

     
  26. सुज्ञ

    05/05/2011 at 10:56 पूर्वाह्न

    प्रवीण शाह ज़ी,@स्पष्ट है कि मानव भी अपने जीवन के उद्देश्यों के मामले में अन्य जंतुओं से कोई अलग नहीं है… >>सही है, मानव मानसिकता में पशुत्व विद्यमान होता है, उस मानसिकता का उद्देश्य पशु आवश्यकता तुल्य हो इसमें स्पष्ठ होने वाली क्या बात है।@परंतु हुआ क्या है कि पिछले ५-१० हजार में मानव मस्तिष्क के विकसित हो जाने के कारण उसकी ईगो भी बहुत बड़ी हो गई है…मानव जीवन तो तब भी था जब भाषा-लिपि का विकास नहीं हुआ था,और जीवन तब भी था तो उद्देश्य भी रहा ही होगा… परंतु आज वह यह मानने को तैयार नहीं कि मरने के बाद मेरा हश्र भी वही होगा जो मेरी कॉलोनी के कुत्ते या चिकन शाप के ब्रायलर का होगा…>>मस्तिष्क के विकास के साथ ईगो विकास का क्या सम्बंध फ़िर यह कैसे प्रमाणित किया कि धीरे धीरे ही मस्तिष्क का विकास हुआ है? एक डार्विन आपको इस अवधारणा का गुलाम बनाने में समर्थ है कि आप अपने को पशुवंशज मानें और आपकी सोच कुत्ते की मौत मरने को तैयार हो जाय।तो फिर अलग अलग भाषा परिवेश में, अलग स्थानों पर अलग अलग महापुरूषों द्वारा लगभग एक समान जीवन के उद्देश्य की अवधारणा ही नही बल्कि स्थापना!, मात्र ईगो के लिये कैसे हो सकती है? क्या स्वार्थ रहा होगा? चलो उनके जीवीत रहते सम्मान का स्वार्थ हो, पर मरनें के बाद अब किसके ईगो की तुष्टि हो रही है। और इस अवधारणा को आगे से आगे बनाए रखने में, इन्द्रिय लोलुप मानवों को भला क्या लाभ होने वाला। सहज ही सबकी धारणा इन्द्रिय सुख को प्रधानता देने का होती है। फ़िर वह क्यों अनजान, अतिशय दुष्कर दुर्लभ सुख पाने की परिकल्पना को पुष्ट करता है? किस ईगो या इन्द्रिय सुख के लाभ के लिए।@अब इसी ईगो को चंपी करने के लिये पैदा की गई हैं धर्म-अध्यात्म जैसी दुरूह अवधारणायें, कुछ चालाक दिमागों के द्वारा… यह बताती हैं कि मानव अन्य जीवों से इतर है… उसका जीवन उद्देश्य है, अपने बनाने वाले को पहचानना… जीवन भर उसका गुणगान, उसकी कृपा का बखान… मृत्यु के बाद उसके फैसले के अनुसार दूसरे लोक के जीवन की सजा या इनाम… और यदि मस्का ज्यादा लगाया हो तो, जीवन के बाद उसी में मिलन…>>किसका ईगो और किसकी चंपी और लाभ किसको मिल रहा है? कुछ भी तो स्पष्ठ नहीं। मानव अन्य जीवों से इतर ही नहीं बेहतर है। यह प्रमाणित है। अब ऐसा सोचने वाला भी मात्र एक मानव ही है, और इस भेद भाव की पशुओ द्वारा शिकायत भी नहीं, बस आप ही कह रहे है यह चालाक दिमागों की उपज है। जबकि जो गुणवान है, उन गुणों का बखान कृतज्ञता है। पशु भी आश्चर्य जनक रूप से कृतज्ञ होते है, कुत्ते की वफादारी ही देख लो। फिर अतिरिक्त बुद्धि और विवेक के लिए कृघ्न कैसे बनें। जबकि यह स्पष्ठ भी नहीं कि पूजा पाठ से उसकी ईगो-चंपी होती भी है या नहीं। पता भी नहीं मस्के का लाभ होता है या नहीं। बस मानव कृतज्ञ है और अपनी संतुष्टि के लिये कृतज्ञता ज्ञापित करता रहता है।अब मिलन हो या नहीं, इसी कारण मानव में सद्गुणों और सभ्यता का विकास अवश्य हुआ है।

     
  27. मनोज कुमार

    05/05/2011 at 11:30 पूर्वाह्न

    बहुत अच्छी आध्यात्मिक बातें कही है आपने।अधिक सांसारिक ज्ञान अर्जित करने से हम में अहंकार आ सकता है परन्‍तु आध्‍यात्मिक ज्ञान हम जितना अधिक अर्जित करते हैं उतनी नम्रता आती है।

     
  28. !! पंखुडी !!

    05/05/2011 at 3:41 अपराह्न

    मेरी एक बहुत बड़ी कमी है कि मै ब्लॉग पर अपनी प्रतिक्रिया नही व्यक्त करती.लोगों को मुझसे ये शिकायत रहती है.पर वास्तविकता तो यह है कि मुझे समझ ही नही आता कि क्या लिखूं.पर आज आपका पोस्ट पढ़ अनायास ही प्रतिक्रया व्यक्त करने का दिल चाहा.शायद मुझे पहली बार ऐसा पोस्ट मिला है जिसमे जीवन के असली उद्येश्य प्रेम,प्रेम भगवान से,भगवान के अंश हर जीव से,की चर्चा हुई है.दुनियावी प्रेम,भौतिक शरीर से ऊपर सत्,चित्,आनंद की बात हुई है.हकीकत तो यही है कि धर्म,अर्थ,काम का प्रयोजन ही है मोक्ष.धर्म जो भगवान के पास ले जाए,अर्थ जो सुविधाएँ दे भगवान तक जाने की,काम जो सहायक बने हमारा हमारी इन्द्रियों को शांत करने में.फिर मोक्ष अर्थात अपना निजी स्वरूप भगवान के सेवकक के रूप में,प्राप्त हो जाता है.बहुत ही प्रशंसनीय विषय.

     
  29. अनामिका की सदायें ......

    05/05/2011 at 9:25 अपराह्न

    hamare desh ki aam janta जो मनुष्य जीव के अस्तित्व को नहीं मानता या मात्र इस भव (मनुष्य जीवन) जितना ही इस जीवन को मानता है तो उसके लिए कमाना, खाना और मज़े करना ( जैसे : Eat, Drink and be merry) यह बाह्य बातें ही जीवन लक्ष्य होती है। is falasfe par chalti hai. aur ek paashvik si jindgi jii kar bina uddeshye apna safar khatam kar deti hai.gehri vicharneey post.

     
  30. निशांत मिश्र - Nishant Mishra

    05/05/2011 at 10:45 अपराह्न

    अत्यंत सात्विक पोस्ट. आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, सुज्ञ जी.मानवता के पथ पर चलते हुए मानवेत्तर गरिमा को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य होना चाहिए.

     
  31. विरेन्द्र सिंह चौहान

    06/05/2011 at 4:21 अपराह्न

    सहमत हूँ. आपने सही लिखा है. लेख के सन्दर्भ में आए कमेंट्स ख़ासकर प्रतुल जी के कमेंट्स पसंद आए.आपके ब्लॉग पर आना बेहद सफ़ल रहा

     
  32. Global Agrawal

    06/05/2011 at 10:29 अपराह्न

    @परंतु आज वह यह मानने को तैयार नहीं कि मरने के बाद मेरा हश्र भी वही होगा जो मेरी कॉलोनी के कुत्ते या चिकन शाप के ब्रायलर का होगा…मेरा शब्द का प्रयोग बताता है की आप शरीर को मैं मानते हैं , खैर …… मैं आज तक ये नहीं समझ पाया की विज्ञान के इतना विकसित हो जाने के बाद भी वही हाल क्यों है ?? :)@अब इसी ईगो को चंपी करने के लिये पैदा की गई हैं धर्म-अध्यात्म जैसी दुरूह अवधारणायें, कुछ चालाक दिमागों के द्वारा…दरअसल धर्म और आध्यात्म अपने आप में एक सुरक्षा कवच था (मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से ) , हो सकता है , कुछ चालाक दिमागों को जब ये महसूस हुआ तो उन्होंने आधुनिक विज्ञान की मदद से एक चश्मा बनाया जिसे लगाने के बाद हम कुछ नहीं देख पाते , और बाकी काम ढोंगी बाबाओं के कारनामों ने कर दिया@Excuse me, but isn't it a big joke with capital J ?j से मुझे Carl Gustav Jung याद आ गएWestern psychology has not asked a basic question — who am I? — because that question will destroy the false ego. And to ask that question means you are entering into the world of meditation, and meditation in other words is a state of no-mind. And western psychology has been at great pains to deny any such state as no-mind — mind is the end of your being — and without exploring and without even looking at the whole long history of the eastern mystics — this is a very unscientific attitude. The western psychology is not only a… one century old science. It is just born.http://www.messagefrommasters.com/Therapy/osho_on_carl_jung_psychology.htmकहने का मतलब है ….ये सलाह आपको जिन्हें देनी चाहिए …… आप मुझे उन्ही से प्रभावित लग रहे हैं 🙂

     
  33. Global Agrawal

    06/05/2011 at 10:34 अपराह्न

    ये फंडा सही है ना ? :)कर सत्संग अभी से प्यारेनहीं तो फिर पछताना है।खिला पिलाकर देह बढायीवह भी अग्नि में जलाना है।पड़ा रहेगा माल खज़ानाछोड़ त्रिया सुत जाना है।कर सत्संग अभी से प्यारेनहीं तो फिर पछताना है।

     
  34. Global Agrawal

    06/05/2011 at 10:37 अपराह्न

    @सुज्ञ जीइस लेख से मिला है ये लाइफ का फंडा"विकारों के विराम हेतु व्रत-नियम-संयम है और आत्मा के सद्गुणों में उत्थान हेतु ज्ञान-दर्शन-चरित्र का आराधन है। इसी से मोक्ष रूप लक्ष्य की सिद्धि होती है। वही सत्-चित-आनंद अवस्था होगी।"उम्मीद है सभी लोग समझेंगे

     
  35. जाट देवता (संदीप पवाँर)

    07/05/2011 at 12:32 पूर्वाह्न

    इसे कहते है कडवा सच।

     
  36. निर्मला कपिला

    09/05/2011 at 11:44 पूर्वाह्न

    बहुत सार्थक जीवन दर्शन। दो बार पढी सत चित आनन्द मे डूब गये। धन्यवाद सुग्य जी। हमारे दिमाग को इसी तरह झिंझोडते रहें। शुभकामनायें।

     
  37. Vivek Jain

    11/05/2011 at 3:53 अपराह्न

    बहुत सार्थक लेख विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

     
  38. Kunwar Kusumesh

    15/05/2011 at 9:59 पूर्वाह्न

    बहुत सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने.पढ़कर आनंद आ गया.देर से आ पाया,क्षमा करियेगा.

     
  39. Apanatva

    16/05/2011 at 12:31 अपराह्न

    sarthak lekh aur comments bhee interesting apanee apnee soch ke anusar ..

     
  40. सदा

    16/05/2011 at 1:25 अपराह्न

    बहुत ही सार्थक प्रस्‍तुति ।

     
  41. सुरेन्द्र सिंह " झंझट "

    16/05/2011 at 6:54 अपराह्न

    सार्थक जीवन के सूत्र विहित हैं आपके जीवनोपयोगी लेख में ….प्रेरक , अनुकरणीय तथ्य ,,,,

     
  42. Khilesh Bharambe

    10/06/2012 at 5:41 अपराह्न

    बहोत अच्छे Hindi Dunia Blog (New Blog)

     
  43. Ankit Gupta

    20/12/2012 at 4:10 अपराह्न

    haaaaaaaaaaa

     
  44. Er. Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता

    04/06/2013 at 7:26 अपराह्न

    No. it is not a joke 🙂

     
  45. तुषार राज रस्तोगी

    07/06/2013 at 2:03 अपराह्न

    निशब्द कुछ नहीं बचा मेरे कहने को अब | बहुत खूब | आभार

     

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