(ईश्वर एक खोज-भाग-2)
ईश्वर डराता है
जनाब नादान साहब को पता चला कि मैं ईश्वर की ऑफ़िस से बडा वाला प्रोस्पेक्टर ले आया हूँ। जिज्ञासावश वे भी चले आए। आते ही कहने लगे, ‘मैं भी उस कार्यालय का सदस्य बना हूँ’, लेकिन यार ‘ईश्वर डराता बहुत है’ मुझे फिर आश्चर्य हुआ, भई मेरे पास की बुकलेट में तो ऐसा कुछ नहीं है। वह तो दयालु है, भला डरायेगा क्यों। नादान साहब फट पडे, बोले ‘वही तो’…बात बात पे डराता है, क्यो?…मुझे भी समझ नहीं आ रहा। यह देख लो किताब। आपने तो वह बडी वाली उसके कायदे कानून की बुक पढ़ी है, आप ही बताएं। और अमां यार आप ईश्वर की फ़्रेचाईजी क्यों नहीं ले लेते। मैने टालते हुए कि इस फ़्रेचाईजी पर बाद में चर्चा करेंगे, पहले चलो कार्यालय चलते है, आपकी वह पुस्तिका साथ ले लो, उसी ऑफ़िसर से पूछेंगे, इस समस्या का कारण।
हम पहुँचे ऑफ़िस, नादान साहब को सदस्य बनाने वाले ऑफ़िसर ड्यूटी पर थे। मैने शिकायती लहजे में कहा- जनाबे-आली, आपने नादान साहब को यह कौनसी बुकलेट थमा दी जो हर समय डरे सहमें रहते है, और तो और भय की प्रतिक्रिया में उल्टा उनका स्वभाव आक्रमक होने लगा है।
ऑफ़िसर माज़रा समझ गया, उसने ईशारा कर मुझे अन्दर के कमरे में बुलाया। शायद वह नादान साहब के समक्ष बात नहीं करना चाह रहा था। ऑफ़िसर ने मुझसे कहा- देखिए, साहब, सभी को पाप करने से पहले डरना ही चाहिए। और ईश्वर का यह अटल नियम है कि पापों से डरो, पापों का परिणाम बुरा है, बुराई के कुफल बताना जरूरी है। जो आप जानते ही होंगे। हम यहां कुछ नहीं कर सकते। हम तो आदमी देखकर, उसकी मानसिकता परख कर उसी अनुरूप बुकलेट देते है। जो लोग पहले से ही घोर पापों में सलग्न हो उन्हे यही सदस्यता दी जाती है, और हर पाप पर तेज खौफ दर्शाया जाता है। आपके यह मित्र नादान साहब, जब यहाँ सदस्य बनने तशरीफ लाए तो सहज ही दोनो कान पकड तौबा तौबा का तकिया कलाम पढे जा रहे थे। हम समझ गये, बंदा अच्छे-बुरे का भेद नहीं जानता, और सदस्य भी मात्र इसलिये बन रहा है कि कुछ भी किये धरे बिना, मात्र सदस्यता के आधार पर सुख-चैन मिल जाए। जनाब यह क्या ‘त्याग’ अर्पण करेगा, ईश्वर को? नादान खुद दुष्कृत्यों का त्याग नहीं कर पाया। और बुराईयों में गले तक डूबा है। आपका मित्र यह न भूले कि ईश्वर नें भी अन्याय करने का त्याग ले रखा है। ऐसे लोगों को खौफ से ही नियम-अनुशासन में ढाला जा सकता है। यह खौफजदा बुकलेट उनके लिये समुचित योग्य है। आप महरबानी कर उसके मन से खौफ दूर न करें, अन्यथा अनर्थ हो जायेगा। अब उसके समक्ष तो उस बुकलेट को ही सर्वदा अन्तिम सच बताएँ। ऑफ़िसर गिडगिडाने लगा। मैने भी स्थिति को समझा और चुप-चाप बाहर चला आया।
जनाब नादान साहब को यह समझाते हुए, हम घर की ओर चल दिए कि यह सही बुकलेट है,फाईनल!! ईश्वर ने नया एडिशन छापना बंद कर दिया है। इसलिये जनाब नादान साहब आप क्यों चिंता करते है, यह डर सीधे-सरल लोगों के लिए कतई नहीं है, और फिर आप ही कहिए बुरे लोगों को डराना कोई गुनाह थोडे ही हैं? अगर हम सीधे हो जाएँ तो यकिन मानो, ईश्वर करूणानिधान ही है। सर्वांग न्यायी है।
नादान साहब उसी हालात में अपने ‘घर’ छोडकर, अपने स्टडी-रूम में, मैं पुनः बडी बुकलेट पढ़नें में व्यस्त हो गया…
बादमें सुना कि नादान साहब ने एक रेश्मी कपडे में उस बुकलेट को जकड के बांध, उँची ताक पर सज़ा के रख दिया है, अब भी कभी उसे खोलने की आवश्यकता पडती है तो उनकी घिग्घी बंध जाती है।
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वन्दना
26/04/2011 at 3:56 अपराह्न
सही है।
nilesh mathur
26/04/2011 at 3:59 अपराह्न
सत्य वचन!
शिखा कौशिक
26/04/2011 at 4:18 अपराह्न
nadan sahab ki samajh me par aata kahan hai?bahut rochak post .badhai .
सदा
26/04/2011 at 4:32 अपराह्न
बिल्कुल सही कहा है आपने ।
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
26/04/2011 at 4:52 अपराह्न
lekin yah sthayi kahan huya…
Apanatva
26/04/2011 at 5:39 अपराह्न
wah kya baat hai……..buzurgo ne kahavat banarakhee hai ki ghee seedhee unglee se na nikle to unglee tedee karnee padtee hai………bahut khoob…aabhar
Patali-The-Village
26/04/2011 at 6:17 अपराह्न
बिल्कुल सही कहा है आपने ।
प्रतुल वशिष्ठ
26/04/2011 at 7:18 अपराह्न
एक नया संदेश मिला इस कथा को पढ़कर.
Rahul Singh
26/04/2011 at 8:18 अपराह्न
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ…
VICHAAR SHOONYA
26/04/2011 at 8:24 अपराह्न
सुज्ञ जी, ईश्वर हमारा भला करने के लिए हमसे रिश्वत लेता है और हम अच्छा कार्य करें इसके लिए हमें रिश्वत देता भी है, वो हमें लालच देता है और हमें भय भी दिखता है. क्या ये ईश्वर इन्सान से जरा भी भिन्न है. कभी कभी शक होता है की ईश्वर ने हमें बनाया है या हमने ईश्वर को बनाया है. हम उसके प्रतिरूप है या फिर वो खुद ही हमारा प्रतिरूप है :-))
सुज्ञ
26/04/2011 at 8:41 अपराह्न
दीपक जी,बस यही तो मेरी इस लेख श्रंखला का भाव है। हमनें ईश्वर के व्यवहार स्वभाव को हुबहू हम तुछ मानव स्वभाव के समकक्ष ही अपेक्षित किया है। कि जैसे सीधा लेन-देन, एक हाथ लो और दूसरे हाथ दो। या बच्चे को जैसे डराते है वैसे ही डराता होगा। वह इसलिये कि हमने अपने स्वभाव के प्रतिरूप का उसमें आरोपण कर दिया है।जबकि वह सर्वथा भिन्न है। उसने नियमों का अपरिवर्तनीय सिस्टम लागु कर रखा है। बिलकुल प्राकृतिक नियमों की तरह या गु्रूत्वाकृषण नियम की तरह्। अब अच्छे का अच्छा और बुरे का बुरा फल ही मिलना है। नो माया, नो चिटिंग!! किसी भी मानवीय किन्तु-परन्तु के बिना।
डॉ॰ मोनिका शर्मा
26/04/2011 at 11:07 अपराह्न
बहुत सुंदर बात कही…
राज भाटिय़ा
26/04/2011 at 11:43 अपराह्न
बहुत सुन्दर लेख, धन्यवाद
रश्मि प्रभा...
27/04/2011 at 9:21 पूर्वाह्न
ishwar ko pata hai ki darr zaruri hai …
दीपक बाबा
27/04/2011 at 9:27 पूर्वाह्न
नयी कथा ….. नया सन्देश…
Vivek Jain
27/04/2011 at 4:29 अपराह्न
बहुत सुन्दर, बहुत सार्थक विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सम्वेदना के स्वर
27/04/2011 at 4:30 अपराह्न
यह लेख पड़ने के बाद :आखें बन्द करके एक बार इस सारे अस्तित्त्व की कल्पना की..चादँ, तारे…गैलक्सीज़….और आगे..और आगे…फिर सोच से बाहर आने पर लगा, पाप क्या ? पुण्य क्या ? मै क्या हूँ? कौन हूँ? क्यों हूँ? द्वन्द जारी है……
ZEAL
27/04/2011 at 5:09 अपराह्न
.जैसा करम करेगा वैसा फल देगा भगवान् । वैसे इश्वर से क्या डरना , वो तो दयालु है । इमानदारी और नेकी की राह पर चलने वालों के साथ साथ चलता है और अपने बच्चों को तकलीफ में देखकर उन्हें गोदी में लेकर रखता है।विचारों का मंथन कराने वाली बेहतरीन पोस्ट। .
ajit gupta
28/04/2011 at 11:13 पूर्वाह्न
हम तो एक बात जानते है कि अच्छे कर्म करो, ईश्वर सदैव आपके साथ रहता है। पुण्य संचित करो और आवश्यकता पडने पर ही प्रभु के समक्ष हाथ फैलाकर मांगो, वो भी आपके पुण्यों में से ही देता है। रोज-रोज मांगने से भला ईश्वर भी कहाँ से देगा?
अजय कुमार दूबे
28/04/2011 at 4:02 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर पोस्ट ……. आभार