-कवि भंवरलाल ‘भृंग’
-कवि भंवरलाल ‘भृंग’
विचार वेदना की गहराई
गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं
हितेन्द्र अनंत का दृष्टिकोण
पुरातत्व, मुद्राशास्त्र, इतिहास, यात्रा आदि पर Archaeology, Numismatics, History, Travel and so on
मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय, गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में ग्रामीण जीवन जी रहा हूँ। मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर रेलवे अफसर। वैसे; ट्रेन के सैलून को छोड़ने के बाद गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलने में कठिनाई नहीं हुई। 😊
चरित्र विकास
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Deepak Saini
12/04/2011 at 10:54 अपराह्न
कवि भंवरलाल ‘भृंग’ जी द्वारा रचित इस अनमोल मोती के दर्शन करने के लिए आभार
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
12/04/2011 at 10:58 अपराह्न
बहुत बढ़िया लिखा है "भृंग" साहब ने…
डॉ॰ मोनिका शर्मा
12/04/2011 at 11:26 अपराह्न
प्रभु तेरे द्वार पर, खड़ा एक पांव पर,जैसे तैसे पार कर, तेरे नाम हो गया।इन्द्रियों के वशीभूत, “भृंग” कैसे फलीभूत, कैसी करतूत, तन तामजाम हो गया॥बहुत सुंदर …बहुत अर्थपूर्ण …पढवाने का आभार
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
13/04/2011 at 12:35 पूर्वाह्न
बहुत ही सुन्दर रचना!!
संगीता स्वरुप ( गीत )
13/04/2011 at 12:54 पूर्वाह्न
बहुत खूबसूरत रचना पढवाई आज …आभार
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
13/04/2011 at 6:58 पूर्वाह्न
भृंग जी की रचना पढवाने का शुक्रिया1…………ब्लॉगिंग को प्रोत्साहन चाहिए?लिंग से पत्थर उठाने का हठयोग।
ajit gupta
13/04/2011 at 9:22 पूर्वाह्न
अच्छी रचना के लिए आभार।
रश्मि प्रभा...
13/04/2011 at 11:33 पूर्वाह्न
ek achhi rachna aapke dwaara padhne ko mili
अमित शर्मा---Amit Sharma
13/04/2011 at 11:37 पूर्वाह्न
इतनी अच्छी रचना से साक्षात्कार करवाने के लिए आभार
ZEAL
13/04/2011 at 1:05 अपराह्न
.जग के जंजाल बीच, कुद पडा आंखे मीच, सपनों को सींच सींच, बे-लगाम हो गया…..बहुत कुछ बलिदान करने के बाद ही कोई जग के जंजाल में कूद सकता है । जब एक बार पर-हित की अग्नि में कूद ही गए तो बेलगाम घोड़े की तरह त्निरंतर सप्रयास और कोल्हू के बैल की तरह उस अग्नि में जलना पड़ता है तभी समाज का उद्धार होता है।इन सद्प्रयासों में विघ्न उत्पन्न करने वाले तो बहुत आते हैं , लेकिन हवन की अग्नि में हाथ देने वाले बेलगाम घोड़ों को कोई रोक सकता है भला।ताप कर कुंदन हो जाते हैं ऐसे व्यक्तित्व और गुनाह गिनाने वाले बेजार होकर मुंह छुपाते फिरते हैं ।.
Rahul Singh
13/04/2011 at 3:31 अपराह्न
ऐसी परिनिष्ठ भाषा के साथ मेरे जैसे छिद्रान्वेषी वर्तनी की गलतियों में अटक जाता है.
Navin C. Chaturvedi
13/04/2011 at 3:34 अपराह्न
बहुत ही सुंदर छन्दबद्ध प्रस्तुति| http://samasyapoorti.blogspot.com
वन्दना
13/04/2011 at 4:48 अपराह्न
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी हैकल (14-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकरअवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।http://charchamanch.blogspot.com/
सञ्जय झा
13/04/2011 at 5:00 अपराह्न
pahili bar samjhne me dikkat hue…..bad me zealjike tippani padh samajh me aaya………pranam.
arvind
13/04/2011 at 5:27 अपराह्न
बहुत सुंदर …अर्थपूर्ण …पढवाने का आभार
Rakesh Kumar
13/04/2011 at 7:05 अपराह्न
"प्रभु तेरे द्वार पर, खड़ा एक पांव पर, जैसे तैसे पार कर, तेरे नाम हो गया।"अनुपम,उत्कृष्ट ,शानदार अभिव्यक्ति के लिए आभार.प्रभु समर्पण ही जीवन को पार लगा देता है.
Patali-The-Village
13/04/2011 at 11:26 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर रचना| धन्यवाद|
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
14/04/2011 at 6:46 पूर्वाह्न
बहुत सुन्दर! भृंग जी के बारे में थोडी जानकारी दीजिये न अगली किसी पोस्ट में।
anupama's sukrity !
14/04/2011 at 7:41 पूर्वाह्न
प्रभु तेरे द्वार पर, खड़ा एक पांव पर,जैसे तैसे पार कर, तेरे नाम हो गया।इन्द्रियों के वशीभूत, “भृंग” कैसे फलीभूत,कैसी करतूत, तन तामजाम हो गया॥गहन आत्मचिंतन -सही विश्लाशन -सुंदर रचना …!
Kunwar Kusumesh
14/04/2011 at 1:24 अपराह्न
भृंग जी की रचना पढवाने का शुक्रिया1
वीना
14/04/2011 at 6:32 अपराह्न
प्रभु तेरे द्वार पर, खड़ा एक पांव पर, जैसे तैसे पार कर, तेरे नाम हो गया।इन्द्रियों के वशीभूत, “भृंग” कैसे फलीभूत, कैसी करतूत, तन तामजाम हो गया॥इतनी अच्छी रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद
krati
16/04/2011 at 10:42 पूर्वाह्न
खूबसूरत बेहद खूबसूरत रचना |
प्रतुल वशिष्ठ
17/04/2011 at 12:34 अपराह्न
घनाक्षरी अथवा कवित्त : जिस छंद के प्रत्येक चरण में ३१ वर्ण हों, १६ और १५ पर यति हो, तथा अंत में गुरु हो, उसे घनाक्षरी छंद कहते हैं. उपर्युक्त छंद एक उत्तम उदाहरण हैं.
प्रतुल वशिष्ठ
17/04/2011 at 12:47 अपराह्न
….और जिस कवित्त (छंद) के प्रत्येक चरण में ३३ वर्ण होते हैं तथा अंत में नगण होता है. १६ और १७ वर्ण के उपरान्त यति का नियम हो, तो उसे देवघनाक्षरी कवित्त कहते हैं. रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि 'देव' ने सर्वप्रथम ३३ वर्णों वाले कवित्त का प्रयोग किया है, इसी कारण कवित्त के दूसरे भेद का नाम देवघनाक्षरी प्रचलित हो गया. किन्तु मैंने जल्दबाजी के कारण 'नगण' नियम की परवाह न करते हुए दिवघनाक्षरी छंद बनाया है. जिसमें मात्रिक विधान तो वैसा ही है किन्तु न-गण नियम की पाबंदी नहीं. छंद अधूरा है, फिर भी परोस रहा हूँ : अरे, भाई है वह जिसे, बात भायी भाई की, [१६ वर्ण]वह भाई क्या जो जले भुने, अपने ही भाई से. [१७ वर्ण] एक बहिन वह्नि जैसा, ताप लिये रहती. [१६ वर्ण] पर दग्ध कटीले वचन लगते मिठाई से. [१७ वर्ण]
सारा सच
17/04/2011 at 3:36 अपराह्न
अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ….
ZEAL
20/04/2011 at 8:57 पूर्वाह्न
पुनः पढ़ा इस रचना को , बार बार पढ़ा ।आनंददायी कृति ।
Apanatva
20/04/2011 at 7:00 अपराह्न
bahut sunder rachana .ise padwane ke liye aapka aabhar……..
Minakshi Pant
21/04/2011 at 3:53 अपराह्न
जिंदगी को जैसे – तैसे ढोह कर चलते हुए इन्सान के भाव को प्रकट करती रचना | बहुत खुबसूरत रचना |
आलोक मोहन
22/04/2011 at 2:07 अपराह्न
बहुत ही बढ़िया
मदन शर्मा
22/04/2011 at 2:51 अपराह्न
आपकी इस तरह की अभिव्यक्ति हमारी श्रद्धा को और गहन कर देती है सुन्दर रचना शुभकामनाये
देवेन्द्र पाण्डेय
22/04/2011 at 5:11 अपराह्न
आनंद दायक।
बवाल
23/04/2011 at 4:34 अपराह्न
क्या ख़ूब साहित्य परोसा भाई! दिल को छूने वाली रचना अति आनंददायी।
Indranil Bhattacharjee ........."सैल"
28/04/2011 at 12:40 अपराह्न
बहुत सुन्दर कविता … इतना उत्तम काव्य पर मैं क्या टिपण्णी करूँ ?
ललित ''अकेला''
02/05/2011 at 3:14 अपराह्न
शानदार कविता है। आभार