मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ है, आहार आवास और आवरण (वस्त्र)। और इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही मानव प्रकृति का दोहन करता है। जब तक वह इन जरूरतों तक सीमित उपभोग, संयमपूर्वक करता है तब तक प्रकृति उसकी सहयोगी रहती है। लेकिन जब वह आवश्यकताओं का अतिक्रमण करने लगता है, उपयोग कम और वेस्ट ज्यादा करने लगता है, तृष्णाधीन होकर संग्रह करके वस्तुओं को अनावश्यक सडन-गलन में झोंक देता है। संयम और अनुशासन को भूल, अनियंत्रित और स्वछंद भोग-उपभोग करता है।तब प्रकृति अपना सहयोगगुण त्याग देती है। और मानव की स्वयं की प्रकृति, विकृति में रूपांतर हो जाती है।
मनुष्य सर्वाधिक हिंसा और प्रकृति का विनाश अपनी आहार जरूरतों के लिये करता है। और अपने आहार-चुनाव में ही उसे संयम और अनुशासन की आवश्यकता है।
दुखद पहलू यह है कि कथित प्रगतिशील, इन तीनों (आहार आवास और आवरण) में स्वतंत्रता-स्वच्छंदता के पक्षधर होते है। और स्वांत संयम के घोर विरोधी। वे मानवीय तृष्णा की अगनज्वाला को प्रदिप्त रखने का कार्य करते है। मेरी नजर में वे कांईया प्रकृति-द्रोही हैं।
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अनामिका की सदायें ......
16/03/2011 at 8:16 अपराह्न
bahut saralta aur sunderta se aapne margdarshan de diya. aabhar.
राज भाटिय़ा
16/03/2011 at 10:01 अपराह्न
बहुत अच्छी ओर सुन्दर प्रस्तुति!
मनोज कुमार
17/03/2011 at 10:52 पूर्वाह्न
यह स्वच्छंदता ही तो विनाश कारी है।बहुत ही अच्छी और संदेश देती रचना।
ZEAL
17/03/2011 at 1:45 अपराह्न
बहुत सुन्दर विवेचना । किसी भी चीज़ की अति हानिकर है।
निरामिष
17/03/2011 at 1:49 अपराह्न
आभारनिरामिष: शाकाहार : दयालु मानसिकता प्रेरक
अमित शर्मा
19/03/2011 at 10:43 पूर्वाह्न
आप को होली की हार्दिक शुभकामनाएं । ठाकुरजी श्रीराधामुकुंदबिहारी आप के जीवन में अपनी कृपा का रंग हमेशा बरसाते रहें।
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
19/03/2011 at 11:20 पूर्वाह्न
होली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं। ईश्वर से यही कामना है कि यह पर्व आपके मन के अवगुणों को जला कर भस्म कर जाए और आपके जीवन में खुशियों के रंग बिखराए।आइए इस शुभ अवसर पर वृक्षों को असामयिक मौत से बचाएं तथा अनजाने में होने वाले पाप से लोगों को अवगत कराएं।