मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ है, आहार आवास और आवरण (वस्त्र)। इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही मानव प्रकृति का दोहन करता है। लेकिन जब तक वह इनका अपनी जरूरतों तक सीमित उपभोग, संयमपूर्वक करता है तब तक प्रकृति उसकी सहयोगी बनी रहती है। लेकिन जब वह अपनी आवश्यकताओं का अतिक्रमण करने लगता है, उपयोग कम और व्यर्थ अधिक करने लगता है, तृष्णाधीन होकर संग्रह के माध्यम से वस्तुओं को अनावश्यक सडन-गलन में झोंक देता है। संयम और अनुशासन को भूल, अनियंत्रित और स्वछंद भोग-उपभोग करता है। मानव की स्वयं की प्रकृति, विकृति में रूपांतरित हो जाती है, तब प्रकृति अपना सहयोग गुण तज देती है और मानव का अपना असंयम ही उसके अस्तित्व शत्रु साबित होता है।
Kailash C Sharma
02/03/2011 at 8:30 अपराह्न
बहुत सार्थक सोच…अगर हम प्राकृतिक साधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन करेंगे तो इसका परिणाम भविष्य के लिए बहुत अनिष्टकारी होगा..
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
02/03/2011 at 9:27 अपराह्न
मैं तो हर रोज़ प्रकृति का दोहन देख रहा हूँ और इअमें भागीदार भी बनता जा रहा हूँ.. मेरी नौकरी की माँग है यह.. लेकिन यह दोहन भोजन, वस्त्र एवम् आवास के लिये नहीं, बल्कि पैसे बनाने के लिये हो रहा है… दोषी हूँ प्रकृति का..लेकिन विवश भी!!
सुज्ञ
02/03/2011 at 9:44 अपराह्न
सलिल जी,पैसा आखिर तो माध्यम ही है, आहार,आवास और आवरण प्राप्त करने का। इन वस्तुओ के अलावा आदमी कहाँ पैसा इन्वेस्ट करेगा?
मनोज कुमार
02/03/2011 at 9:59 अपराह्न
अपने आहार-चुनाव में ही उसे संयम और अनुशासन की आवश्यकता है।आपसे बिल्कुल सहमत हूं।
Kunwar Kusumesh
02/03/2011 at 10:02 अपराह्न
एकदम सही कहा है आपने सुज्ञ जी.आपसे पूरी तरह सहमत.
Global Agrawal
02/03/2011 at 10:12 अपराह्न
@सुज्ञ जीहमेशा की तरह सुन्दर और प्रभावी लेखमुझे भी ऐसा सारगर्भित लिखना सिखाइए :))सीधी सी बात पहले भी कही है और अब भी कहता हूँ .. अगर किसी को संयम , संस्कार , परंपरा जैसे शब्द चुभते हैं तो वो एक सेंटर पॉइंट चुन ले…….. जो है "स्वास्थ्य"मतलब कपडे मौसम के अनुसार हो, फैशन के अनुसार नहींआहार भी मानव शरीर के अनुसार (मतलब शाकाहार ही श्रेष्ठ है )http://michaelbluejay.com/veg/natural.htmlमतलब हर बात के पीछे लोजिक सही होना चाहिए लेकिन लोग तो जब समझेंगे तभी समझेंगे 🙂
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
02/03/2011 at 10:23 अपराह्न
भारत में तो बढ़ती जनसंख्या ने हाहाकार मचा दिया है..
Mithilesh dubey
02/03/2011 at 11:15 अपराह्न
अच्छा लगता है आपको पढना हर बार ही , बहुत ही प्रभावशाली लिखा है आपने , शुक्रिया
सतीश सक्सेना
02/03/2011 at 11:34 अपराह्न
प्राकृतिक साधनों कि भविष्य में क्या आवश्यकता होगी , हम स्वार्थियों और अविवेकी लोगों को सोंचने कि क्या जरूरत है भाई जी ! शुभकामनायें आपको !
राज भाटिय़ा
02/03/2011 at 11:40 अपराह्न
महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें.
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
03/03/2011 at 12:17 पूर्वाह्न
स्विस बैंक में…
डॉ॰ मोनिका शर्मा
03/03/2011 at 1:04 पूर्वाह्न
आपसे पूरी तरह सहमत….आपकी हर पोस्ट सार्थक सोच की राह सुझाती है…. आभार
Rahul Singh
03/03/2011 at 6:38 पूर्वाह्न
क्या इस तरह समझें – 'उपयोग करें, दोहन नहीं'
रजनीश तिवारी
03/03/2011 at 8:43 पूर्वाह्न
अपनी जरूरतों को एक सीमा में हम बांधते ही नहीं बल्कि हमें तो अधिक से अधिक पाने और साधनों का दोहन करने की लालसा होती है, ये सब मूलतः प्रकृति विरोधी ही है । एक विचारणीय प्रश्न ! धन्यवाद …
Deepak Saini
03/03/2011 at 10:46 पूर्वाह्न
आपसे पूरी तरह सहमत
सञ्जय झा
03/03/2011 at 4:50 अपराह्न
क्या इस तरह समझें – 'उपयोग करें, दोहन नहीं'aise samjhao to koi bat bane……pranam.
sagebob
03/03/2011 at 6:10 अपराह्न
बहुत ही सार्थक आलेख है.शायद मनुष्य इस मामले में जानवरों से भी गया गुजरा है.सलाम.
विरेन्द्र सिंह चौहान
03/03/2011 at 9:06 अपराह्न
सार्थक आलेख। आपने सही लिखा है। आजकल तो लोग क्या-2 कर रहे हैं बस पूछो ही मत। जो चीज़ भी मिलती है उसी का दुरुपयोग शुरू कर देते हैं। अपने ज्ञान का भी तो लोग उपयोग की जगह दुरुपयोग करते हैं।
ललित ''अकेला''
04/03/2011 at 11:41 पूर्वाह्न
sukriya
Rakesh Kumar
04/03/2011 at 2:58 अपराह्न
कुत्सित मानसिकता का ही परिचायक है प्रकृति का दोहन .काश !आप जैसे संत के सात्विक विचारों पर सभी ध्यान दे पावें तो कल्याण हो सभी का .प्रभु से प्रार्थना है की ब्लॉग जगत में भी ऐसे संत समाज का विकास हो कि समस्त समाज की सोच ही सकारात्मक हो जाये.
Manpreet Kaur
04/03/2011 at 4:37 अपराह्न
bouth he aache shabad hai aapke is post mein … nice blog
Alok Mohan
05/03/2011 at 8:48 अपराह्न
bahut hi badiya,teeno hi aadmi ki jarurte hai
सुज्ञ
11/03/2011 at 1:55 पूर्वाह्न
@क्या इस तरह समझें – 'उपयोग करें, दोहन नहीं'बिलकुल, राहुल जी!!बस एक शब्द जोडते हुए… 'संयमित उपयोग करें, दोहन नहीं'
निर्मला कपिला
12/03/2011 at 10:06 पूर्वाह्न
अपसे शत प्रतिशत सहमत। सार्थक चिन्तन। शुभकामनायें।