विदेशी संस्कृति को तो हमारे संस्कार रत्ती भर भी पसंद नहिं, फिर क्यों उनके संस्कार हम बहुमानपूर्वक अंगीकार करते है? ऐसे में हमारे देशी जयचंद उस सांस्कृतिक आकृमण के दलाल बन जाते है। शरूआत में वे मिलावट को प्रशय देते है,विकास और आधुनिकता की जरूरत बताते है। और अन्ततः हमारी शुद्ध संस्कृति को संकर संस्कृति बना देते है।यह संस्कृति का रिफार्म नहीं, घालमेल का उदाहरण है।
और फिर हमे ही उलहाना देते है कि तुम्हारे संस्कारो में है क्या? जो भी अच्छा है वह सब कुछ तो पाश्चात्य संस्कृति से लिया,सीखा है। और अब बची खुची पुरातन ढर्रे की कतरन का कोई औचित्य नहीं है। जडविहिन रिवाज, रूढियां और अंधविश्वास ही प्रतीत होते है।अन्ततः हम स्वयं ही उसे दूर कर देते है। संस्कृति को विकृति बनाकर, शुद्ध संस्कृति को पहले भ्रष्ट और फिर नष्ट करने का योजनाबद्ध षडयंत्र अनवरत जारी है। किसी एक शत्रु द्वारा नहीं, कई कुसंस्कृतिया, कई विदेशी विचारधाराएं और कितनी ही तरह के कुटिल व्यवसायिक स्वार्थ!! भारतिय सभ्यता संस्कृति पतन के कगार पर है।
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सतीश सक्सेना
22/02/2011 at 6:41 अपराह्न
मैं आपसे सहमत हूँ …निराशाजनक स्थिति है !
अरुण चन्द्र रॉय
22/02/2011 at 6:57 अपराह्न
बहुत उम्दा विचार.. सचमुच यह संक्रमण काल है और सभ्यता का पतन हो रहा है..
राज भाटिय़ा
22/02/2011 at 7:27 अपराह्न
आओ से पुर्णतया सहमत हुं, कुछ ज्य चंद कुछ इन गोरो के..?… जेसे लोग ही इन की बातो को अपनाते हे,वेसे भी हम लोगो को आदत हे गोरो की गुलामी करने की तो इन की चीजे पसंद क्यो ना आये, यानि अपना सोना छोड कर हम पीतल की ओर भागते हे
रश्मि प्रभा...
22/02/2011 at 7:33 अपराह्न
bilkul sahi kaha aapne
मनोज कुमार
22/02/2011 at 10:45 अपराह्न
आपसे सहमत।
डॉ॰ मोनिका शर्मा
23/02/2011 at 1:14 अपराह्न
सहमत हूँ…हालात विचारणीय हैं….
ZEAL
23/02/2011 at 2:12 अपराह्न
अपनी संस्कृति का अपमान हम भारतीयों द्वारा ही हो रहा है । निश्चय ही पतन कि तरफ अग्रसर है । प्रशंसनीय आलेख हेतु आभार ।
कुमार राधारमण
23/02/2011 at 9:10 अपराह्न
पूरब को पश्चिम का तन और पश्चिम को पूरब का मन चाहिए। एक संतुलन से ही हम अपनी मौलिकता को बचाए रखते हुए आधुनिक बन सकेंगे।
रंजना
25/02/2011 at 12:35 अपराह्न
राधारमण जी ने जो कहा वही दुहराना चाहूंगी….
Rakesh Kumar
25/02/2011 at 11:22 अपराह्न
यदि संस्कारों और संस्कृति के बारे में उचित मार्गदर्शन मिलता रहे तो पतन से बचा जा सकता है.भारतवर्ष पर सदियों से आक्र्मण होते आये हैं .लेकिन समय समय पर अनेको महापुरुष भी हुए हैं जिन्होंने हमारा मार्ग दरसन किया है.यदि अपनी संस्कृति को बिना प्रदूषित किये हम अपनी संस्कृति और दूसरी अन्य संस्कृतियों से सकारात्मक अंशो को अपनाएं तो कोई हर्ज नहीं होना चाहिए .