विचार वेदना की गहराई
गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं
हितेन्द्र अनंत का दृष्टिकोण
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मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय, गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में ग्रामीण जीवन जी रहा हूँ। मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर रेलवे अफसर। वैसे; ट्रेन के सैलून को छोड़ने के बाद गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलने में कठिनाई नहीं हुई। 😊
चरित्र विकास
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Kajal Kumar
20/02/2011 at 9:55 अपराह्न
बहुतमत की बात न मानना ही नास्तिकता है
मनोज कुमार
20/02/2011 at 10:09 अपराह्न
सही बात है। परमात्मा को पाने के बाद और कुछ पाने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
राज भाटिय़ा
20/02/2011 at 10:33 अपराह्न
सहमत हे जी आप ने
रंजना
21/02/2011 at 3:15 अपराह्न
सचमुच विचारणीय है….वैसे आपने अंत में जो पूछा,उसका उत्तर यदि प्रत्येक नास्तिक इमानदारी से अपने आप को दे दे, तो स्थिति बदल जायेगी..
ज्ञानचंद मर्मज्ञ
21/02/2011 at 8:51 अपराह्न
लेख के अंत में किये गए प्रश्न में ही उत्तर समाहित है !विचारणीय पोस्ट !
Global Agrawal
21/02/2011 at 10:50 अपराह्न
सुज्ञ जीवाह ! गजब का लेख है ..धन्य हुआ पढ़ कर
Global Agrawal
21/02/2011 at 11:01 अपराह्न
वैसे आपके लेख को पढने के बाद कुछ कहना मुश्किल हो जाता है ….. कुछ कहने को बचता ही नहीं ……. फिर भी मैं अपने तरीके से कहा देता हूँनास्तिकता एक ईजीली अवलेबल एंड ईजी टू यूज ऑप्शन है …
Global Agrawal
21/02/2011 at 11:05 अपराह्न
मुझे सिर्फ ऐसे नास्तिकों पर गर्व होता है जो अपनी संस्कृति और अपने देश की सेवा में हमेशा तत्पर रहते हैं (जबानी जमा खर्च करने वाले शामिल नहीं )लेकिन लगता है भारत देश में सबसे पहले नास्तिक अपनी संस्कृति को त्यागते हैं ये उनका नास्तिकता की ओर पहला कदम(या जरूरी स्टेप) होता है
सुज्ञ
21/02/2011 at 11:44 अपराह्न
ग्लोबल जी,मैं भी नास्तिकों को सम्मानित मानता हूँ, क्योंकि मुझे लगता है वे तथ्यों को तर्क की कसौटी पर कस कर अपनाते है,अतः अधिक दृढ होते है।किन्तु जिस तरह के नास्तिकों से पाला पड रहा है,वे ईश्वर के आस्तित्व से मानव को हानि हो या लाभ दोनो ही दशा में ईश-निन्दा ही करते है।अरे, ईश्वर को न मानना है मत मानो वह तो वैसे भी निराकार निरंजन निस्पृह है। लेकिन निर्दोष संस्कृति का विरोध किसलिये? क्या युगों युगों से वह तुम्हे सुसंस्कृत कर रही है इसलिये? और गुणी बननें के उपदेश देते धर्म-शास्त्रों का विरोध किसलिये? मात्र इसलिये कि निरंतर तुम्हें सभ्य,गुणी,शान्त और संतोषी बनाते रहे है इसलिये?मानव जीवन को दुष्कर बना देने वाले अंधविश्वासो को मत मानो, पर आत्मविश्वास देने वाली आस्था को क्यों खत्म करने पर तुले हो?वास्तव में तो तुम निर्मल निर्दोष नास्तिक नहीं हो,बल्कि किसी तरह के पूर्वनियोजित नास्तिक हो जिसे किसी योजना के तहत धर्म,संस्कृति और सद्गुणों को नष्ट करना है, ईश्वर का अस्तितव तुम्हारे लिये बहाना मात्र है,क्योंकि जानते हो ईश्वर को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
Sachi
22/02/2011 at 6:26 अपराह्न
कुछ धार्मिक कट्टरवाद पर भी लिखें, तो बड़ी कृपा होगी !
सुज्ञ
22/02/2011 at 6:53 अपराह्न
सब्यसची जी,क्या आप यह मानते हैं कि नास्तिकता धार्मिक कट्टरता का निदान है?तब तो नास्तिकता स्वयं अधार्मिक कट्टरता बन जाएगी!!http://shrut-sugya.blogspot.com/2010/06/blog-post_6078.htmlयहां मैने अपने सुज्ञ ब्लॉग पर बडे न्यून शब्दों में धार्मिक कट्टरता को व्याख्यायित किया है। "किसी अन्य को धार्मिक दिखने के लिये बाध्य करना धार्मिक कट्टरता है"किन्तु मित्र ईश्वर को मात्र इस कारण न मानना या धर्म (आत्म-स्वभाव) से पलायन करना धार्मिक कट्टरता का इलाज नहीं है। तर्क व प्रमाणो पर विश्वास करने वाले नास्तिक बंधु तर्कपूर्ण प्रत्युत्तर क्यों नहीं देते।
Global Agrawal
22/02/2011 at 9:33 अपराह्न
@किन्तु जिस तरह के नास्तिकों से पाला पड रहा है,वे ईश्वर के आस्तित्व से मानव को हानि हो या लाभ दोनो ही दशा में ईश-निन्दा ही करते है।@किसी अन्य को धार्मिक दिखने के लिये बाध्य करना धार्मिक कट्टरता है"वाह! क्या बात है एक दम सत्य, सारगर्भित ..आप दोनों दिशाओं में सोच सकते हैं … इश्वर ऐसी निष्पक्ष सोच सभी को दे
Rakesh Kumar
05/03/2011 at 9:07 अपराह्न
गीता अ.१२ श्लोक ११(भक्ति योग) में नास्तिकों के लिए भी यह सुझाया है 'यदि तू प्रभु के लिए कर्म करने के परायण होने में असमर्थ है (अर्थात प्रभु को नहीं मानता) ,तो भी कोई बात नहीं .तो फिर तू खुद के मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर .' फल के त्याग का मतलब अपनी किसी भी सफलता या असफलता पर न रुक कर सैदेव आगे ही बढते जाना है .इस प्रकार से भी मनुष्य परमानन्द की प्राप्ति कर सकता है.बस सच्चाई और हिम्मत की जरुरत है.