दुर्गम पथ पर तुम न चलोगे कौन चलेगा?
17
जनवरी
कदम कदम पर बिछे हुए है, तीखे तीखे कंकर कंटक।
भ्रांत भयानक पूर्वाग्रह है, और फिरते हैं वंचक।
पर साथी इन बाधाओ को तुम न दलोगे कौन दलेगा?
सूरज कब का डूब चला है, रह गया अज्ञान अकेला।
चारो ओर घोर तिमिर है, और निकट तूफानी बेला।
फिर भी इस रजनी में दीपक, तुम न जलोगे कौन जलेगा?
अम्बर में सघनघन का, कोई भी आसार नहीं है।
उष्ण पवन है तप्त धरा है, कोई भी उपचार नहीं है।
इस विकट वेला में तरूवर, तुम न फलोगे कौन फलेगा?
* साधक = कर्तव्य पथिक
(यह गीत समर्पित है मेरे सदाचार व्याख्याता ब्लॉगर मित्रों को, जिनका वर्तमान माहोल मेँ ब्लॉगिंग से मोहभंग सा हो रहा है.)
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: केवल राम :
17/01/2011 at 2:03 पूर्वाह्न
अम्बर में सघनघन का, कोई भी आसार नहीं है।उष्ण पवन है तप्त धरा है, कोई भी उपचार नहीं है।इस विकट वेला में तरूवर, तुम न फलोगे कौन फलेगा?सार गर्भित पंक्तियाँ हैं ….जीवन सन्दर्भों को सामने लाती हुई ..आपका आभार इस प्रस्तुति के लिए
वाणी गीत
17/01/2011 at 6:35 पूर्वाह्न
तुम ना जलोगे कौन जलेगा …अपनी सलीब खुद ही उठानी होती है ..सुन्दर शब्द …अच्छी कविता !
Rahul Singh
17/01/2011 at 6:49 पूर्वाह्न
प्रभावी गुहार, छोटी रचनाओं की भाषा में वर्तनी (तुफानी/तूफानी) का खास ध्यान रखना अधिक जरूरी होता है.
सुज्ञ
17/01/2011 at 7:36 पूर्वाह्न
राहुल जी,वर्तनी सुधार इंगित करने के लिए आभार! सुधार कर लिया गया है।यह गुहार मेरे उन विचारवान ब्लॉगर मित्रों से है जिनका व्यथित करते माहोल के कारण ब्लॉगिंग से मोहभंग हो रहा है।
ज्ञानचंद मर्मज्ञ
17/01/2011 at 10:18 पूर्वाह्न
"सूरज कब का डूब चला है, रह गया अज्ञान अकेला।चारो ओर घोर तिमिर है, और निकट तूफानी बेला।फिर भी इस रजनी में दीपक, तुम न जलोगे कौन जलेगा?"वाह,क्या बात है !वर्तमान स्थिति का सटीक शब्द-चित्र !-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
प्रतुल वशिष्ठ
17/01/2011 at 10:49 पूर्वाह्न
.सुज्ञ जी, मंद पड़ते दीपक में आपने स्नेह डाल ही दिया. अनुभवों का लाभ यही है कि वे निराश और हताश मन को प्रेरित करते हैं. .
डॉ॰ मोनिका शर्मा
17/01/2011 at 11:05 पूर्वाह्न
सूरज कब का डूब चला है, रह गया अज्ञान अकेला।चारो ओर घोर तिमिर है, और निकट तूफानी बेला।फिर भी इस रजनी में दीपक, तुम न जलोगे कौन जलेगा?सुंदर,प्रेरणादायी और प्रभावी अभिव्यक्ति…… आशावादी और सकारात्मक सोच लिए…..
संगीता स्वरुप ( गीत )
17/01/2011 at 11:49 पूर्वाह्न
अम्बर में सघनघन का, कोई भी आसार नहीं है।उष्ण पवन है तप्त धरा है, कोई भी उपचार नहीं है।इस विकट वेला में तरूवर, तुम न फलोगे कौन फलेगा?बहुत सुन्दर भाव से रची सुन्दर रचना ..
कुमार राधारमण
17/01/2011 at 11:58 पूर्वाह्न
एकदम सही। और,इन परिस्थितियों में जो चला,वही असली सोना।
anshumala
17/01/2011 at 12:30 अपराह्न
सुज्ञ जी आप के साधक की समस्या ये है की वो बहुत ही उतावला है जिसे तुरंत ही परिणाम की चाह है जिसमे थोडा भी धीरज नहीं है | उसे चाह है की सभी उसकी बात मान ले जो वो कहे तर्कों से, पर उस ब्लोगर साधक को नहीं पता की दुनिया तर्कों पर नहीं व्यवहार, परिस्थिति के अनुसार चलती है और हम दुनिया को बस काले और सफ़ेद यानि अच्छे और बुरे में नहीं बाट सकते है दुनिया में और भी रंग है जो अपनी जगह सही है | यदि उसे ये बात समझ नहीं आ रही है तो उसे कुछ दिन और जरा इन पथरीले रास्तो से दूर रह कर धीरज धरना सीखने दीजिये |
sada
17/01/2011 at 12:46 अपराह्न
बहुत सुन्दर भाव …. !
सुज्ञ
17/01/2011 at 1:11 अपराह्न
अंशुमाला जी,मेरा यहां किसी एक साधक से अभिप्राय नहीं था, और वे सभी साधक धेर्यवान है। फ़िर भी आपकी सलाह यथार्थपरक है। साधक को धेर्यवान होना ही चाहिए,पलायन न हो इसलिये हौसला आवश्यक है। आपकी टिप्पणी आपके मन्तव्यों के अनुरूप ट्रांसपरेंट है। सोच व विचारधाराओं को निश्छल प्रकट करती हुई।
वन्दना
17/01/2011 at 1:34 अपराह्न
वाह! गज़ब की उत्साहवर्धन करती अभिव्यक्ति है और ऐसा क्यो कह रहे है कि मोहभंग हो रहा है …………ज़िन्दगी मे ये सब चलता रहता है और ऐसे मुकाम आते रहते है मगर चलते रहना ही ज़िन्दगी है।
सुशील बाकलीवाल
17/01/2011 at 5:45 अपराह्न
तुम न चलोगे तो कौन चलेगा । उत्तम प्रस्तुति…
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
17/01/2011 at 7:51 अपराह्न
हर रचना में सार्थक सम्वाद छुपा होता है..
सम्वेदना के स्वर
17/01/2011 at 8:51 अपराह्न
सुज्ञ जी!दुर्गम पथों पर चलना, बाधाओं का दलना, दीपक का जलना और तरुवर का फलना… यह सब अनवरत चलता रहेगा.. पर कंटकों को हटाना, तम का विनाश करना, और ऊष्णता को शीतलता को हटाने का समवेत प्रयास ही इस यात्रा को सुलभ बनाएगा!
mahendra verma
17/01/2011 at 9:42 अपराह्न
सूरज कब का डूब चला है, रह गया अज्ञान अकेला।चारो ओर घोर तिमिर है, और निकट तूफानी बेला।फिर भी इस रजनी में दीपक, तुम न जलोगे कौन जलेगा?जीवन के अंधकारमय क्षणों में आत्मबोध रूपी दीपक ही प्रकाश किरणें विसरित कर राह दिखलाता है। निराशा से आशा की ओर प्रेरित करने वाला एक उत्तम गीत।शुभकामनाएं, सुज्ञ जी।
निरंजन मिश्र (अनाम)
17/01/2011 at 10:16 अपराह्न
सभी पाठको को सूचित किया जाता है कि पहेली का आयोजन अब से मेरे नए ब्लॉग पर होगा …यह ब्लॉग किसी कारणवश खुल नहीं प रहा हैनए ब्लॉग पर जाने के लिए यहा पर आए धर्म-संस्कृति-ज्ञान पहेली मंच
mridula pradhan
17/01/2011 at 10:42 अपराह्न
पर साथी इन बाधाओ को तुम न दलोगे कौन दलेगा?bahut achcha likhe hain.
उपेन्द्र ' उपेन '
17/01/2011 at 10:56 अपराह्न
बहुत ही भावपूर्ण और प्रेरणादायी कविता…..
संगीता स्वरुप ( गीत )
18/01/2011 at 8:46 पूर्वाह्न
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना आज मंगलवार 18 -01 -2011को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ …शुक्रिया ..http://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/402.html
sanjay jha
18/01/2011 at 12:22 अपराह्न
hosla-afjai ke liye sukrya…..pathshala chalti rahe ….. monitar nigrani rakhen.pranam.
दिगम्बर नासवा
18/01/2011 at 12:56 अपराह्न
सूरज कब का डूब चला है, रह गया अज्ञान अकेला।चारो ओर घोर तिमिर है, और निकट तूफानी बेला।फिर भी इस रजनी में दीपक, तुम न जलोगे कौन जलेगा ..आशा और जीवन का संचार करती है आपकी रचना … कर्म पथ पे प्रेरित करती हुयी … नमस्कार …
nilesh mathur
18/01/2011 at 1:21 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर और आशावादी रचना !
नीरज बसलियाल
18/01/2011 at 1:42 अपराह्न
बेहद प्रभावशाली भाव हैं कविता के… उठो धरा के अमर सपूतों पुन: नया निर्माण करो |
Patali-The-Village
18/01/2011 at 4:04 अपराह्न
जीवन सन्दर्भों को सामने लाती हुई बहुत ही सुन्दर रचना| आभार|
सुरेन्द्र सिंह " झंझट "
18/01/2011 at 4:09 अपराह्न
प्रेरक एवं प्रभावशाली कविता …बहुत अच्छी लगी |
Kunwar Kusumesh
18/01/2011 at 6:45 अपराह्न
बेहतरीन रचना.
विरेन्द्र सिंह चौहान
18/01/2011 at 7:58 अपराह्न
प्रेरणा देती हुई आपकी ये कविता बहुत अच्छी लगी। इसके लिए आपको बधाई।
सतीश सक्सेना
19/01/2011 at 12:22 अपराह्न
सुज्ञ भाई ,क्षमा चाहता हूँ , पिछली टिप्पणी द्वारा विषय के साथ न्याय नहीं कर सका…निराशाजनक स्थिति है यहाँ और हम लोग अपने अपने पूर्वाग्रहों के चलते सही गलत में भेद नहीं कर पाते इसीलिए शायद विद्वानों का अपमान और मूर्खों का सम्मान कर रहे हैं हम लोग ! मगर यह गीत बहुत अच्छा लगा वाकई लगा कि बुझते दीपक को नयी जान देने का प्रयत्न कर रहे हो ! प्रतुल वशिष्ठ को शुक्रिया ! हार्दिक शुभकामनायें
सुज्ञ
19/01/2011 at 1:23 अपराह्न
सतीश जी,सदाचार के प्रस्तोता विद्वानों का तो सदैव ही सम्मान होना चाहिए।जाग्रत रहना आवश्यक है कि अच्छे लोग निष्क्रिय न हो जाय। यह प्रेरक गीत इसिलिये आवश्यक था। पोषण के बिना यह तरूवर कहीं फ़लित होना बंद न कर दे।
रचना दीक्षित
19/01/2011 at 2:05 अपराह्न
विचारणीय सुन्दर कोमल भावों और शब्दों से सजी प्रस्तुति
Gourav Agrawal
20/01/2011 at 12:11 पूर्वाह्न
पोस्ट तो अच्छी है ही टिप्पणियाँ तो और भी सुन्दर और स्नेह से भरी लग रहीं हैं |
Gourav Agrawal
20/01/2011 at 12:23 पूर्वाह्न
एक बात और …….सच्चे साधक में कभी उतावलापन नहीं होता [ और ना ही होना चाहिए ].. ये बात अलग है की उनके पास वक्त ही कम होता है :)हम तो हमेशा यही कहते रहे हैं"धीरे धीरे सब समझ जायेंगे "
सुज्ञ
20/01/2011 at 12:28 पूर्वाह्न
गौरव जी,आप तक स्नेह पहूँचा, समझो रचना सार्थक हुई।"धीरे धीरे सब समझ जायेंगे "
यशवन्त माथुर (Yashwant Mathur)
28/11/2012 at 10:31 पूर्वाह्न
कल 29/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
सुज्ञ
28/11/2012 at 5:46 अपराह्न
यशवंत जी, इस प्रस्तुति को लिंक करने के लिए आपका आभार!!
Reena Maurya
29/11/2012 at 12:28 अपराह्न
बहुत ही बेहतरीन रचना..सुन्दर भाव लिए…:-)