तेरे जीवन निर्वाह के लिये, तेरी आवश्यकता से भी अधिक संसाधन तुझे प्रकृति ने दिए। किन्तु तुने उसका अनियंत्रित, अनवरत दोहन व शोषण आरंभ कर दिया। तुझे प्रकृति ने धरा का मुखिया बनाया, तुने अन्य सदस्यों के मुंह का निवाला भी छीन लिया। तेरी सहायता के लिये प्राणी बने, मगर तुने उन्हे पने पेट का खड्डा भरने का साधन बनाया। सवाल मात्र पेट का होता तो जननी धरा इतनी दुखी न होती। पर स्वाद की खातिर, तूँ इतना भ्रष्ट हुआ कि अखिल प्रकृति पाकर भी तूं तुष्ट न हुआ, धृष्टता से भूख और अभाव के बहाने रोता ही रहा। तेरे पेट की तृष्णा तो कदाचित शान्त हो जाय, पर तेरी बेलगाम इच्छाओं की तृष्णा कभी शान्त न हुई, कृतघ्न मानव।
जितना लिया इस प्रकृति से, उसका रत्तीभर अंश भी लौटाने की तेरी नीयत न रही। लौटाना तो क्या, संयत उपयोग भी तेरी सद्भावना न हुई। प्रकृति ने तुझे संतति विस्तार का वरदान दिया कि तूं अपनी संतान को माँ प्रकृति के संरक्षण में नियुक्त करता,अपनी संतति को प्रकृति के मितव्ययी उपभोग की शिक्षा देता। इस विध संतति विस्तार के वरदान का ॠण चुकाता। किन्तु निर्लज्ज!! तुने अपनी औलादों से लूटेरो की फ़ौज़ बनाई और छोड दिया कृपालु प्रकृति को रौंदने के लिए। वन लूटे, जीव-प्राण लूटे, पहाड के पहाड लूटे।निर्मल बहती नदियाँ लूटी,उपजाऊ जमीने लूटी। समुद्र का खार लूटा, स्वर्णधूल अंबार लूटा। इससे भी तेरा पेट न भरा तो, खोद तरल तेल रक्त लूटा।
तूने एक एक कर प्रकृति के सारे गहने उतार, उसे विरान बना दिया। अरे! बंजरप्रिय!! कृतघ्न मानव!!! प्रकृति तो तब भी ममतामयी माँ है, उससे तो तुझ कपूत का कोई दुख देखा नहीं जाता, उसे यह चिंता सताती है कि मेरे उजाड पर्यावरण से भी बच्चो को कोई तकलीफ न हो।अभी भी गोद में आश्रय दिए हुए है। थपकी दे दे वह संयम का संदेश देती है, गोद से गिर पड़ता है पर सीखता नहीं। भोगलिप्त अंधा बना भूख भूख चिल्लाता रहता है। पोषक के कर्ज़ से मुक्त होने की तेरी कभी नीयत ही न रही। हे! अहसान फ़रामोश इन्सान!! कृतघ्न मानव!!! ______________________________________________________________________
Tarkeshwar Giri
23/11/2010 at 11:11 पूर्वाह्न
Kya bat hai Jor Dar Aur Dhamakedar Lekh
anshumala
23/11/2010 at 11:23 पूर्वाह्न
प्रकृति समय समय पर मनुष्य को इस एहसान फरामोसी का दंड भी अपना विकराल रूप दिखा कर देती रहती है |
सम्वेदना के स्वर
23/11/2010 at 11:24 पूर्वाह्न
सुज्ञ जीविडम्बना यही है कि आज विकास विकास का जो नारा दिया जा रहा है वो भ्रष्टाचारीयों की एक चाल भर बन कर रह गया है, करोड़ों के प्रोजेक्ट्स के नाम पर लूट का नया खेल शुरु कर दिया है इन नामुरादों नें। नवीं मुम्बई में एक और एयरर्पोट बनाने को मजूरीं दे दी है।आज के इंडियन एक्सप्रेस में एक आलेख पढ़्कर पता चला के बिहार में कुल बिजली खपत मात्र 900 मेघवाट है जो गुडगाव के एक सम्भ्रांत इलाके की खपत के बराबर है। बांका चुनाव क्षेत्र की अधिकांश आबादी 10 रुपये रोज पर जीवित है।ऐसे अनगिनत आंकड़े मुह चिड़ा रहे हैं, पर बेशर्मों का क्या जो अपनी ईमानदारी की भी मार्केटिंग कर रहें हैं।
डॉ॰ मोनिका शर्मा
23/11/2010 at 11:38 पूर्वाह्न
सच में प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वाला मनुष्य अहसान फरामोश ही है…. सार्थक पोस्ट
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
23/11/2010 at 1:15 अपराह्न
भारत में तो हद ही हो गई है..
सुज्ञ
23/11/2010 at 2:05 अपराह्न
गिरि जी,बंधु बहुत दिनों बाद दिखाई दिये,आपको पुन: बुलाने के लिये जबर्दस्त ही लिखना पडता है।
सुज्ञ
23/11/2010 at 2:09 अपराह्न
अंशुमाला जी,प्रकृति का मात्र आंखे दिखाने वाला रूप भी हमारे लिये विकराल हो जाता है। यह सब तो प्रकृति मां की डांट फ़टकार ही है। हम सोचें खिलवाड कैसा महंगा पडेगा।
सुज्ञ
23/11/2010 at 2:12 अपराह्न
चैतन्य ज़ी,सच,यह विडम्बना ही है कि मानव अपने विकास के लिये प्रकृति से भी धोखा कर रहा है और मानव मानव से भी!!
संगीता स्वरुप ( गीत )
23/11/2010 at 4:08 अपराह्न
जागरूक करती पोस्ट …प्रकृति तो हर हाल में बदला ले ही लेगी …ऐसे ही नहीं आती हैं प्राकृतिक विपदाएं …
सुज्ञ
23/11/2010 at 4:27 अपराह्न
डॉ॰ मोनिका शर्मा जी,आवश्यकता से अधिक शोषण खिलवाड ही है। आभार
सुज्ञ
23/11/2010 at 4:29 अपराह्न
सही कहा दीदी,आपदाएं इन्ही अहसान फ़रामोशों के कारण आती है।
Poorviya
23/11/2010 at 5:03 अपराह्न
kahe itna likhate ho padhane ke baad sochana padata hai ki ka likhe .bahut hi sunder likha hai .
Indranil Bhattacharjee ........."सैल"
23/11/2010 at 5:05 अपराह्न
कोई बात नहीं … चलने दीजिए दोहन … एक दिन ऐसा आयेगा जब पछताना पड़ेगा …सुन्दर आलेख !
पं.डी.के.शर्मा"वत्स"
23/11/2010 at 5:17 अपराह्न
इन्सान समझने को तैयार ही नहीं कि अन्ध विकासवाद की इस कुल्हडी से वो स्वयं के पाँव ही काटने में जुटा है. वो भूल गाय कि जब-जब उसनें प्रकृति की मूल भावना को छेडने की कौशिश की, तब-तब प्रकृति नें अपना स्वरूप बदलकर उसे दंडित करने में कोताही नहीं की, उसका फल उसे जरूर मिला है.और जहाँ वो अपने हितसाधन के साथ इसके संरक्षण एवं संवर्धन के लिए तत्पर रहा, प्रकृति सदैव उसके साथ खडी रही. लेकिन क्या करें, सारा कसूर सिर्फ इस भोगवादी चिन्तन का ही है, जो प्रकृति को अपना शत्रु समझकर उसके विनाश को ही अपनी उपलब्धि मान बैठा है.
Tausif Hindustani
23/11/2010 at 5:33 अपराह्न
उत्कृष्ट एवं सराहनीय लेख वास्तव में पहली बार आपका लेख दिल को छू गया dabirnews.blogspot.com
abhishek1502
23/11/2010 at 7:02 अपराह्न
उच्च कोटि का लेख आप से पूर्णतया सहमत
सुज्ञ
23/11/2010 at 8:19 अपराह्न
@कौशल मिश्रा जी,@पढने के बाद सोचना पडता है।:))@इन्द्रनील जी,बात मात्र इत्ती सी है, बेगुनाहों को न पछताना पडे।
सुज्ञ
23/11/2010 at 8:21 अपराह्न
पं.डी.के.शर्मा"वत्स" आपने पूर्ण सार प्रस्तूत कर दिया। आभार।
सुज्ञ
23/11/2010 at 8:23 अपराह्न
तौसिफ़ऐसे ही शुभ-विचार लोगों के दिल तक पहूंचे
सुज्ञ
23/11/2010 at 8:24 अपराह्न
अभिषेक जी,आभार आपका। आपने जी भर सराहा
ZEAL
23/11/2010 at 9:12 अपराह्न
.एक जागरूक करते बेहतरीन लेख के लिए आभार एवं बधाई । .
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
23/11/2010 at 10:22 अपराह्न
नदियाँ, पहाड़, भूमि और समुद्र के के साथ अत्याचार किया और जब प्रक्र्ति ने प्रतिकार किया भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी और सूनामी के रूप में तो उसे प्राक्र्तिक आपदा का नाम दे दिया. मतलब यह कि इसके लिए भी प्रकृति को दोषी ठहराना मांव का धर्म हो गया है.. कृतघ्न मानव की कृतघ्नता कि पराकाष्ठा!!.. हंस राज जी बहुत अच्छी बात!!
मनोज कुमार
23/11/2010 at 11:35 अपराह्न
प्रकृति का दोहान करके हम अपना भला नही कर रहे हैं।
VICHAAR SHOONYA
24/11/2010 at 12:21 पूर्वाह्न
सुज्ञ जी बहुत बढ़िया लिखा है.
वाणी गीत
24/11/2010 at 10:04 पूर्वाह्न
प्रकृति अहसानफरामोशी का दंड तो देती है …सार्थक चिंतन !
POOJA...
24/11/2010 at 12:03 अपराह्न
सही है… अहसान फरामोशी का ये दाग हमेशा हम पर लगता आया है और समय-समय पर इसकी सज़ा भी मिलती रही है…
अमित शर्मा
24/11/2010 at 2:43 अपराह्न
क्या आपको नहीं लगता की आज हम गर्त में जा रहे है. क्या पुरानी जीवन शैली से जीने वाले हमारे बडगे इतनी बिमारियों से जूझते थे, क्या उनकी जीवन शैली से ग्लोबल वार्मिंग फैलती थी , क्या उनकी जीवन शैली से धरती का संतुलन बिगड़ पाया था.अगर नहीं तो क्या हमें यह नहीं मानना चहिये की हमारे पुरखे ज्यादा विकसित थे,ज्यादा उन्नत थे, अपने जीवन में.और हम इस धरती-बिगाड़, मनख-मार जीवन शैली को विकास समझ अंधे हुए इसके पीछे भागे जा रहे है.ठीक है की आज सिर्फ रोटी,कपडा और मकान से ही काम नहीं चलता . लेकिन ललित मोदी बनकर भी क्या हासिल हो जाता है. सच में प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वाला मनुष्य अहसान फरामोश ही है…. सार्थक पोस्ट
ज्ञानचंद मर्मज्ञ
24/11/2010 at 3:11 अपराह्न
आज मानव जिस तरह प्रकृति का दोहन कर रहा है, हमारी आने वाली पीढ़ियों को उसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते !आपकी पोस्ट आने वाले तूफ़ान का इशारा है !-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
विरेन्द्र सिंह चौहान
24/11/2010 at 4:41 अपराह्न
समयाभाव के कारण थोड़ी देर सा आया ….एक बेहतरीन सार्थक लेख के लिए आप मेरी तरफ से बधाई के पात्र है . इस लेख की हर बात से सहमत हूँ. आपको शुभकामनाएँ!
सम्वेदना के स्वर
24/11/2010 at 6:17 अपराह्न
सुज्ञ जी!सम्वेदना के स्वर पर आपकी सुन्दर टिप्पणीयों के लिये आभार के साथ एक विनम्र निवेदन यह है कि इस ब्लोग पर सलिल भाई और मेरा सब कुछ साझा है, हमारी सांझी सोच से लेकर हमारे सांझे सरोकारों तक। जो कुछ भी वहाँ लिखा जाता है वो हम दोनों के कम्प्यूटर ही नहीं मन मस्तिष्क से भी प्रोसेस होकर जाता है। अकसर आपका "एकाकी" सम्बोधन, मुझे बहुत असमंजस में डाल जाता है। मुझे दुविधा से उबारेंगें, न?!
सुज्ञ
24/11/2010 at 6:53 अपराह्न
चैतन्य जी,आप और सलिल भाई में गजब का सामन्जस्य है। शुभकामनाएं!साझा ब्लोग होने की जानकारी तो थी ही,पर निकटता प्रेषित करने के लिये हमने "सम्वेदना…" से आपको और "चला बिहारी…" से सलिल जी को सम्बोधित ठीक समझा। मेरा इरादा आपको असमंजस की स्थिति में डालना न था।लेकिन अब आपने मुझे दुविधा में अवश्य डाल दिया है, अब मैं कैसे सम्बोधित करूं, सीधे नाम से निकटता महसुस होती है। आप ही सुझाएं।(संदेश पहूँचने के बाद आप चाहें तो यह टिप्पणी डिलिट कर सकते हैं)
सुज्ञ
24/11/2010 at 8:08 अपराह्न
दिव्या जी, सलिल जी,मनोज जी,दीप जी, वाणी जी, पूजा जी,अमित जी, ज्ञानचंद जी, विरेन्द्र जी एवं सम्वेदना बंधुलाखों साल पहले भी और आज भी मानव को मात्र पेट भर आहार, तन की सुरक्षा के लिये वस्त्र, और शीत उषण से बचनें के लिये छत ही चाहिए। न तो कोई इससे अधिक उपयोग कर सकता है और न कोई अन्य आवश्यकता में शुमार है। बाकि सब परिग्रह ही है। अनंत इच्छा के परिणाम। मात्र तृष्णा ही। फिर क्यों मानव खाए कम और बिगाडे अधिक। क्यों नहिं अपनी इच्छाएँ नियंत्रित कर संसाधनो का सदुपयोग करके कृतज्ञ बनता? और आने वाली पीढी को भी संयम सिखा कर ॠण से ॠणमुक्त होता।
दिगम्बर नासवा
26/11/2010 at 3:58 अपराह्न
ये तो इंसान की राक्षसी प्रवृति है … जो मिलता है उसे लूटने लगता है .. फिर ये प्रकृति तो मूक है … उसका शोषण करना तो अपना अधिकार समझता है maanav …..