एक दार्शनिक जा रहा था। साथ में मित्र था। सामने से एक गाय आ रही थी, रस्सी गाय के बंधी हुई और गाय मालिक रस्सी थामे हुए। दार्शनिक ने देखा, साक्षात्कार किया और मित्र से प्रश्न किया– “बताओ ! गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है?” मित्र नें तत्काल उत्तर दिया “यह तो सीधी सी बात है, गाय को आदमी पकडे हुए है, अतः गाय ही आदमी से बंधी हुई है।
दार्शनिक बोला- यदि यह गाय रस्सी छुडाकर भाग जाए तो आदमी क्या करेगा? मित्र नें कहा- गाय को पकडने के लिये उसके पीछे दौडेगा। तब दार्शनिक ने पूछा- इस स्थिति में बताओ गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है? आदमी भाग जाए तो गाय उसके पीछे नहिं दौडेगी। जबकि गाय भागेगी तो आदमी अवश्य उसके पीछे अवश्य दौडेगा। तो बंधा हुआ कौन है? आदमी या गाय। वस्तुतः आदमी ही गाय के मोहपाश में बंधा है।
व्यवहार और चिंतन में यही भेद है।
मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो भ्रम व यथार्थ में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।
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नीरज गोस्वामी
16/11/2010 at 5:42 अपराह्न
वाह…कितनी सच्ची बात कितने सरल अंदाज़ में समझाई है दार्शनिक ने…हम सभी गाय से बंधे हैं अब ये गाय घर हो पैसा हो जिंदगी हो…
एस.एम.मासूम
16/11/2010 at 5:45 अपराह्न
मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो सत्य व भ्रम में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।सच है लेकिन चिंतन करे तब तो.
ZEAL
16/11/2010 at 9:39 अपराह्न
गहराई से चिंतन करने को प्रेरित करती हुई पोस्ट !
अनामिका की सदायें ......
16/11/2010 at 11:54 अपराह्न
सच कहा गुरु देव..मान गए. आगे भी उम्मीद करते हैं इसी तरह का ज्ञान प्राप्त होता रहेगा.आभार.
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
17/11/2010 at 12:31 पूर्वाह्न
हंसराज जी! जीवन का यथार्थ बताता एक दर्शन..किंतु कितने भटके इंसान इसे समझ नहीं पाते औरभ्रम में जीते हैं..
सुज्ञ
17/11/2010 at 3:28 पूर्वाह्न
@नीरज जी,सच कहा, हमें गुमान है कि सबको हमने बांध रखा है,पर हम ही मोह माया वश सबसे बंधे हुए है।@मासूम साहब,सच है, चिंतन करें तब ही।
सुज्ञ
17/11/2010 at 3:35 पूर्वाह्न
@दिव्या जी,अन्तर में चैतन्य बिराजमान है,अवश्य चिंतन होगा।@अनामिका जी,गुरु नहिं, ज्ञानाभिलाषी हूं, (कहीं प्रवचनकार बाबा न मान लेना):-))
सुज्ञ
17/11/2010 at 3:40 पूर्वाह्न
@सलिल जी,दुर्लभ होता है यथार्थ पा लेना, भ्रममोही के लिये तो दुष्कर!
Archana
17/11/2010 at 7:11 पूर्वाह्न
"मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो सत्य व भ्रम में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।" बिलकुल सही– धीरे-धीरे,चिंतन करते हुए सोच मं परिवर्तन संभव है…जब तक आदमी है गाय से बंधा है जब दार्शनिक हो जाता है तो गाय बंध जाती है उससे…
abhishek1502
17/11/2010 at 10:14 पूर्वाह्न
सत्य है , फर्क है हमारे नजरिये में
राम त्यागी
17/11/2010 at 10:36 पूर्वाह्न
तर्कों की कोई सीमा है क्या ?
Poorviya
17/11/2010 at 11:07 पूर्वाह्न
bhie hum aur aap blog se jude hai ise tarah .
मनोज कुमार
17/11/2010 at 4:37 अपराह्न
बहुत गहन विचार प्रस्तुत किया है आपने। आभार। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!विचार-श्री गुरुवे नमः
वन्दना
17/11/2010 at 4:51 अपराह्न
बहुत ही गहरी बात समझाई है……………उम्दा प्रस्तुति।
anshumala
17/11/2010 at 5:02 अपराह्न
सुज्ञ जी बिल्कूल सही बात कहा है आप ने की असल में तो बंधन में हम है लेकिन ये बंधन हमी ने बाधे है और समस्या ये है कि हम में से ज्यादातर इससे मुक्त होना ही नहीं चाहते है |
राजभाषा हिंदी
17/11/2010 at 6:15 अपराह्न
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है! हार्दिक शुभकामनाएं!लघुकथा – शांति का दूत
सुज्ञ
17/11/2010 at 7:23 अपराह्न
अर्चना जी,अभिषेक जी,राम त्यागी जी,पूरविया जी,मनोज जी,वन्दना जी,अंशुमाला जी,आभार आपका, आपने सही चिंतन किया।जब गाय से हमारे बंधे होने का अहसास होता है, चिंतन वहीं से शुरु होता है। बंधन में रहते हुए भी बंधन से निर्लेप भाव स्थापित होता है।आप सभी का आभार।
सुज्ञ
17/11/2010 at 7:26 अपराह्न
राजभाषा हिंदी संचालक महोदय,हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये आपका प्रोत्साहन भी सराहनीय है!
कुमार राधारमण
17/11/2010 at 9:32 अपराह्न
ये छोटे-छोटे कथानक जीवन-सूत्र समेटे रहते हैं।
प्रतुल वशिष्ठ
18/11/2010 at 2:00 पूर्वाह्न
..सुज्ञ जी मैंने जब इस 'बंधन' कथा को पढ़ा तब मन में आया कमेन्ट भाग गया. मैं उसे फिर पकड़कर लाया. लेकिन वो फिर भाग गया. अब आप बताइये — मैं कमेन्ट से बंधा हूँ या फिर कमेन्ट मुझसे बँधा है?कमेन्ट एक गाय है और मैं उस कमेन्ट-गाय को पकड़ने वाला दूधिया. कमेन्ट में जो अर्थ रूपी दूध होता है उसे हम और आप पीते हैं. दूधिया-धर्म कभी आप निभाते हो तो कभी मैं, तो कभी अन्य कमेन्ट-गाय पकड़ने वाले पाठक. __________आपने बहुत प्रेरणास्पद कथा सुनायी. ..
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
18/11/2010 at 6:32 पूर्वाह्न
प्रेरणास्पद प्रस्तुति, आभार!
वाणी गीत
18/11/2010 at 9:50 पूर्वाह्न
बहुत गहरा चिंतन !
ज्ञानचंद मर्मज्ञ
18/11/2010 at 2:35 अपराह्न
सुज्ञ जी,व्यवहार और चिंतन का भेद ही तो जीवन-पथ को आलोकित करता है !अच्छी पोस्ट है !-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
दिगम्बर नासवा
18/11/2010 at 2:46 अपराह्न
माया का चरित्र खोल कर रख दिया … सत्य भी तो एक माया ही है …
निर्मला कपिला
18/11/2010 at 6:55 अपराह्न
गहन चिन्तन को सरल बोधकथा के माध्यम से बहुत सुन्दर ढंग से समझाया है। धन्यवाद।
सुज्ञ
18/11/2010 at 7:10 अपराह्न
कुमार राधारमण अनुराग जीवाणी गीत जीज्ञानचंद मर्मज्ञ जीदिगम्बर नासवा जीऔर,निर्मला कपिला जी,आभार आपका सराहना के लिये, आपकी प्रेरणा ही मेरी सही सोच को संबल देती है।