व्यक्तिगत तृष्णाओं में लुब्ध व्यक्ति, समाज से विद्रोह करता है। और तात्कालिक अनुकूलताओं के वशीभूत, स्वेच्छा से स्वछंदता अपनाता है, समूह से स्वतंत्रता पसंद करता है। किन्तु समय के साथ जब समाज में सामुहिक मेल–मिलाप के अवसर आते है, जिसमे धर्मोत्सव मुख्य होते है। तब वही स्वछन्द व्यक्ति उस एकता और समुहिकता से कुढ़कर द्वेषी बन जाता है। उसे लगता है, जिस सामुहिक प्रमोद से वह वंचित है, उसका आधार स्रोत यह धर्म ही है, वह धर्म से वितृष्णा करता है। वह उसमें निराधार अंधविश्वास ढूंढता है, निर्दोष प्रथाओं को भी कुरितियों में खपाता है और मतभेदों व विवादों के लिये धर्म को जिम्मेदार ठहराता है। ‘नास्तिकता’ के मुख्यतः यही कारण होते है।
Arvind Mishra
10/11/2010 at 1:14 अपराह्न
नास्तिकता परिभाषित ……..
Rohit joshi
10/11/2010 at 2:03 अपराह्न
ब्लॉग्स की दुनिया में मैं आपका खैरकदम करता हूं, जो पहले आ गए उनको भी सलाम और जो मेरी तरह देर कर गए उनका भी देर से लेकिन दुरूस्त स्वागत। मैंने बनाया है रफटफ स्टॉक, जहां कुछ काम का है कुछ नाम का पर सब मुफत का और सब लुत्फ का, यहां आपको तकनीक की तमाशा भी मिलेगा और अदब की गहराई भी। आइए, देखिए और यह छोटी सी कोशिश अच्छी लगे तो आते भी रहिएगा http://ruftufstock.blogspot.com/
arvind
10/11/2010 at 2:36 अपराह्न
bahut pate ki baat…saargarbhit lekh.
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
10/11/2010 at 4:08 अपराह्न
सुज्ञ जी, मुझे लगता है कि यह हमारे जींस से द्वारा निर्धारित होती है। जिस व्यक्ति में जैसे जींस डेवलप हो जाऍं, वह व्यक्ति चाहे अनचाहे वैसा ही बन जाता है।
सुज्ञ
10/11/2010 at 4:19 अपराह्न
ज़ाकिर साहब,आपने सही कहा, भौतिक रूप से जींस निर्धारित करता है, लेकिन जींस को कौन निर्देशित करता है, कदाचित जींस को कर्म-सत्ता ही एक्ट करती है। अर्थार्त कर्म, जिंस व डी एन ए के माध्यम से व्यवहार में आते है।
Gourav Agrawal
10/11/2010 at 4:25 अपराह्न
सुज्ञ जी ,ये "स्वेछा" की जगह "स्वेच्छा" तो नहीं है ?
सुज्ञ
10/11/2010 at 4:39 अपराह्न
गौरव जी,"स्वेच्छा" ही है।:)खुशी हुई आप बहुत ध्यान देते है, मित्र जो है।
Gourav Agrawal
10/11/2010 at 4:39 अपराह्न
आपकी पोस्ट एक दम परफेक्ट है [हमेशा की तरह ] पर ये टोपिक अपने भी फेवरेट है हम भी कुछ तो बोलेंगे 🙂
सुज्ञ
10/11/2010 at 4:43 अपराह्न
गौरव जी,स्वागत है।
Gourav Agrawal
10/11/2010 at 4:46 अपराह्न
@जाकिर भाईये "जींस" तो फिर भी नयी खोज होगी एक पुरानी खोज है "सत्संग" और "इश्वर चर्चा" "सत्संग" और "इश्वर चर्चा" प्रोटीन्स की कमी से भी "नास्तिकता" की बीमारी हो जाती है :))और आजकल ये सभी बच्चों को बचपन में पर्याप्त मात्रा में नहीं पिलाया जाता है इससे नास्तिकता में तेजी से वृद्दि हुयी है
Gourav Agrawal
10/11/2010 at 4:49 अपराह्न
एक दूसरा कारण भी है सुज्ञ जीआपने वो विज्ञापन देखा हैजब वही सफेदी वही चमक .. कम दामों में मिले… तो तो कोई ये क्यों ले …. वो ना लें शब्दार्थ""यहाँ सफेदी और चमक" = आधुनिक और प्रगतिशील कहलाने का मौका"कम दामों" = बिना पढ़े और दोनों पक्षों को बिना समझे"ये" = इश्वर में विश्वास"वो" = विज्ञान में विश्वास [पूरा का पूरा ]
Gourav Agrawal
10/11/2010 at 4:54 अपराह्न
@सुज्ञ जी आप विनम्र हैं , धन्यवाद आपका … आपने बोलने का मौका दिया [पिछले कमेन्ट में "विज्ञान" की जगह "कथित विज्ञान" पढ़ें]
सुज्ञ
10/11/2010 at 5:01 अपराह्न
गौरव जी,एक दम परफेक्ट है यह विज्ञापन दृष्टांत!! "कम दामों" = गहराई से चिंतन मनन किये बिना।भी हो सकता है।
एस.एम.मासूम
10/11/2010 at 5:01 अपराह्न
नास्तिकता के कारण सही बताए हैं. सहमत
Gourav Agrawal
10/11/2010 at 5:05 अपराह्न
@सुज्ञ जीहाँ …. मैं इसी जगह थोडा सुधार चाहता था …. अभी इसी लाइन को देख कर सोच रहा था की कुछ कमी है [मेरे अनुसार]और आपने भी एक दम सही शब्दों को चुना है ..आभारी हूँ 🙂
सुज्ञ
10/11/2010 at 5:11 अपराह्न
गौरव जी,विनम्रता तो कोई आपसे सीखे।सच भी है, विनयवान के लिये ज्ञान का झरना कभी नहिं सूखता।
abhishek1502
10/11/2010 at 7:00 अपराह्न
very nice post @ sugya ji aur gaurav ji ko bahut dhanyavaad
lalitaalaalitah.com
10/11/2010 at 7:21 अपराह्न
कामनैव मूलमिति प्राप्तम् ।
सलीम ख़ान
10/11/2010 at 7:43 अपराह्न
okz
VICHAAR SHOONYA
10/11/2010 at 8:07 अपराह्न
सुज्ञ जी अपने जो बेहतरीन शुरुवात की उसे गौरव जी ने अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से और भी रोचक बनाया. आप दोनों को धन्यवाद
Alok Mohan
10/11/2010 at 8:29 अपराह्न
भाई जब भी मेरी कोई जरूरत पूरी नही होती मै नास्तिक हो जाता हुऔर पूरी होने पर आस्तिककर्म को धर्म मानने वाले ही असली आस्तिक है
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
11/11/2010 at 12:04 पूर्वाह्न
बहुत अच्छा लिखा है…
मनोज कुमार
11/11/2010 at 6:05 पूर्वाह्न
सुंदर परिभाषा।
DR. ANWER JAMAL
11/11/2010 at 8:23 पूर्वाह्न
विलासी और पाखंडी धर्माचार्यों द्वारा जब जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान नहीं हो पाता तब भी नास्तिकता वुजूद में आती है ।
सुज्ञ
11/11/2010 at 10:45 पूर्वाह्न
विलासी और पाखंडी धर्माभासी स्वयं नास्तिक ही होते है, उनसे तो कपट धर्म फैल्ता है।जिज्ञासुओं को उपदेशक के चरित्र की पहले ही गवेषणा कर देनी चाहिए।स्थापित समाज को विखण्डित कर कुंठित नव समाज के प्रेरक (वर्ग-द्वेषी)भी यह नास्तिकता फ़ैलाते है।