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विचार वेदना की गहराई
गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलते हैं
हितेन्द्र अनंत का दृष्टिकोण
पुरातत्व, मुद्राशास्त्र, इतिहास, यात्रा आदि पर Archaeology, Numismatics, History, Travel and so on
मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय, गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में ग्रामीण जीवन जी रहा हूँ। मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर रेलवे अफसर। वैसे; ट्रेन के सैलून को छोड़ने के बाद गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलने में कठिनाई नहीं हुई। 😊
चरित्र विकास
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कविता रावत
02/11/2010 at 2:34 अपराह्न
bahut achhi prastuti
Gourav Agrawal
02/11/2010 at 3:33 अपराह्न
@सुज्ञ जीएक जिज्ञासा है ….ये गुण बिना दिखे कैसे रह सकते हैं ?? और दिखे तो वो प्रदर्शन कहलायेगा
ZEAL
02/11/2010 at 3:47 अपराह्न
sahi baat hai .
सुज्ञ
02/11/2010 at 3:49 अपराह्न
गौरव जी,॰ये गुण बिना दिखे कैसे रह सकते हैं ?? गुण दिखाने की वस्तु है ही नहिं, जिस किसी के पास है, वह तो प्रचार नहिं(पता भी न चलने का प्रयास) करेगा।और जो, जिस किसी में देखता है, यदि देखने वाला गुणग्राही है,तो चुप-चाप ग्रहण करेगा, दिखावे का अवसर ही न आने देगा। लेकिन कोई उसमें पाखण्ड ढूंढने का प्रयास कर सकता है, पर इस तरह की निंदा से सत्य को कोई खतरा नहिं।
Gourav Agrawal
02/11/2010 at 4:00 अपराह्न
@लेकिन कोई उसमें पाखण्ड ढूंढने का प्रयास कर सकता है, पर इस तरह की निंदा से सत्य को कोई खतरा नहिं।सुज्ञ जी, आपकी इस अंतिम पंक्ति ने निरुत्तर कर दिया मुझे, मैं यही सोच रहा था
सुज्ञ
02/11/2010 at 4:05 अपराह्न
गौरव जी,धन्यवाद, प्रत्युत्तर देकर मैं सोच रहा था, स्पष्ठ नहिं हो पाया हूं।लेकिन आपकी परख बुद्धि नें भाव जान लिया। आभार आसानियां बनाने के लिये।
Gourav Agrawal
02/11/2010 at 4:08 अपराह्न
@सुज्ञ जी मित्रों की आपसी समझ [understanding ] है , आपके कही बात पर पूरी श्रद्दा और पूरा विश्वास था … है .. और रहेगा
Gourav Agrawal
02/11/2010 at 4:11 अपराह्न
"पूर्वाग्रह मानव की दूरदृष्टि का शत्रु है और सच्ची मित्रता पूर्वाग्रह की शत्रु है" अभी अभी बनाया है
सुज्ञ
02/11/2010 at 4:25 अपराह्न
गौरव जी,भई मानना पडेगा।"पूर्वाग्रह मानव की दूरदृष्टि का शत्रु है और सच्ची मित्रता पूर्वाग्रह की शत्रु है"सुक्ति सार्थक बन पडी है, आपको ज्ञानी कह दिखावे में नहिं डालना चाहता।:)
Gourav Agrawal
02/11/2010 at 4:33 अपराह्न
@ज्ञानी कह दिखावे में नहिं डालना चाहता।:)हाँ … इसी बात का डर था … आपने दूर कर दिया , हैं ना मित्रों की आपसी समझ ? 🙂
Archana
02/11/2010 at 4:59 अपराह्न
एक बात जानना चाहती हूँ—-"इन गुणों की शिक्षा धर्म देता है"… या इन गुणों से धर्म बनता/उपजता है ….
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
02/11/2010 at 5:06 अपराह्न
सुज्ञ भाई, गागर में सागर सा भर लाए आप। बधाई।
सुज्ञ
02/11/2010 at 5:22 अपराह्न
अर्चना जी,गुणों को आधार बना कर धर्म के प्रस्तोता तो गुणीजन महापुरूष ही है।लेकिन हम साधारण मनुष्यों तक उसे धर्म (धर्म शास्त्र) ही पहूंचाता है।अन्यथा हमें गुणो अवगुणों का भेद कैसे पता चलता।धर्म को हमनें ही बनाया,यह अहंकारी शब्द कहने वाले भूल जाते है,उनके सामर्थ्य की बात नहिं, इतना सार इतना निचोड कोई सर्वज्ञ ही दे सकता हैं।
Archana
02/11/2010 at 6:59 अपराह्न
@सुज्ञ जी,आभार….मै ये भी जानना चाहती थी कि जहाँ ये गुण है क्या वहाँ धर्म होगा?निश्चित रूप से गुणों/अवगुणों का भेद हम तक धर्मशास्त्रों द्वारा ही पहुँचता है…
anshumala
02/11/2010 at 7:03 अपराह्न
किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी बात के लिए धर्म को दोष देना उसका व्यक्तिगत दोष है |
सुज्ञ
02/11/2010 at 7:16 अपराह्न
अर्चना जी,@मै ये भी जानना चाहती थी कि जहाँ ये गुण है क्या वहाँ धर्म होगा?बिलकुल गुण ही धर्म होता है, गुणों से अलग कोई धर्म नहिं। अर्थार्त वे गुण ही धर्म कहलाते है।
सुज्ञ
02/11/2010 at 7:21 अपराह्न
अन्शुमाला जी,@किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी बात के लिए धर्म को दोष देना उसका व्यक्तिगत दोष है| बिल्कुल, दोषी ही अपने दोष के लिये अन्यत्र कारण ढूंढते है। और धर्म एक सोफ़्ट टार्गेट है।
भारतीय नागरिक - Indian Citizen
02/11/2010 at 7:51 अपराह्न
आप की तर्क शक्ति कमाल की है.
फ़िरदौस ख़ान
02/11/2010 at 9:17 अपराह्न
Nice Post…
Archana
02/11/2010 at 9:45 अपराह्न
@सुज्ञ जी,बिलकुल सहमत हूँ…"गुण ही धर्म होता है, गुणों से अलग कोई धर्म नहिं। अर्थार्त वे गुण ही धर्म कहलाते है।"…जी….अब यदि गुण ही धर्म है, तो इनका(गुणों का) प्रदर्शन होने पर धर्म क्यों बदनाम है?अगर प्रदर्शन होता है, तब तो उत्तम गुण ही दुर्गुणों मे परिवर्तित हो चुके होते है …यानि धर्म–अधर्म में—
Indranil Bhattacharjee ........."सैल"
03/11/2010 at 9:25 पूर्वाह्न
सुज्ञ जी … सही धर्म अब नहीं रहा … जिसे पालन किया जा रहा है अगर हम उसे धर्म मान लेते हैं तो ऐसा धर्म न होना अच्छा है …
सुज्ञ
03/11/2010 at 11:00 पूर्वाह्न
अब यदि गुण ही धर्म है, तो इनका(गुणों का) प्रदर्शन होने पर धर्म क्यों बदनाम है?अगर प्रदर्शन होता है, तब तो उत्तम गुण ही दुर्गुणों मे परिवर्तित हो चुके होते है …यानि धर्म–अधर्म में— अर्चना जी,॰॰॰ एक बार अब पुनः लेख पर दृष्टी करें, यही तो कहा गया है…गुणों व अवगुणों का आरोहण व्यक्ति में होता, दुर्गुण अपना कर कोई अधर्म(पाखण्ड) करे, तो जो धर्म गुणों का प्रस्तूतकर्ता है,वह तो गुण ही प्रस्तूत करेगा। वह बदल कर अवगुणों का प्रस्तावक नहिं हो जायेगा।अब कोई उन्ही धर्म-उपदेशों को विपरित ग्रहण करे, और कहे यह तो उल्टा चलना मैने धर्म से सीखा। इसलिये धर्म ही अधर्म का संकेतक है?दुर्गुणों का अनुसरण व्यक्ति करे, और बदनाम धर्म को करे? जब विपरितार्थ करता है धर्म बदनाम होता है।
सुज्ञ
03/11/2010 at 11:08 पूर्वाह्न
इन्द्रनील जी,क्यों माने हम आज-कल के पाखण्ड को धर्म,पर हमारे शरीर पर यदि गन्दगी लग जाय तो हम हमारे शरीर को ही नहिं फ़ैक देते,हम पुन: शरीर स्वच्छ करने है। वास्त्विक सत्य धर्म की रक्षा कर उसे शुद्ध करने की आवश्यकता है।
Gourav Agrawal
03/11/2010 at 11:09 पूर्वाह्न
क्या बात है सुज्ञ जी ! वाह !
Archana
03/11/2010 at 2:48 अपराह्न
@सुज्ञ जी,अभार!कॄपया ये भी बताएं कि क्या इन गुणों का आपस में कोई सम्बन्ध है?
सुज्ञ
03/11/2010 at 4:21 अपराह्न
अर्चना जी,सभी गु्ण एक ही लक्षय के विस्तार है, लक्षय है मानव जीवन को सौम्य सरल व सभ्य बनाना, मानव को मानव तक ही नहिं सर्वजग जीव हितेषी बनाना। अर्थार्त अहिंसक जीवन।
Archana
03/11/2010 at 5:07 अपराह्न
@सुज्ञ जी,धन्यवाद…
राजभाषा हिंदी
03/11/2010 at 5:08 अपराह्न
बहुत अच्छी प्रस्तुति। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई! राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है! राजभाषा हिन्दी पर – कविता में बिम्ब!
सुज्ञ
03/11/2010 at 5:22 अपराह्न
उपसंहार…।अर्चना जी,गौरव जी के साथ यह अमूल्य चर्चा हुई। मैने अपने सामर्थ्य अनुसार उत्तर देने का मात्र प्रयास किया है, फ़िर भी सर्वज्ञों के मंतव्य के विरुद्ध कोई स्थापना हुई हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ।
deepakchaubey
04/11/2010 at 4:38 अपराह्न
दीपावली के इस पावन पर्व पर आप सभी को सहृदय ढेर सारी शुभकामनाएं
Gourav Agrawal
04/11/2010 at 10:03 अपराह्न
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~आपको, आपके परिवार और सभी पाठकों को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं ….~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
डॉ॰ मोनिका शर्मा
04/11/2010 at 11:04 अपराह्न
बहुत सुंदर विचार दिवाली की शुभकामनाये आपको ….
राज भाटिय़ा
04/11/2010 at 11:40 अपराह्न
वाह अति सुंदर विचार, सहमत हे जी आप की बात से, लेकिन आज हो ऎसा ही रहा हे, धन्यवादआपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं !!!
जी.के. अवधिया
05/11/2010 at 10:32 पूर्वाह्न
दीपावली के इस शुभ बेला में माता महालक्ष्मी आप पर कृपा करें और आपके सुख-समृद्धि-धन-धान्य-मान-सम्मान में वृद्धि प्रदान करें!
Alok Mohan
05/11/2010 at 12:44 अपराह्न
"गागर में सागर "क्या बात है http://blondmedia.blogspot.com/2010/11/blog-post.html
ललित शर्मा
05/11/2010 at 4:55 अपराह्न
सुंदर विचार,दिवाली की शुभकामनाये
Indranil Bhattacharjee ........."सैल"
05/11/2010 at 5:38 अपराह्न
आपको और आपके परिवार को एक सुन्दर, शांतिमय और सुरक्षित दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें !
Gourav Agrawal
06/11/2010 at 8:27 पूर्वाह्न
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar
07/11/2010 at 4:41 अपराह्न
आपने "धर्म, पाखण्ड और व्यक्ति" पर जितना अच्छा विचार प्रस्तुत किया है, उतनी ही अच्छी प्रतिक्रियाएँ भी आ गयीं… प्रतिक्रियाएँ क्या वे तो पूरी-की-पूरी ‘परिचर्चा’ का-सा रूप धारण किये दिखायी दे रही हैं यहाँ… वाह…! बधाई, सुज्ञ जी आपके ‘सु+ज्ञान’ के लिए!
सुज्ञ
10/11/2010 at 9:54 पूर्वाह्न
शुभकामनाएं प्रेषित करने वाले बंधुओं का आभार!एवं नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
सुज्ञ
10/11/2010 at 9:56 पूर्वाह्न
जितेन्द्र ज़ी,मित्रों की सहायता से सार्थक परिचर्चा सम्भव होती है। आप सभी का आभार।
प्रतुल वशिष्ठ
13/11/2010 at 10:32 अपराह्न
..चिंतन से मेरी भी कुछ परिभाषायें बाहर निकल कर आयी हैं, जिसे शीघ्र पोस्ट रूप भी दूँगा : _____________क्षुद्रताओं को छिपाकर [दबाकर] रखना "शिष्टता" है, उन्हें उजागर न होने देना "सभ्यता" है और उन्हें भीतर ही भीतर समाप्त करते रहना "संस्कृत" होते जाना है. क्षुद्रताओं का छिपे रूप से पोषण करना "वंचकता" है, उन्हें वहीं सड़ते रहने देना व किसी अन्य की दृष्टि का भाजन बनना "धूर्तता" है और स्वयं स्पष्टीकरण करते हुए उनमें लिप्त रहना "उच्छृंखलता" कहा जाएगा. क्षुद्रताओं की स्वयं द्वारा सहज स्वीकृति "सज्जनता" है, किन्तु परिमार्जन का भाव उसकी अनिवार्यता है अन्यथा वह "यशलोलुपतापूर्ण स्पष्टवादिता" कहलायेगी. ..