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क्रोध की गठरी, द्वेष की गांठ’ : सुज्ञ-विचार
01
नवम्बर
द्वेष रूपी गांठ बांधने वाले, जीवन भर क्रोध की गठरी सिर पर उठाए घुमते है। यदि द्वेष की गांठे न बांधी होती तो क्रोध की गठरी खुलकर बिखर जाती, और सिर भार–मुक्त हो जाता।
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दीर्घतमा
01/11/2010 at 1:41 अपराह्न
Bahut acchha bichar dhanyabad
POOJA...
01/11/2010 at 1:57 अपराह्न
सर भार-मुक्त हो जाता… बहुत बढ़िया…
मनोज कुमार
01/11/2010 at 2:00 अपराह्न
बहुत सुंदर और प्रेरक पंक्तियां। आभार!
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
01/11/2010 at 3:15 अपराह्न
बहुत ही प्यारी पंक्तियॉं हैं, राह दिखाती हुईं, जीवन आलोकित करती हुईं।आभार।———मन की गति से चलें…बूझो मेरे भाई, वृक्ष पहेली आई।
Gourav Agrawal
01/11/2010 at 3:45 अपराह्न
@सुज्ञ जीबेहद सुन्दर और सारगर्भितआज क्रोध के उपचार बारे में ही ढूंढ रहा था, आपकी बात तो समझ में आ रही है लेकिन ये तो द्वेष रुपी गाँठ बाँधने वालों के बारे में हुआ मान लीजिये मैं द्वेष नहीं रखता फिर भी क्रोध तो आ ही सकता है ना , उस स्थिति में क्या होना चाहिए ?:)
सुज्ञ
01/11/2010 at 4:03 अपराह्न
गौरव जी,राग और द्वेष ही क्रोध का मूल कारण है, मनोज्ञ पर राग और अमनोज्ञ पर द्वेष।जिस क्षण क्रोध का अवसर हो, हम मनन के लिये एक क्षण दें तो समाधान सम्भव है।
सतीश सक्सेना
01/11/2010 at 4:50 अपराह्न
दुःख की बात तब है जब लोग किसी निर्दोष से भी द्वेष भावना पाल लेते हैं .
एस.एम.मासूम
01/11/2010 at 11:34 अपराह्न
सुज्ञ जी आपकी सोंच उत्तम है. काश इसको लोग समझके अपनी ज़िंदगी मैं अपना लें आज आवश्यकता है यह विचार करने की के हम हैं कौन?
Gourav Agrawal
02/11/2010 at 12:24 अपराह्न
@सुज्ञ जीआप ज्ञानियों की संगति में रहा तो शीघ्र ही सब बन्धनों से मुक्त हो जाऊंगा , इस सारगर्भित और प्रभावी शिक्षा के लिए आभार
सुज्ञ
02/11/2010 at 12:39 अपराह्न
गौरव जी,इतना कहां सरल है बंधन मुक्त होना,बडा ही दुष्कर है आस्क्तियों को त्याग पाना। राग-द्वेष पूर्ण त्याग तो सम्भव ही नहिं, उनमें वैचारिक न्यूनता ला पाएं तो भी बडी जीत होगी।
Gourav Agrawal
02/11/2010 at 12:42 अपराह्न
@सुज्ञ जीसब संभव है मानव बेसिकली ब्रम्ह ही है क्योंकि वह भी स्वप्न में अपनी सृष्टि रचता है , ये जीवन बेसिकली स्वप्न ही है जो उस परम ब्रम्ह द्वारा देखा या रचा जाता हैसब संभव है
सुज्ञ
02/11/2010 at 12:58 अपराह्न
गौरव जी,सत्य वचन, यह जीवन या जगत एक स्वप्न संसार ही है। जिन सुखों के लिये दौडतष है, क्षणिक आभास देकर विलुप्त हो जाते है, सुखों की दौड खत्म ही नहिं होती। हमें वस्तुतः शास्वत सुख चाहिए। पर एक शहद बिंदु से सुख में हम बार बार क्यों खुश हो जाते है।बिलकुल स्वप्न की तरह।
सुज्ञ
02/11/2010 at 1:00 अपराह्न
जिन सुखों के लिये दौडते है, वे सुख तो क्षणिक आभास देकर विलुप्त हो जाते है,पढें
Gourav Agrawal
02/11/2010 at 1:07 अपराह्न
@सुज्ञ जीबिलकुल सही कहा आपने , दरअसल मानव का मूल स्वभाव ही है सुख की ओर दौड़नावो हर वस्तु [सजीव या निर्जीव ] से सुख की अभिलाषा रखता है जो की मूल रूप से गलत नहीं है पर गलत हो जाता है जब वो उचित और सुख को एक करना भूल जाता है [सुख क्षणिक हो या स्थाई उचित होना चाहिए ]इस पर एक पोस्ट बनाई थी सही समय नहीं मिल पाया प्रकाशित करने का
ZEAL
02/11/2010 at 2:12 अपराह्न
.प्रेरक पंक्तियां। .
प्रतुल वशिष्ठ
13/11/2010 at 10:03 अपराह्न
..मुझे गद्दारी, विश्वासघात करने वालों के प्रति द्वेष रहता है. कैसे करूँ अपना सिर भार-मुक्त? ..