संगत की रंगत तो, अनिच्छा ही लगनी हैं॥
जा बैठे उद्यान में तो, महक आये फ़ूलों की।
कामीनी की सेज़ बस, कामेच्छा ही जगनी है॥
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।
काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥
कहे कवि ‘सुज्ञ’राज, इतना तो कर विचार।
कायर के संग शूर की, महेच्छा भी भगनी है॥
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Udan Tashtari
18/10/2010 at 6:02 अपराह्न
बहुत बेहतरीन.
M VERMA
18/10/2010 at 6:19 अपराह्न
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥बहुत सुन्दर ….
महेन्द्र मिश्र
18/10/2010 at 6:50 अपराह्न
क्या बात है सुज्ञ जी बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुति…….
सुज्ञ
18/10/2010 at 7:12 अपराह्न
समीर जी,वर्मा जी,महेन्द्र जी,आभार, सराहना के लिये जो संबल देती है।
Coral
18/10/2010 at 8:16 अपराह्न
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥बहुत सुन्दर !
zeashan zaidi
18/10/2010 at 9:34 अपराह्न
शुक्रिया सुज्ञ जी.
एस.एम.मासूम
18/10/2010 at 9:36 अपराह्न
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥Dil Khush ker diya aapne.
abhishek1502
18/10/2010 at 9:38 अपराह्न
very nice postवाह ,क्या लिखते हो आप . आप ऐसे ही लिखते रहिये . अब तो आप की दूसरी कविता का भी इन्तजार रहेगा कहे कवि 'सुज्ञ'राज, इतना तो कर विचार।कायर के संग सुरा की, महेच्छा भी भगनी है॥ कृपया आप इस का अर्थ स्पष्ट कर दे
ZEAL
18/10/2010 at 9:55 अपराह्न
.काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है…इसके जवाब में–चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग। .
दीर्घतमा
19/10/2010 at 12:45 पूर्वाह्न
काजल की कोठारी में कितना भी सयाना घुसे ———-बहुत ही भाव भारी कबिता ,लेकिन मै दिब्या जी से सहमत हू बहुत-बहुत धन्यवाद.
पं.डी.के.शर्मा"वत्स"
19/10/2010 at 1:46 पूर्वाह्न
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥वाह! हंसराज जी, आप तो "कविराज" निकले :)सच में बेहद अच्छी लगी आपकी ये रचना….बेहतरीन्!
Ravindra Nath
19/10/2010 at 4:53 पूर्वाह्न
सुन्दर
वाणी गीत
19/10/2010 at 7:47 पूर्वाह्न
अच्छी संगत कई बार बुरे लोगों को सुधारने का काम भी करती है …वैसे कविता अच्छी है …!
सम्वेदना के स्वर
19/10/2010 at 8:52 पूर्वाह्न
हंसराज जी,अच्छी संगत के गुणगान अच्छे लगे!!
सुज्ञ
19/10/2010 at 10:47 पूर्वाह्न
कायर के संग सुरा की, महेच्छा भी भगनी है॥ @कृपया आप इस का अर्थ स्पष्ट कर दे अभिषेक जी,कायर का संग करने से वीर की इच्छा भी पलायनवादी हो जाती है।
सुज्ञ
19/10/2010 at 10:53 पूर्वाह्न
@चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग। दिव्या जी,अलिप्त रहने की दृढ शक्तिवालों के लिये निश्चित ही सही दृष्टांत है।पर निश्छल मनोदशा वाला यदि, काली कोठरी से गुजरे तो दाग लेकर ही निकलेगा।
अमित शर्मा
19/10/2010 at 10:56 पूर्वाह्न
सद् भावना के रंग, बैठें जो पूर्वाग्रही संग।संगत की रंगत तो, अनिच्छा ही लगनी हैं॥बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुति…….
सुज्ञ
19/10/2010 at 10:59 पूर्वाह्न
अच्छी संगत कई बार बुरे लोगों को सुधारने का काम भी करती है …वाणी जी,आपकी बात सही है, लेकिन पात्रता आवश्यक है। संगत गुणसम्पन्न(पात्रता) की हो, और बुराई में स्वयं के सुधार की गुंजाईश(पात्रता)सराहना के लिये आभार्।
सुज्ञ
19/10/2010 at 11:02 पूर्वाह्न
ज़िशान साहब,मासूम साहब,हौसला अफ़ज़ाई का शुक्रिया!!
सुज्ञ
19/10/2010 at 11:09 पूर्वाह्न
पंडितवर्य जी,आपके प्रोत्साहन और सलाह सूचन का ही परिणाम है। 🙂
सुज्ञ
19/10/2010 at 11:13 पूर्वाह्न
@अच्छी संगत के गुणगान अच्छे लगे!! चैतन्य जी,ताकि चैतन्य की संगत में हमारी चेतना भी लगी रहे। 😉
सुज्ञ
19/10/2010 at 11:15 पूर्वाह्न
सुबेदार जी,रविंद्र जी,आभार, यदि भाव आप तक पहुंचाने में समर्थ हुआ।
सुज्ञ
19/10/2010 at 11:20 पूर्वाह्न
अमित जी,आपने कविता के सार्थक अंश को इंगित किया। आभार
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
19/10/2010 at 12:51 अपराह्न
सुज्ञ भाई, बहुत सुंदर बातें आपने कविता के माध्यम से कह दी हैं। हार्दिक बधाई।
पी.सी.गोदियाल
19/10/2010 at 1:23 अपराह्न
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥उच्चवचन !
सुज्ञ
19/10/2010 at 3:56 अपराह्न
‘रजनीश’ जी,गोदियाल जी,आभार आपका!!
Mahak
19/10/2010 at 4:56 अपराह्न
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥आपकी कवितायें बेहद यथार्थवादी होती हैं ,यह कविता भी बेहद बेहतरीन और लाजवाब है ,मेरे खैयाल से आपकी श्रेष्ठ रचनाओं में से एक ,इसके लिए मेरी ओर से ढेरों बधाइयां स्वीकार करें कविराज हंसराज जी अर्थात सुज्ञराज जीमहक
सुज्ञ
19/10/2010 at 5:06 अपराह्न
महक जी, यथार्थ आप तक पहुंचा मेरा श्रम सफ़ल हुआ।मित्रों का प्रोत्साहन ही मेरा संबल है।
विवेक सिंह
20/10/2010 at 12:01 अपराह्न
इसे गाकर पढ़ने में अलग ही मज़ा है ।
सुज्ञ
20/10/2010 at 12:19 अपराह्न
विवेक जी,बिल्कुल, यह काव्य सवैया कहलाता है।
arun c roy
20/10/2010 at 6:33 अपराह्न
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे। काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है॥ क्या बात है … बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुति…….
दिगम्बर नासवा
25/10/2010 at 2:03 अपराह्न
काजल की कोठरी में, कैसा भी सयाना घुसे।काली सी एक रेख, निश्चित ही लगनी है …आपने सही लिखा है .. सुंदर प्रस्तुति है …