क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।
कोई अपमान कैसे करेगा,
हमको अपने अभिमान ने मारा।
लोग ठग ही न पाते कभी भी,
हमको अपने ही लोभ ने मारा।
क्रोध अपना लगाता है अग्नि,
दावानल सा लगे जग सारा।
लगे षडयंत्र रचती सी दुनियां,
खुद की माया नें जाल रचाया।
मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,
मुझको अपने ही मोह ने बांधा।
रिश्ते बनते है पल में पराए,
मैने अपना स्वार्थ जब साधा।
दर्द आते है मुझ तक कहां से,
खुद ही ओढा भावों का लबादा।
इच्छा रहती सदा ही अधूरी,
पाना चाहा देने से भी ज्यादा।
खुद का स्वामी मुझे था बनना,
मैने बाहर ही ढूंढा खेवैया।
स्व कषायों ने नैया डूबो दी,
जब काफ़ी निकट था किनारा।
मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।
राजभाषा हिंदी
31/08/2010 at 8:47 पूर्वाह्न
बहुत अच्छी कविता। हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।
पं.डी.के.शर्मा"वत्स"
31/08/2010 at 9:13 अपराह्न
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।सच कहा आपने….दुश्मन तो हमारे खुद के अन्तर में छिपे बैठे है, बल्कि हम लोग तो खुद ही उन्हे भीतर आश्रय दिए बैठे हैं. कविता वाकई में बहुत ही बढिया लगी…हालाँकि बीच में कहीं कहीं लय टूटती सी भी लगी..लेकिन भाव बहुत ही उम्दा रहे..