क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।
कोई अपमान कैसे करेगा,
हमको अपने अभिमान ने मारा।
लोग ठग ही न पाते कभी भी,
हमको अपने ही लोभ ने मारा।
क्रोध अपना लगाता है अग्नि,
दावानल सा लगे जग सारा।
लगे षडयंत्र रचती सी दुनियां,
खुद की माया नें जाल रचाया।
मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,
मुझको अपने ही मोह ने बांधा।
रिश्ते बनते है पल में पराए,
मैने अपना स्वार्थ जब साधा।
दर्द आते है मुझ तक कहां से,
खुद ही ओढा भावों का लबादा।
इच्छा रहती सदा ही अधूरी,
पाना चाहा देने से भी ज्यादा।
खुद का स्वामी मुझे था बनना,
मैने बाहर ही ढूंढा खेवैया।
स्व कषायों ने नैया डूबो दी,
जब काफ़ी निकट था किनारा।
मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।
Shah Nawaz
30/08/2010 at 11:51 पूर्वाह्न
दिल की गहराईयों से लिखी हुई रचना है……
नीरज गोस्वामी
30/08/2010 at 1:03 अपराह्न
मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,मुझको अपने ही मोह ने बांधा।रिश्ते बनते है पल में पराए,मैने अपना स्वार्थ जब साधा।सच्ची और अच्छी पंक्तियाँ…बहुत सुन्दर रचना है आपकी…बधाई…नीरज
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
30/08/2010 at 1:11 अपराह्न
आत्म-मंथन करती आपकी रचना बहुत बढ़िया रही!
दिगम्बर नासवा
30/08/2010 at 1:53 अपराह्न
कोई अपमान कैसे करेगा,हमको अपने अभिमान ने मारा।लोग ठग ही न पाते कभी भी,हमको अपने ही लोभ ने मारा …बहुत खूब … पर आज इस बात को कोई समझता नही है … ये स्वयं का अभिमान .. अपना लोभ ही है जो पतन का कारण बनता है …. अच्छा लिख़ाः है …
सुज्ञ
30/08/2010 at 2:42 अपराह्न
शाहनवाज़ साहब,नीरज गोस्वामी जी,डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी,दिगम्बर नासवा जीसराहना के लिये शुक्रिया साहब।
कुमार राधारमण
30/08/2010 at 2:49 अपराह्न
कविता आध्यात्मिक स्वरूप की है। भिन्न प्रकार की शैली से उसकी प्रभावोत्पादकता बढ़ती,यद्यपि मूल अर्थ अब भी संप्रेषित होता ही है।
Babli
30/08/2010 at 4:02 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर और गहरे भाव के साथ लिखी हुई आपकी ये शानदार रचना प्रशंग्सनीय है! उम्दा प्रस्तुती!
दीर्घतमा
30/08/2010 at 4:34 अपराह्न
मैंने बाहर ही ढूंढा खेवैया.बहुत अच्छी प्रकार से अपने बात कही बहुत-बहुत मन को छूने वाली कबिता
Majaal
30/08/2010 at 5:23 अपराह्न
अच्छी रचना है, अगर 'अग्नी' की जगह 'अग्नि' कर पाएँ तो ज्यादा बेहतर होगा.
सुज्ञ
30/08/2010 at 8:16 अपराह्न
कुमार राधारमण जी,उर्मि जी,सुबेदार जी,मजाल साहब,आपकी निर्मल सराहना के लिये आभार।
Mahak
30/08/2010 at 9:57 अपराह्न
क्रोध अपना लगाता है अग्नि,दावानल सा लगे जग सारा।लगे षडयंत्र रचती सी दुनियां,खुद की माया नें जाल रचाया।मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,मुझको अपने ही मोह ने बांधा।रिश्ते बनते है पल में पराए,मैने अपना स्वार्थ जब साधा।बहुत ही उम्दा और आत्ममंथन करती हुई सच्ची रचना ,सुज्ञ जी बहुत बढ़िया
ओशो रजनीश
30/08/2010 at 10:28 अपराह्न
अच्छी कविता लिखी है आपने ………. आभारकुछ लिखा है, शायद आपको पसंद आये –(क्या आप को पता है की आपका अगला जन्म कहा होगा ?)http://oshotheone.blogspot.com
Akhtar Khan Akela
30/08/2010 at 10:29 अपराह्न
hns raaj bhaayi aapne shi khaa sbse bde dushmn hmare andr hi mojud hen kaam,krodh,vaasnaa,laalch, bhrsshtachaar,ashishtta yeh sb km se km mere men to hen or yhi mere dushmn he aapki is kvitaa ne mujhe sch kaa ehsaas kraaya he dhnyvaad, dusri baat saanp aajkl bilon men nhin astinon men plaa krte hen bil vaale saanp to spere ki bin pr nachte hen or pkd men aajaate hen lekin astin ke saanp to bs jan or izzt lekr hi jaate hen. akhtar khan akela ktoa rajsthan
Anjana (Gudia)
30/08/2010 at 11:35 अपराह्न
bahut sunder aur bahut sahi!
संगीता स्वरुप ( गीत )
31/08/2010 at 1:11 पूर्वाह्न
मनुष्य के स्वार्थ को बताती अच्छी रचना
Udan Tashtari
31/08/2010 at 7:12 पूर्वाह्न
खुद का स्वामी मुझे था बनना,मैने बाहर ही ढूंढा खेवैया।स्व कषायों ने नैया डूबो दी,जब काफ़ी निकट था किनारा।-भाई, मोह लिया मन!! बहुत सलीके से बात रखी है. वाह!
सुज्ञ
31/08/2010 at 12:32 अपराह्न
महक ज़ी,ओशो विचारक जी,अख्तर साहब,अंजना जी,सगीता दीदी,समीर जी,आपका लाख लाख शुक्रिया मेरे भावों को प्रोत्साहन दिया।
PKSingh
31/08/2010 at 12:40 अपराह्न
gaurtalab par aane ka bahut – bahut shukriya!bahut hi achha blog hai aapka..anmol khajana haath laga!
Virendra Singh Chauhan
31/08/2010 at 8:11 अपराह्न
सुज्ञ ji…ye abhivayakti bahut hi sunder hai.badi achhi baat aapne kahi.Mujhe ye rachna bahut achhi lagi.
चला बिहारी ब्लॉगर बनने
31/08/2010 at 9:00 अपराह्न
आदमी के अंदर बईठा हुआ सब सत्रु से आप एक्के साथ मुलाक़ात करवा दिए.. सच कहे हैं कि ई सब दुस्मन को भगाने के बादे आदमी इंसान बनता है…बहुत अच्छा लगा पढकर!!
बेचैन आत्मा
01/09/2010 at 9:29 पूर्वाह्न
हम खुद ही अपने मित्र और खुद ही शत्रु हैं।..उम्दा खयाल।
सुज्ञ
01/09/2010 at 4:28 अपराह्न
पी के सिंह जी,विरेन्द्र जी,सलील जी,देवेन्द्र जी,शुभ भावों को प्रोत्साहित करने का आभार।
संजय भास्कर
19/09/2010 at 1:13 अपराह्न
बहुत पसन्द आयाहमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवादबहुत देर से पहुँच पाया ……..माफी चाहता हूँ..