सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।
गुड की ढेली पाकर चुहा, बन बैठा पंसारी।
पंसारिन नमक पे गुड का, पानी चढा रही है।
कपि के हाथ लगा है अबतो, शांत पडा वो पत्थर।
शांति भी विचलित अपना, कोप बढा रही है।
हिंसा ने ओढा है जब से, शांति का चोला।
अहिंसा मन ही मन अबतो, बडबडा रही है।
सियारिन जान गई जब करूणा की कीमत।
मासूम हिरनी पर हिंसक आरोप चढा रही है।
सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।
क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।
DEEPAK BABA
26/08/2010 at 8:20 अपराह्न
गुड की ढेली पाकर चुहा, बन बैठा पंसारी।पंसारिन नमक पे गुड का, पानी चढा रही है।सही बताइयें तो देश की येही स्तिथि है…….
VICHAAR SHOONYA
26/08/2010 at 8:21 अपराह्न
अब का करी ससुर एही तो कलजुग बा
सतीश सक्सेना
26/08/2010 at 8:39 अपराह्न
सही तकलीफ व्यक्त की है आपने , बेहतरीन सामयिक अभिव्यक्ति , मगर आप जैसे लोगों के होते फर्क आएगा ….शुभकामनायें !
'अदा'
26/08/2010 at 9:02 अपराह्न
जो आपने लिखा है …बहुत सही कटाक्ष है…लेकिन सन्दर्भ क्या है..ई हम नहीं समझे हैं….
पं.डी.के.शर्मा"वत्स"
26/08/2010 at 10:07 अपराह्न
सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।!हँसराज जी, एक बेहद सामयिक एवं सटीक अभिव्यक्ति….अक्ल के अन्धों को छोड दिया जाए, तो जो कुछ भी यहाँ घट रहा है उसे तो एक आँख का अंधा भी बखूबी महसूस कर सकता है…..
पं.डी.के.शर्मा"वत्स"
26/08/2010 at 10:08 अपराह्न
सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।!हँसराज जी, एक बेहद सामयिक एवं सटीक अभिव्यक्ति….अक्ल के अन्धों को छोड दिया जाए, तो जो कुछ भी यहाँ घट रहा है उसे तो एक आँख का अंधा भी बखूबी महसूस कर सकता है…..
Akhtar Khan Akela
26/08/2010 at 10:23 अपराह्न
bhut khub aaj ki krurtaa or chdm yaani dohre kirdaar dohri soch kaa khub khulaasaa kiyaa he bdhaayi ho akhtar khan akela kota rajsthan
Mahak
26/08/2010 at 11:19 अपराह्न
हिंसा ने ओढा है जब से, शांति का चोला।अहिंसा मन ही मन अबतो, बडबडा रही है।सियारिन जान गई जब करूणा की कीमत।मासूम हिरनी पर हिंसक आरोप चढा रही है।सौ सौ चुहे खा के बिल्ली, हज़ को जा रही है।क्रूरता आकर करूणा के, पाठ पढा रही है।@आदरणीय एवं प्रिय सुज्ञ जीआपने तो पूरी की पूरी हकीकत बयान कर दी अपनी इस एक रचना के ज़रिये, बहुतों को आईना दिखाने की काबिलियत है आपकी इस कविता में मेरी तरफ से आपको ढेरों बधाई और एक निवेदन भी- कृपया इस रचना को ब्लॉग-संसद पर भी publish करें आभार महक
अनामिका की सदायें ......
27/08/2010 at 12:29 पूर्वाह्न
आप की रचना 27 अगस्त, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.http://charchamanch.blogspot.com आभार अनामिका
M VERMA
27/08/2010 at 5:12 पूर्वाह्न
गुड की ढेली पाकर चुहा, बन बैठा पंसारी।पंसारिन नमक पे गुड का, पानी चढा रही है।बखूबी, सुन्दर कटाक्ष किया है
वाणी गीत
27/08/2010 at 7:54 पूर्वाह्न
सियारिन जान गई जब करूणा की कीमत।मासूम हिरनी पर हिंसक आरोप चढा रही है।क्या बात है ….!!सन्दर्भ दे दिया होता तो कविता और भी सार्थक हो जाती..(निर्मल हास्य )
VICHAAR SHOONYA
27/08/2010 at 10:29 पूर्वाह्न
कवि अपनी कविता का सन्दर्भ देता दिखा है कहीं. जरा ब्लॉग से ही उदहारण दें समझाएं मुझ जैसे कवितायेँ कम समझने वाले व्यक्ति को.
Virendra Singh Chauhan
27/08/2010 at 11:13 पूर्वाह्न
Bahut hi Umda rachna hai…..
सुज्ञ
27/08/2010 at 11:34 पूर्वाह्न
कवि के शुभचिंतक ही कुरेद रहे है,कवि के घाव? :)किस किस को बताएं हम दिल के छाले,दुआ कर रहे हैं दुआ करने वाले।कवि भुखे पेट भजन कर लेता है,पर यहां वहां मुंह नहिं मारता।भुखा रहकर भी भावनाएं समझे उसका नाम कवि।
Divya
27/08/2010 at 2:01 अपराह्न
.कवी सुज्ञ को हमारा नमन इस बढ़िया कविता के लिए। इसे पढ़कर एक ही ख़याल आया…. बिल्ली के संग बिल्ले भी अब भगवा अपना रहे हैं।.
Babli
27/08/2010 at 2:08 अपराह्न
मुझे आपका ब्लॉग बहुत बढ़िया लगा! बहुत ही सुन्दर और शानदार रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है!मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है !
संगीता स्वरुप ( गीत )
27/08/2010 at 4:30 अपराह्न
बहुत ज़बरदस्त कटाक्ष …
नीरज गोस्वामी
27/08/2010 at 4:37 अपराह्न
गुड की ढेली पाकर चुहा, बन बैठा पंसारी।पंसारिन नमक पे गुड का, पानी चढा रही हैहंस जी आपके ब्लॉग पर आज आ कर आनंद आ गया…क्या खूब लिखते हैं आप…वाह…बधाई स्वीकार करें..नीरज
सुज्ञ
27/08/2010 at 8:07 अपराह्न
दीपक जी,संचालक जी :विचार शून्य, सतीश सक्सेना,स्वप्न मंजूषा जी,पं.डी.के.शर्मा"वत्स" जी,अखतर साहब,महक जी,अनमिका जी,एम वर्मा जी,वाणी गीत जी,विरेंद्र सिंह चौहान जी,दिव्या जी,उर्मि चक्रवर्ती जी,संगीता स्वरुप जी (दीदी),नीरज गोस्वामी जी,कविता के भाव को सराहने के लिये आपका बहुत बहुत आभार
कुमार राधारमण
27/08/2010 at 8:08 अपराह्न
आजकल यही हाल है। क्या किया जाए।
दीर्घतमा
28/08/2010 at 10:01 पूर्वाह्न
बहुत अच्छा कबिता क़े माध्यम से आपने सटीक हमला किया है धन्यवाद
PKSingh
28/08/2010 at 12:19 अपराह्न
bahut hi sarthak rachna…vastusthiti ko darshati huye
राजेश उत्साही
28/08/2010 at 1:16 अपराह्न
पढ़ तो लिया,पर कहने को कुछ नहीं।
Shah Nawaz
28/08/2010 at 8:41 अपराह्न
सोचने को मजबूर करती हुई रचना…..
सुज्ञ
28/08/2010 at 8:56 अपराह्न
सुबेदार जी,पी के सिंह जी,शाहनवाज़ जी,भाव को समझने के लिये आभार्।
सुज्ञ
28/08/2010 at 8:58 अपराह्न
राजेश जी,भाव पहूंच गया तो बस,सफ़ल हुआ कार्य।
राजभाषा हिंदी
29/08/2010 at 8:14 पूर्वाह्न
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हिंदी, नागरी और राष्ट्रीयता अन्योन्याश्रित हैं।
sm
30/08/2010 at 1:43 पूर्वाह्न
beautiful poemvery truthful
दिगम्बर नासवा
30/08/2010 at 1:55 अपराह्न
कपि के हाथ लगा है अबतो, शांत पडा वो पत्थर।शांति भी विचलित अपना, कोप बढा रही है …आज के हालात का सही विवेचन किया है ……बहुत खूब ……
Divya
30/08/2010 at 4:33 अपराह्न
पुनः पढ़ी आपकी कविता, बहुत अच्छी लगी। बहुत सुन्दर तरीके से अभिव्यक्ति ।
mridula pradhan
31/08/2010 at 11:53 पूर्वाह्न
very good.
सुज्ञ
31/08/2010 at 12:38 अपराह्न
राजभाषा हिंदी संचलक श्री,एस एम जी,दिगम्बर नासवा जी,दिव्या जीमृदुला प्रधान जी,अभिव्यक्ति को संबल प्रदान करने के लिये आभार!!
abhishek1502
02/09/2010 at 12:49 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर ,देश की हालत आप ने कविता के माद्यम से एक दम सटीक वर्णित की है
संजय भास्कर
19/09/2010 at 1:15 अपराह्न
सोचने को मजबूर करती हुई रचना…..
प्रतुल वशिष्ठ
16/03/2011 at 3:50 अपराह्न
Jabardst kataaksh.
Anurag Sharma
26/05/2013 at 12:10 पूर्वाह्न
So true!