शाकाहार के बारे में अक्सर होने वाली बहस और इन सब तर्कों-कुतर्कों में कितनी सच्चाई है। लोग पेड़ पौधों में जीवन होने की बात को अक्सर शाकाहार के विरोध में तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि भोजन के लिए प्रयोग होने वाले पशु की हत्या निश्चित है जबकि पौधों के साथ ऐसा होना ज़रूरी नहीं है।
मैं अपने टमाटर के पौधे से पिछले दिनों में बीस टमाटर ले चुका हूँ और इसके लिए मैंने उस पौधे की ह्त्या नहीं की है। पौधों से फल और सब्जी लेने की तुलना यदि पशु उपयोग से करने की ज़हमत की जाए तो भी इसे गाय का दूध पीने जैसा समझा जा सकता है। हार्ड कोर मांसाहारियों को भी इतना तो मानना ही पडेगा की गाय को एक बारगी मारकर उसका मांस खाने और रोज़ उसकी सेवा करके दूध पीने के इन दो कृत्यों में ज़मीन आसमान का अन्तर है।
अधिकाँश अनाज के पौधे गेंहूँ आदि अनाज देने से पहले ही मर चुके होते हैं। हाँ साग और कंद-मूल की बात अलग है। और अगर आपको इन कंद मूल की जान लेने का अफ़सोस है तो फ़िर प्याज, लहसुन, शलजम, आलू आदि मत खाइए और हमारे प्राचीन भारतीयों की तरह सात्विक शाकाहार करिए। मगर नहीं – आपके फलाहार को भी मांसाहार जैसा हिंसक बताने वाले प्याज खाना नहीं छोडेंगे क्योंकि उनका तर्क प्राणिमात्र के प्रति करुणा से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह तो सिर्फ़ बहस करने के लिए की गयी कागजी खानापूरी है।
मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक मित्र मेरे घर पर बोनसाई देखकर काफी व्यथित होकर बोले, “क्या यह पौधों पर अत्याचार नहीं है?” अब मैं क्या कहता? थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने पेट ख़राब होने का किस्सा बताया और उसका दोष उन बीसिओं झींगों को दे डाला जिन्हें वे सुबह डकार चुके थे – कहाँ गया वह अत्याचार-विरोधी झंडा?
एक और बन्धु दूध में पाये जाने वाले बैक्टीरिया की जान की चिंता में डूबे हुए थे। शायद उनकी मांसाहारी खुराक पूर्णतः बैक्टीरिया-मुक्त ही होती है। दरअसल विनोबा भावे का सिर्फ़ दूध की खुराक लेना मांसाहार से तो लाख गुने हिंसा-रहित है ही, मेरी नज़र में यह किसी भी तरह के साग, कंद-मूल आदि से भी बेहतर है। यहाँ तक कि यह मेरे अपने पौधे से तोडे गए टमाटरों से भी बेहतर है क्योंकि यदि टमाटर के पौधे को किसी भी तरह की पीडा की संभावना को मान भी लिया जाए तो भी दूध में तो वह भी नहीं है। इसलिए अगली बार यदि कोई बहसी आपको पौधों पर अत्याचार का दोषी ठहराए तो आप उसे सिर्फ़ दूध पीने की सलाह दे सकते हैं। बेशक वह संतुलित पोषण न मिलने का बहाना करेगा तो उसे याद दिला दें कि विनोबा दूध के दो गिलास प्रतिदिन लेकर ३०० मील की पदयात्रा कर सकते थे, यह संतुलित और पौष्टिक आहार वाला कितने मील चलने को तैयार है?
आईये सुनते हैं शिरिमान डॉक्टर नायक जी की बहस को – अरे भैया, अगर दिमाग की भैंस को थोडा ढील देंगे तो थोड़ा आगे जाने पर जान पायेंगे कि अगर प्रभु ने अन्टार्कटिका में घास पैदा नहीं की तो वहाँ इंसान भी पैदा नहीं किया था। आपके ख़ुद के तर्क से ही पता लग जाता है कि प्रभु की मंशा क्या थी। फ़िर भी अगर आपको जुबां का चटखारा किसी की जान से ज़्यादा प्यारा है तो कम से कम उसे धर्म का बहाना तो न दें। पशु-बलि की प्रथा पर कवि ह्रदय का कौतूहल देखिये :
अजब रस्म देखी दिन ईदे-कुर्बां
ज़बह करे जो लूटे सवाब उल्टा
धर्म के नाम पर हिंसाचार को सही ठहराने वालों को एक बार इस्लामिक कंसर्न की वेबसाइट ज़रूर देखनी चाहिए। इसी प्रकार की एक दूसरी वेबसाइट है जीसस-वेज। हमारे दूर के नज़दीकी रिश्तेदार हमसे कई बार पूछ चुके हैं कि “किस हिंदू ग्रन्थ में मांसाहार की मनाही है?” हमने उनसे यह नहीं पूछा कि किस ग्रन्थ में इसकी इजाजत है लेकिन फ़िर भी अपने कुछ अवलोकन तो आपके सामने रखना ही चाहूंगा।
योग के आठ अंग हैं। पहले अंग यम् में पाँच तत्त्व हैं जिनमें से पहला ही “अहिंसा” है। मतलब यह कि योग की आठ मंजिलों में से पहली मंजिल की पहली सीढ़ी ही अहिंसा है। जीभ के स्वाद के लिए ह्त्या करने वाले क्या अहिंसा जैसे उत्कृष्ट विषय को समझ सकते हैं? श्रीमदभगवदगीता जैसे युद्धभूमि में गाये गए ग्रन्थ में भी श्रीकृष्ण भोजन के लिए हर जगह अन्न शब्द का प्रयोग करते हैं।
अंडे के बिना मिठाई की कल्पना न कर सकने वाले केक-भक्षियों के ध्यान में यह लाना ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति में मिठाई का नाम ही मिष्ठान्न = मीठा अन्न है। पंचामृत, फलाहार, आदि सारे विचार अहिंसक, सात्विक भोजन की और इशारा करते हैं। हिंदू मंदिरों की बात छोड़ भी दें तो गुरुद्वारों में मिलने वाला भोजन भी परम्परा के अनुसार शाकाहारी ही होता है। संस्कृत ग्रन्थ हर प्राणी मैं जीवन और हर जीवन में प्रभु का अंश देखने की बात करते हैं। ग्रंथों में औषधि के उद्देश्य से उखाड़े जाने वाले पौधे तक से पहले क्षमा प्रार्थना और फ़िर झटके से उखाड़ने का अनुरोध है। वे लोग पशु-हत्या को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं?
अब रही बात प्रकृति में पायी जाने वाली हिंसा की। मेरे बचपन में मैंने घर में पले कुत्ते भी देखे थे और तोते भी। दोनों ही शुद्ध शाकाहारी थे। प्रकृति में अनेकों पशु-पक्षी प्राकृतिक रूप से ही शाकाहारी हैं। जो नहीं भी हैं वे भी हैं तो पशु ही। उनका हर काम पाशविक ही होता है। वे मांस खाते ज़रूर हैं मगर उसके लिए कोई भी अप्राकृतिक कार्य नहीं करते हैं। वे मांस के लिए पशु-व्यापार नहीं करते, न ही मांस को कारखानों में काटकर पैक या निर्यात करते हैं। वे उसे लोहे के चाकू से नहीं काटते और न ही रसोई में पकाते हैं। वे उसमें मसाले भी नहीं मिलाते और बचने पर फ्रिज में भी नहीं रखते हैं। अगर हम मनुष्य इतने सारे अप्राकृतिक काम कर सकते हैं तो शाकाहार क्यों नहीं? शाकाहार को अगर आप अप्राकृतिक भी कहें तो भी मैं उसे मानवी तो कहूंगा ही।
अगर आप अपने शाकाहार के स्तर से असंतुष्ट हैं और उसे पौधे पर अत्याचार करने वाला मानते हैं तो उसे बेहतर बनाने के हजारों तरीके हैं आपके पास। मसलन, मरे हुए पौधों का अनाज एक पसंद हो सकती है। और आगे जाना चाहते हैं तो दूध पियें और सिर्फ़ पेड़ से टपके हुए फल खाएं और उसमें भी गुठली को वापस धरा में लौटा दें। नहीं कर सकते हैं तो कोई बात नहीं – शाकाहारी रहकर आपने जितनी जानें बख्शी हैं वह भी कोई छोटी बात नहीं है। दया और करुणा का एक दृष्टिकोण होता है जिसमें जीव-हत्या करने या उसे सहयोग करने का कोई स्थान नहीं है।
-अनुराग शर्मा
सुज्ञ
19/08/2010 at 3:16 अपराह्न
मांसाहार की उपयोगिता व आवश्यकता का भ्रमजाल हटाना आवश्यक है।ताकि लोग अपनी पसंद को सौमय सात्विक आधार दे सके।शाकाहार को प्रचार की आवश्यकता ही नहिं है। लेकिन मांसाहार का घ्रणित दुष्प्रचार रोकना आवश्यक है। और फ़िर मांसाहारियो के आहार में भी अधिकांश हिस्सा शाकाहार का ही होता है, आधे से भी अधिक वह शाकाहारी वस्तुएं लेता है।शाकाहार को पूर्णतः छोड कर मानव मात्र मांसाहार पर रह ही नहीं सकता।जरूरत है कुतर्कों द्वारा मांसाहार के भ्रमित प्रचार का, तर्कबद्ध प्रतिकार किया जाय।
सुज्ञ
19/08/2010 at 3:21 अपराह्न
यह घोर विडम्बना है कि जो इस्लाम को बदनाम करने के लिये उसे क्रूरता, हिंसा,जेहाद व आंतक से जोड देना चाहते है,और उसके लिये मांसाहार की क्रुरता को आगे कर उसके क्रूर स्वभाव पर ध्यान केंद्रित करते है। मुसलमान भी उसी मानसिकता का पोषण करते दिखाई देते है। और उन्ही का भरपूर सहयोग करते नज़र आते है। अर्थार्त वे चाह्ते है यह क्रूर ठप्पा सलामत रहे। है ना आश्चर्य है!!!
सुज्ञ
19/08/2010 at 3:41 अपराह्न
"एक यह भी कुतर्क दिया जाता है कि शाकाहारी सब्जीओ को पैदा करनें के लिये आठ दस प्रकार के जंतु व कीटों को मारा जाता है।"इन्ही की तरह कुतर्क करने को दिल चाह्ता है:-भाई इतनी ही जीवों पर करूणा आ रही है,तो दोनो को छोड दो,और दोनो नहिं तो पूरी तरह से किसी एक का तो त्याग करो…॥जीव की मांस के लिये जब हत्या की जाती है,तो जान निकलते ही मक्खियां करोडों अंडे उस मुर्दे पर दे जाती है,पता नहीं जान निकलनें का एक क्षण में मक्खिओं को कैसे आभास हो जाता है,उसी क्षण से वह मांस मक्खिओं के लार्वा का भोजन बनता है,जिंदा जीव के मुर्दे में परिवर्तित होते ही उसके मांस में 563 तरह के सुक्ष्म जीव उस मुर्दा मांस में पैदा हो जाते है। और जहां यह तैयार किया जाता है वह जगह व बाज़ार रोगाणुओं के घर होते है, और यह रोगाणु भी जीव होते है। यनि ताज़ा मांस के टुकडे पर ही हज़ारों मक्खी के अंडे,हज़ारो सुक्ष्म जीव,और हज़ारों रोगाणु होते है।कहो, किसमें जीव हिंसा ज्यादा है।, मुर्दाखोरी में या अनाज दाल फ़ल तरकारी में?
सम्वेदना के स्वर
19/08/2010 at 3:50 अपराह्न
मनुष्य की आतों (इंटस्टाइन) का इतना लम्बा होना ही बतया जाता है उसके वस्तुत: शाकाहारी होने को. मेरी दृष्टि में जो जितना सम्वेदंशील है उतना ही कम हिंसक है, भोजन भी उसकी हिंसा का एक आयाम है. महावीर को चीटीं में भी प्राण दिखायी पडते हैं इस कारण वो उन्हें कष्ट न हो इसका ख्याल रखते हैं. हरे फलों में जीवन जान पड़ता है और जीवन का उनके मन में गहरा सम्मान है तो उसे भी बचाने को कहते हैं.
सुज्ञ
19/08/2010 at 4:17 अपराह्न
चैतन्य जी,आभार, आपका ओशो-दर्शन इस विषय में स्पष्ट है।
सुज्ञ
19/08/2010 at 4:32 अपराह्न
"ऐसा कोनसा आहार है,जिसमें हिंसा नहिं होती।"यह कुतर्क ठीक ऐसा है कि 'वो कौनसा देश है जहां मानव हत्याएं नहिं होती। अतः हत्याओं को जायज मान लिया जाय। और स्वीकार कर लिया जाय और उसे बुरा न बताया जाय। है ना आश्चर्य!!
सुज्ञ
19/08/2010 at 4:39 अपराह्न
जब सभी में जीवन हैं, और उनका प्राणांत हिंसादोष है, तो क्यों न सबसे उच्च्तम, क्रूर, घिघौना हिंसाजनक दोष अपनाया जाय? है ना आश्चर्य!!
सुज्ञ
19/08/2010 at 4:45 अपराह्न
लोग मुर्दाखोर हैं?तर्क से तो बिना जान निकले शरीर मांस में परिणित हो ही नहिं सकता। लाजिक से तो कोई भी मांस मुर्दे का ही होगा। और वह तुक्का ही है कि काटो तो वह मुर्दा नहिं।
Akhtar Khan Akela
19/08/2010 at 6:26 अपराह्न
hnsraaj ji sb apne apne trh se pet paal rhe hen yeh bekaar ki chize hen ise apn bdl nhin skte lekin jo log gribon kaa khun chus rhe hen desh ki surkshaa or asmitaa se blaatkaar kr rhe hen unkaa srvekshn krvaa li jiye aapko shayd ptaa hogaa ke maansaahaari km beimaan hote hen jbki shaakaahaariyon men beimaani ki prvrti hoti he aap chahen to jel se aankde le len maarpit men to maansaahaar aage hen or milaavt,bhrstaachaar.lut baeimaani.dhokaadhdi men shaakaharon ka vrchsv he chaaho to aankde uthaakr dekh lo kyun apn aesi baat kren sb apne hmaam men nnge hen isliyen bhulen in bekaar ki chizon ko or desh ke nv nirmaan men apni taaqt lgaayen . akhtar khan akela kota rajsthan
सुज्ञ
19/08/2010 at 6:48 अपराह्न
अखतर ज़नाब,मेरे राजस्थान की वीर भूमि का शख्स,भृष्टाचार के लिये शाकाहार को दोषी ठहरा रहा है,राष्ट्र के नैतिक निर्माण से पहले नवनिर्माण में वक़्त लगानें की सलाह दे रहा है?बेकार की बात?, यदि आपके साहबज़ादे अकारण किसी कीडे को पांवो तले जानकर कुचल दे तो आप उसे कुछ शिक्षा देंगे कि बेकार की बात कहकर चुप रह जायेंगे। जरा बताना?
सुज्ञ
19/08/2010 at 6:57 अपराह्न
अखतर ज़नाब,आपकी इस बौद्धिक टिप्पणी से तो मैं हत्प्रभ रह गया।शाकाहारी बे-ईमान होते है वो आंकडे अगर आपके पास हो तो कृपया शीघ्रमुझे भेज दें, मैं मोमिनों को गेहूं का एक दाना न खाने दूं।
आशीष/ ASHISH
19/08/2010 at 7:45 अपराह्न
शाकाहार सर्वोत्तम आहार!सहमत! शत-प्रतिशत!
सुज्ञ
19/08/2010 at 8:24 अपराह्न
धन्यवाद आशिष, शाकाहार पर जब भी जरूरत पडे, चले आना!!
सुज्ञ
19/08/2010 at 8:27 अपराह्न
जिन देशों में शाकाहार उपलब्ध न था, वहां मांसाहार क्षेत्र वातावरण की अपेक्षा से मज़बूरन हो सकता है, लेकिन यदि उपलब्ध हो तो शाकाहार हमारी पहली पसंद ही होना चाहिए। और जहां सात्विक पौष्ठिक शाकाहार प्रचूरता से उपलब्ध है वहां तो हमें जीवों को करूणा दान,अभयदान दे ही देना श्रेयस्कर है। सजीव और निर्जीव एक गहन विषय है। जीवन वनस्पतियों आदि में भी है,लेकिन प्राण बचाने को संघर्षरत पशुओं को मात्र स्वाद के लिये मार खाना तो पराकाष्ठा है। आप लोग तो कहते भी हो कि "मुसलमान शाकाहारी होकर भी एक अच्छा मुसलमान हो सकता है" फ़िर मांसाहार की इतनी ज़िद्द क्यों?,
सुज्ञ
19/08/2010 at 8:31 अपराह्न
यह सब स्वटिप्पणियां वस्तूत कल के मेरे आलेख का संकलन है।फ़िर उंचा चढाने का भाव तो है ही, ताकि मुझे टिपाणियों द्वारा नये नये विचार मिले। इस विषय के साथ आत्मिय जुडाव मह्सुस करता हूंआभार आपका पढने के लिये।
Mahak
19/08/2010 at 9:50 अपराह्न
@आदरणीय सुज्ञ जी आपकी एक-२ बात से सौ फ़ीसदी सहमत हूँ और आपकी इस मुहीम में पूरी तरह से आपके साथ हूँ आप ब्लॉग संसद में भी आपनी पोस्ट्स और टिप्पणियों के माध्यम से मांसाहार नामक इस दुष्कृत्य के खिलाफ माहौल बनाने में सहयोग देते रहे एक बार ब्लॉग संसद पर वर्तमान प्रस्ताव सम्बन्धी बहस और मतदान पूरा हो जाए उसके बाद आप अपनी पोस्ट बेहिचक पब्लिश करेंमहक
आलोक मोहन
19/08/2010 at 10:13 अपराह्न
bhai muslmano ko shakahaar ka paad dena kuch yes hi hai "bhais ke aage been bajao bhais khadi pagyray"bhai jis aadmi ka dhrm ,saskaar,parivaar use maas khane ki ijjjat dete hai wo kahn se amnegamai sabhi se apeel kerta hu aap jeevo per daya kero permatma aap per daya karega
संगीता स्वरुप ( गीत )
20/08/2010 at 2:36 पूर्वाह्न
अच्छी जानकारी …लेकिन बस प्रयास किया जा सकता है….आदतें आसानी से नहीं बदलतीं …वैसे अब पश्चिम के लोग भी शाकाहार को महत्त्व देने लगे हैं ..
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
20/08/2010 at 5:40 पूर्वाह्न
सुज्ञ जी,आलेख की प्रस्तुति के लिये आपका आभारी हूँ। आंकडों की फिक्र करने वाले ब्रिटिश जेल के प्रयोग पर दृष्टिपात कर सकते हैं।
Arvind Mishra
20/08/2010 at 8:18 पूर्वाह्न
रोचक और जानकारीपूर्ण
राजभाषा हिंदी
20/08/2010 at 8:38 पूर्वाह्न
सुंदर प्रस्तुति!राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।
सागर नाहर
21/08/2010 at 9:56 अपराह्न
सबसे अजीबोगरीब टिप्पणी अख्तरखान अकेला जी की रही। इन्होने तो अपने स्तर पर सर्वेक्षण करवा कर शाकाहारियों को मिलावटखोरी, बेईमानी, धोखाबाजी आदि के लिए शाकाहारियों को दोषी ठहरा दिया।गजब है प्रभु! अखतर खान जी के ज्ञान पर नतमस्तक हूँ।खान साहब ये बताएं जिन मुल्कों में मांसाहार ज्यादा या पहली पसंद है, क्या उन मुल्कों में बेईमानी, धोखेबाजी, मिलावटखोरी नहीं होती?