भोग-उपभोग
27
जुलाई
पर क्रोध के उदय मात्र से, भ्रष्ट हो गया ज्ञान ॥1॥
सुलग रहा संसार यह, जैसे वन की आग ।
फ़िर भी मनुज लगा रहा?, इच्छओं के बाग ॥2॥
साझा-निधि जग मानकर, यथा योग्य ही भोग ।
परिग्रह परिमाण कर, जीवन एक सुयोग ॥3॥
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माधव
27/07/2010 at 5:41 अपराह्न
sundar
Arvind Mishra
27/07/2010 at 6:07 अपराह्न
सचमुच जीवन एक सुयोग ही तो है !
सुज्ञ
27/07/2010 at 6:58 अपराह्न
अरविन्द जी,आपके आने से मन हर्षित हो गया।
Udan Tashtari
27/07/2010 at 8:22 अपराह्न
बहुत सुन्दर!
अमित शर्मा
27/07/2010 at 8:59 अपराह्न
@ साझा-निधि जग मानकर, यथा योग्य ही भोग ।सारे फसाद की जड़ ही आवश्यकता से अधिक संग्रह प्रवृत्ति है……….बेहतरीन ज्ञान
सुज्ञ
28/07/2010 at 1:35 पूर्वाह्न
समीर जी,अमीत जी, सही फ़र्माया आपने, यह जगत हमारे सहित सभी जीवों की सम्पत्ति है।सम्पदा का हम दोहन न करें,आवश्यक उपयोग ही करें। यही भाव था।